चलिए अच्छा हुआ, हमें एक नया शिक्षा मंत्री मिला. शुक्र मनाइए कि अब कोई मानव संसाधन विकास मंत्री नहीं है और हां, शुक्र इस बात का भी मनाइए कि रमेश पोखरियाल अब शिक्षा मंत्री नहीं हैं. चूंकि देश को नया शिक्षा मंत्री मिला है तो क्या हम ये उम्मीद बांधें कि शिक्षा से जुड़े जो असल के सवाल हैं, अब उन सवालों का जोर बढ़ेगा और उन पर गौर किया जायेगा ?
महामारी में अर्थव्यवस्था और सेहत के बाद अगर सबसे गहरी चोट पड़ी है तो वो है शिक्षा का क्षेत्र. लेकिन अफसोस, कि शिक्षा के क्षेत्र का जो संकट बहुत प्रखर होकर सामने आता है, राजनीति का ध्यान थोड़ा-बहुत बस उसी पर जाता है. मीडिया में आई रिपोर्टों से पता चलता है कि ऐसे कुछ संकटों पर शिक्षा मंत्री ने ध्यान देना शुरु किया है. उन्होंने कार्यभार संभालने के पहले ही दिन देश के कुछ अग्रणी उच्च शिक्षा-संस्थानों के कुलपतियों तथा निदेशकों के एक पूर्व-निर्धारित सम्मेलन में शिरकत की. जेईई तथा एनईईटी के कलैंडर पर उनका ध्यान गया. नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन को लेकर भी उन्होंने कुछ चलती-फिरती बातें कहीं.
लेकिन, शिक्षा-क्षेत्र का असल संकट तो किसी और जगह है. संकट ये है कि पिछले एक साल से ज्यादा वक्त से स्कूली बच्चों ने अपनी पढ़ाई-लिखाई का भारी नुकसान उठाया है. यह बड़ा और व्यापक नुकसान है लेकिन प्रत्यक्ष नजर नहीं आता. लेकिन अभी तक मंत्री या फिर मंत्रालय ने इस संकट की पहचान नहीं की है. यों एक मायने में देखें तो ये संकट नया नहीं है. कपिल सिब्बल के दिनों से ही केंद्रीय शिक्षा मंत्रियों ने कुछ यों बरताव किया है मानो वे ‘उच्च शिक्षा’ के मंत्री हों. आइआइटी, आइआइएम, सेंट्रल यूनिवर्सिटीज़, राष्ट्रीय महत्व के शिक्षा संस्थान तथा परम श्रद्धा का विषय बन चले मेडिकल, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई के संस्थानों में दाखिले के इम्तहान जैसे मसले शिक्षा का महकमा संभालने वाले मंत्रियों के दिल-ओ-दिमाग पर हावी रहे हैं. हां, बीच-बीच में सेकुलरवाद और शिक्षा के भारतीयकरण जैसे विचारधाराई लड़ाई के प्रसंग भी सामने आये हैं. लेकिन, इस बार समस्या ने ज्यादा विकराल रुप धारण किया है. एक तो स्कूली शिक्षा पहले से ही नीति-निर्माण के मोर्चे पर हाशिए की ओर खिसकी चली आ रही थी लेकिन अभी वह सार्वजनिक बहसों से भी गायब हो चली है. बीते कुछ समय से शिक्षा के क्षेत्र में अवसरों की अकाल-मृत्यु की धीमी प्रक्रिया चली आ रही थी, महामारी ने उसे तेजतर कर दिया है. शिक्षा मंत्री का ध्यान इस बात पर जाना चाहिए.
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नये मंत्री के लिए कुछ सिफारिशों का पाठ
नये शिक्षा मंत्री धर्मेंन्द्र प्रधान को शुरुआत की कुछ मीडिया रिपोर्टों के पाठ से करना चाहिए. मीडिया में एक रिपोर्ट हाल में हरियाणा से आयी. रिपोर्ट में कहा गया कि इस साल प्रायवेट स्कूलों में नामांकित छात्रों की संख्या में भारी गिरावट आयी है. तकरीबन 12.5 लाख छात्रों ने इस साल प्रायवेट स्कूलों में दाखिला नहीं लिया यानि दाखिले में एक साल के दरम्यान 40 प्रतिशत की कमी हुई है. इस साल हरियाणा में प्रायवेट स्कूलों में दाखिला लेने वाले छात्रों की तादाद पिछले साल के 29.8 लाख से घटकर 17.3 लाख हो गई है. हमें ये मानकर नहीं चलना चाहिए कि दाखिला ना लेने वाले ज्यादातर छात्र स्कूली पढ़ाई छोड़ चुके हैं. बड़ी संभावना यही बनती है कि इनमें से ज्यादातर छात्रों ने प्रायवेट स्कूलों की ऊंची फीस ना चुका पाने के कारण सरकारी स्कूलों में नाम लिखवा लिया हो. ये मानना भी तर्कसंगत होगा कि प्रायवेट स्कूलों में नाम ना लिखवा सकने वाले इन छात्रों में लड़कियों की एक छोटी तादाद ऐसी भी होगी जिन्हें स्कूल छोड़ना पड़ा हो यानि उनका नामांकन अब ना तो किसी प्रायवेट स्कूल में है और ना ही सरकारी स्कूल में. यही बात सरकारी स्कूलों पर भी लागू होती है क्योंकि आमदनी में आयी तेज गिरावट के कारण बहुत से लड़कों को मजबूरन परिवार का खऱचा चलाने के लिए किसी ना किसी दुखड़े-धंधे में उतरना पड़ा है और लड़कियों को घरेलू कामकाज में हाथ बंटाने का जिम्मा संभालना पड़ा है. मीडिया में आयी कई अन्य रिपोर्टों से भी इस रुझान की पुष्टी होती है.
या फिर, मंत्रीजी अपना कुछ और वक्त निकाल सकें तो वे एनुअल स्टेटस् ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट 2020 पर नजर दौड़ा सकते हैं. ग्रामीण भारत के स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की गुणवत्ता की बात करने वाली इस रिपोर्ट में साल 2020 में ये देखने का प्रयास किया गया है कि कोरोना का शिक्षा पर असर क्या रहा, पहली लहर के दौरान छात्रों को पढ़ाई-लिखाई का जो नुकसान हुआ उसे रिपोर्ट में दर्ज किया गया है. रिपोर्ट में जिक्र है कि ज्यादातर विद्यार्थियों के पास पाठ्यपुस्तक तो थी लेकिन कोरोनाबंदी के पिछले पूरे साल उन्हें पढ़ाई-लिखाई में कोई और मदद न के बराबर हासिल हुई. बेशक, ग्रामीण भारत में स्मार्टफोन का प्रसार बढ़ा है लेकिन रिपोर्ट के मुताबिक अब भी स्कूल जाने वाले बच्चों वाले 42 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिनके पास स्मार्टफोन नहीं है. जो परिवार अपेक्षाकृत ज्यादा गरीब हैं, उनमें 55 प्रतिशत के पास स्मार्टफोन नहीं है. अगर ये मान लें कि ऐसे परिवारों के पास स्मार्टफोन हो जाये तो भी पाठ्यसामग्री की किल्लत की समस्या बनी रहेगी. ग्रामीण इलाकों में केवल 35 प्रतिशत विद्यार्थी ऐसे रहे जिन्हें पढ़ाई-लिखाई के लिए कोई सहायक सामग्री हासिल हुई. सहायक पाठ्य-सामग्री हासिल करने वाले प्रायवेट स्कूलों के छात्रों की तादाद 40 प्रतिशत है. पढ़ाई-लिखाई में मददगार साबित होने वाली पूरी की पूरी सहायक सामग्री ह्वाट्सएप्प के जरिए भेजी गई तो आप कह सकते हैं कि हमलोग ह्वाट्सएप्प युनिवर्सिटी के दौर से ह्वाट्सएप्प स्कूल के दौर में चले आये हैं.
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प्राथमिकता के क्षेत्रों की पहचान
महामारी के दौरान स्कूली शिक्षा को बहुत से व्यापक दुष्प्रभाव झेलने पड़े हैं और कई अन्य मीडिया रिपोर्टों में इनकी चर्चा है, जैसे: ज्यादा तादाद में छात्रों का स्कूली पढ़ाई छोड़ना, प्रायवेट स्कूलों से नाम हटाकर सरकारी स्कूलों में दाखिला लेना, स्कूलों में पढ़ रहे लड़कों का बाल-श्रम और लड़कियों का घरेलू कामकाज में लग जाना और मिड डे मिल ना मिलने के कारण बच्चों के सेहत और पोषण पर बुरा असर. दूसरे शब्दों में कहें तो पिछले डेढ़ दशक से स्कूली शिक्षा के मामले में जो प्रगति हुई थी वह बीते डेढ़ साल में धुल-पुंछ कर बराबर हो गई है. घाटा सिर्फ शिक्षा की गुणवत्ता का नहीं हुआ बल्कि हमारा श्रम-बल कौशल अर्जित करने से भी वंचित हुआ है और शिक्षामंत्री को इस बात की जरुर चिन्ता करनी चाहिए क्योंकि कौशल-विकास का महकमा भी उन्हीं के जिम्मे है. उच्च शिक्षा के क्षेत्र में चुनौतियां भले ही अलग जान पड़ रही हों लेकिन वहां भी जो नुकसान हुआ है वह स्कूली शिक्षा के मोर्चे पर हुए नुकसान की प्रकृति से मिलता-जुलता है, जैसे: क़ॉलेज या युनिवर्सिटी से पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों की तादाद का ज्यादा होना, छात्रों की एक बड़ी तादाद को शैक्षणिक सामग्री ना मिल पाना. ऐसे छात्रों में बहुतायत वंचित तबकों के छात्रों की है. साथ ही, कोरोनाबंदी में कॉलेज-युनिवर्सिटी के छात्रों की शिक्षकों तक पहुंच बाधित रही.
ऐसे में शिक्षा मंत्री से मैं अपील करुं तो वह यों होगी: मुझे पता है, आप नई शिक्षा नीति को लेकर उत्साही दिखना चाह रहे हैं. मैं खूब समझ रहा हूं कि पाठ्यक्रम में भगवा विचारधारा फेंटने के लिए आप पर बहुत से दबाव होंगे. मैं ये भी देख रहा हूं कि मध्यवर्गीय परिवारों के बच्चे जिन प्रवेश-परीक्षाओं को पास करने के लिए जी-जान से जुटे रहते हैं, उन प्रवेश-परीक्षाओं को पटरी पर लाने के लिए भी आप पर दवाब होंगे. इन सबका आप भरसक समाधान कीजिए लेकिन एक बात मानिए, अभी इन मसलों को जरा पीछे रखिए और सबसे पहले स्कूली शिक्षा के संकट का समाधान कीजिए, स्कूली शिक्षा का संकट जितना असली है उतना ही अप्रत्यक्ष भी.
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