उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा आनन फानन में देर रात को हाथरस की दलित महिला का दाह संस्कार कर देना और वो भी जब कि उसके परिवार का एक भी सदस्य मौजूद नहीं था, खौफनाक है. ये इस मामले को दबाने का एक कुत्सित प्रयास है. कथित बलात्कारियों द्वारा उसका गला घोंटकर हत्या करने के प्रयास से बहुत अलग नहीं है.
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश में टॉक्सिक पावर प्ले का एक बार फिर उदय हो रहा है, जिसमें पुलिस एक सामंती तंत्र की तरह काम कर रही है. और पावर हाइआर्की में एक गरीब दलित महिला सबसे कमजोर पायदान पर खड़ी है. उच्च जाति की मर्दानगी और पुलिस शक्ति व इस अपराध के लिए आई कई प्रतिक्रियाओं का ये कॉकटेल दशकों से चले आ रहे सामाजिक न्याय के संघर्षों पर पानी फेर रहा है.
अन्याय का हर सिस्टम, साइलेंट प्रिवलेज्ड समर्थकों से ताकत से अपनी नींव मज़बूत करता है. इस केस में भी, ये प्रिवलेज्ड ‘उच्च जाति’ ही है जो अंततः जाति-आधारित अत्याचारों के लिए आधार बनाने में मदद करती हैं. ये या तो सक्रिय रूप से जाति के कनेक्शन के चलते आरोपियों के समर्थन में आए या वे आरोपियों की जाति छुपाने पर उतारू हैं. हाथरस के केस में दोनों ही पक्ष सामने आए हैं.
ये नेक्सस भारत में सवर्णों द्वारा कुछ विशेषाधिकारों का आनंद उठाए जाने वाली बात को अदृश्य रखने की कोशिश करता है. और ये नेक्सस अधिक आक्रमक तब हो जाता है जब इस पावर स्ट्रक्चर को चैलेंज किया जाता है- जो कि मॉडर्न बहुजन करना भी चाहते हैं. फिर चाहे वो सोशल मीडिया पर मुखर दलित हो या भीम आर्मी के चंद्रशेखर आज़ाद हों- भारत के जातिग्रस्त ब्राह्मणवादी ढांचे को अब पहले की बजाए चुनौती ज़्यादा दिखाई देती है.
हाथरस का कथित गैंगरेप और हत्या की ये घटना एक बहुत अलग केस नहीं है. योगी आदित्यनाथ सरकार और यूपी पुलिस का इस केस के प्रति प्रतिक्रिया सामाजिक न्याय के खिलाफ चली आ रही लंबे समय की नाराज़गी को उजागर करता है.
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बलात्कार अपनी ताकत दिखाने का एक ज़रिया है
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने एक फेसबुक पोस्ट में कहा कि हाथरस जैसी बलात्कार की घटनाएं इसलिए होती हैं क्योंकि भारत में युवा बेरोजगार और अविवाहित हैं- रेप को आदमियों की एक ‘नेचुरल अर्ज़’ के तौर पर स्थापित करने की कोशिश.
इसी तरह, ट्विटर पर कई लोग इस बात के खिलाफ थे कि हाथरस में 20 वर्षीय महिला की जातीय पहचान को उजागर कर दलित क्यों बताया जा रहा है. क्योंकि ‘बलात्कार तो बलात्कार है, इसमें जाति क्यों लाई जाए’ ये उनका तर्क है.
What you really meant, @_pallavighosh was "As an upper caste woman, all that matters to you is that her caste should be made irrelevant for your narrative to hold. So you will not think beyond it because, why make the effort to change things that benefit you? Say it properly. https://t.co/D7ct3gqALg
— Divya Malhari (@Datlitwriter) September 29, 2020
बलात्कार, पुरुषों की यौन इच्छा या फिर औरत ने क्या पहना था या वो क्या कर रही थी के बारे में नहीं है. बलात्कार हमेशा अपनी ताकत, वर्चस्व और नियंत्रण दिखाने के बारे में है. हमारे देश के संदर्भ में ये जाति में भी तब्दील हो जाता है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, भारत में हर दिन चार दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है. ज्यादातर मामलों में, कोई कनविक्शन ही नहीं होता. हाथरस वाले मामले में, परिवार का कहना है कि यूपी पुलिस ने 10 घंटे तक एफआईआर ही दर्ज नहीं की. जाति की बात आते ही उपेक्षा करना या इसके बारे में बोलने वालों को दोषी ठहराना, एक असुविधा को दर्शाता है जो भारतीय समाज में जाति आधारित विशेषाधिकारों को चैलेंज मिलने की वजह से पैदा होती है.
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‘राम राज्य- एक उच्च जाति की कल्पना’
एक संवैधानिक तरीके से चुनी गई लोकतांत्रिक सरकार के बावजूद, भारत में बार-बार राम राज्य लाने की बात दोहराई जा रही है. लेकिन जो देश संविधान और विभिन्न कानूनों से चल रहा हो तो उसमें राम राज्य की ये मांग इस व्यवस्था को चुनौती देकर अपनी ताकत स्थापित करने का एक प्रयास है.
‘राम राज्य’ एक ‘उच्च जाति’ के पुरुष की कल्पना है. इसमें बहुजन या भारत के अल्पसंख्यक शामिल नहीं हैं. राम राज्य के बारे में सबसे ज्यादा मुखरता से वकालत भी उच्च जातियां करती हैं. वो जातियां इस बात से पावरफुल महसूस करती हैं कि मॉडर्न भारत में एक धार्मिक आह्वान को चुनौती देने वाले कम ही होंगे.
लेकिन क्योंकि भारत की जाति व्यवस्था एक ब्राह्मणवादी व्यवस्था है इसलिए ‘राम राज्य’ भी अनिवार्य रूप से भारतीय समाज पर इस ब्राह्मणवादी व्यवस्था को लागू करने का एक तरीका है, वो भी बिना किसी चुनौती के.
राम राज्य की कल्पना करना ही पारंपरिक रूप से सत्तारूढ़ रही उच्च जातियों की इच्छाओं को पूरा करता है. क्योंकि केवल वे भगवानों से खुद की पहचान को जोड़कर देखते हैं. यहां तक कि वे उन राजाओं के वंशज होने का भी दावा करते हैं. एक दलित व्यक्ति कभी भी राम के वंशज होने का दावा नहीं कर सकता. एक दलित महिला कभी भी सीता की पहचान रखने का दावा नहीं कर सकती.
राम राज्य की सारी चर्चा केवल उच्च जाति के पुरुषों की सांस्कृतिक शक्ति को बढ़ाने के लिए है. राम के आह्वान के नाम पर दलितों और ओबीसी को अपने अधीन किया जाता है.
हाथरस का केस और यूपी पुलिस का इसमें शर्मनाक व्यवहार, एक बार फिर भारत में जाति-आधारित घृणा को उजागर करता है. अगर अपने देश को लोकतांत्रिक बनाए रखना है तो दलितों को सत्ता में प्रतिनिधित्व की मांग करनी होगी. यदि इस मामले की जांच के लिए एक एसआईटी स्थापित की जाती है, तो दलित अधिकारियों और नेताओं या कार्यकर्ताओं का प्रतिनिधित्व होना चाहिए. प्रतिनिधित्व के बिना, यह सब एक दिखावा होगा और सब कुछ ‘ऊंची जातियों’ की कल्पनाओं के अनुसार होगा.
(व्यक्त विचार निजी हैं)
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nishpaksh nahin patrkarita MAZLOOM ke PAKSH mein hona chahiye.