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Sunday, 22 December, 2024
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दलितों-वंचितों को संगठित कर रहा है इंटरनेट और सोशल मीडिया!

दलितों, आदिवासियों और ओबीसी की इस तरह की दशा की वजह उनमें आर्थिक और राजनैतिक जागरूकता का अभाव तथा एकजुटता की कमी है.

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सबसे पहले देश की सामाजिक हकीकत को बयान करने वाले कुछ तथ्यों और आंकड़ों पर ध्यान देते हैं. ये सभी आंकड़े सरकारी और विश्वसनीय स्रोतों से लिए गए हैं.

1. देश भर के जेलों में कैदियों की कुल संख्या में करीब एक तिहाई आबादी दलितों और आदिवासियों की है.
2. मौत की सजा पाये लोगों में 90 प्रतिशत से भी अधिक दलित, पिछड़े और धार्मिक अल्पसंख्यक हैं.
3. कुल दोषी ठहराए गए आरोपियों में से एक तिहाई से अधिक अकेले दलित-आदिवासी समुदाय से हैं.
4. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की 2016 की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में हर 18 मिनट पर किसी न किसी दलित के साथ अत्याचार होता है.
5. लगभग 45  प्रतिशत के आसपास दलितों के पास खेती करने के लिए जमीन तक नहीं है.
6. प्राइमरी स्कूल में दाखिला लेने वाले आधे अधिक बच्चे बीच में ही स्कूल छोड़ देते हैं. इनमें एससी-एसटी-ओबीसी की संख्या ज्यादा है.
7. देश में दलितों की सरकारी नौकरी में भागीदारी महज 4 प्रतिशत के करीब है.

(जेल संबंधी सारे आंकड़े प्रिज़न स्टैटिक्स इन इंडिया 2015 से लिए गए हैं.)

मण्डल कमीशन लागू किए जाने के दो दशक बाद भी केंद्रीय सरकारी नौकरियों में ओबीसी समुदाय निर्धारित 27% भागीदारी हासिल कर पाने में सफल नहीं हुए हैं. आज भी ओबीसी समुदाय की भागीदारी महज 12 प्रतिशत के आस-पास है, जबकि दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन के अनुसार इनकी जनसंख्या देश की कुल आबादी की करीब 52 से अधिक है.

सवाल उठता है कि एक चौथाई से ज़्यादा आबादी रखने वाले दलितों-आदिवासियों के साथ सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अन्याय आज़ादी के करीब सात दशक बाद भी कैसे जारी है? इस आबादी में अगर 52 फीसदी से अधिक ओबीसी की आबादी को भी शामिल कर लिया जाय तो देश की करीब तीन चौथाई से अधिक आबादी किसी न किसी तरह के उत्पीड़न, हकमारी और सामाजिक भेदभाव की शिकार है.

एससी-एसटी-ओबीसी में एकजुटता का अभाव

दलितों, आदिवासियों और ओबीसी की इस तरह की दशा की वजह उनमें आर्थिक और राजनैतिक जागरूकता का अभाव तथा एकजुटता की कमी है. राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा राजनीतिक मंच खड़ा न कर पाने के चलते हर तरह के अवसरों से इन्हें वंचित होना पड़ता है. यही नहीं करीब तीन चौथाई दलितों की आर्थिक दशा सोचनीय है और मिड-डे-मिल के तहत दलित बच्चों के साथ तरह-तरह से भेदभाव किया जाता है.

दूसरी तरफ आदिवासी आज भी अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं. आदिवासियों को आज भी भरोसा नहीं है कि वे अपने जल, जंगल और जमीन में सुरक्षित हैं. जिस तरह आज़ादी के बाद की एक के बाद एक सरकारों ने विकास के नाम पर आदिवासियों को उनके सामुदायिक क्षेत्र से बेदखल करना शुरू किया, जिससे उनकी आर्थिक निरंतरता, जीविका यापन और आवास को लेकर बहुत अधिक अनिश्चितताएं सामने आई हैं.

आखिर इस देश में वंचित तबके के बच्चों का भारतीय नागरिक सेवा में चयन या विश्वस्तरीय प्रतियोगिताओं में पदक लाना महिमामंडन वाली खबर क्यों है? क्योंकि हमने देश में उस ढांचे का विकास ही नहीं किया जिसमें देश के साधनसंपन्न और वंचित दोनों तबके के बच्चों के लिए समान अवसर और सुविधायें मुहैया हों. बचपन ही देश के भविष्य कहे जाने वाले बच्चों को भेदभाव से रूबरू करा देती है, एक तरफ सारी सुविधाओं से लैस इलिट भाषा वाला बचपन होता, जिसकी शिक्षा सत्ता की भाषा में होती है और दूसरी तरफ नंगे पांव वाला टाट-पट्टी पर क्षेत्रीय भाषा में पढ़ने वाला बचपन, जो प्रतियोगी माहौल पर पहुंचने पर पाता है कि उसने जिस भाषा में पढ़ा, वह भाषा न तो बड़ी-बड़ी कंपनियों में चलती है, न सार्वजनिक उपक्रमों में उसमें काम होता है, सरकारी कामों में वह एक उपेक्षित भाषा के अलावा और कुछ नहीं है.

एक वंचित तबके के लिए न्याय की पहली लड़ाई न्यायपालिका की रूढ़िवादी कानूनी प्रक्रियाओं और न्यायाधीशों से निपटने से ही शुरू हो जाती है. जनता और न्यायपालिका के बीच बहुत दूरी है, इस देश में अभी भी उन्हीं क़ानूनों से जनता को हांका जा रहा है, जिसे अंग्रेज़ों ने 19वीं शताब्दी में बनाया और लागू किया. राजनीतिक दलों का नेताओं पर कंट्रोल इतनी ज़बर्दस्त है कि पार्टी की मर्ज़ी के बिना कोई एमएलए या एमपी मुंह भी नहीं खोलता. ये नियंत्रण टिकट के बंटवारे के समय से ही शुरू हो जाता है.

इंटरनेट से मिली वंचितों को जुबान

देर से सही संचार क्रांति ने सामाजिक ऊथल-पुथल की नई संस्कृति लिखी है. जनता समझ रही है कि देश की आज़ादी का मतलब दलित, आदिवासी और ओबीसी लोगों की आर्थिक और सामाजिक आज़ादी है.

दलित, आदिवासी और ओबीसी को अपने हक़ की लड़ाई के लिए साझे मंच पर आने की ज़रूरत है. इसके लिए पारंपरिक राजनीति और राजनीतिक दल शायद ही किसी तरह की कोई रचनात्मक भूमिका निभाने की स्थिति में हैं. ये भूमिका अब टेक्नोलॉजी निभा रही है.

आज की देश के करीब तीन चौथाई आबादी की लड़ाई जनता के बीच से लड़े जाने की ज़रूरत है, जिसमें अब तथाकथित मेनस्ट्रीम मीडिया की भूमिका पहले जैसी नहीं रही है क्योंकि इंटरनेट और सोशल मीडिया ने देश की सबसे से अधिक उपेक्षित आबादी को एक फ्री स्पेस दिया है यानि जिस वर्ग के लोगों के लिए मुख्यधारा की मीडिया के दरवाज़े बंद थे, उसके लिए इन्टरनेट की क्रांति ने बिना किसी सांगठनिक ढांचे और लागत के उससे भी अधिक सशक्त मीडिया उपलब्ध करा दिया है. देश के 45 करोड़ लोग आज अगर इंटरनेट से जुड़ गए हैं तो उनमें से काफी लोग इन वंचित समुदायों के भी हैं.

परंपरागत मीडिया से उलट सोशल मीडिया में कोई गेटकीपर नहीं

एक ज़माना था आंकड़ों और शोधों के लिए रिपोर्टों पर भारी निर्भरता होती थी, जहां तक दलित और वंचित तबकों की पहुंच नहीं के बराबर थी. मुख्यधारा की मीडिया के हाथ में था कि वह इन रिपोर्टों को अपनी खबरों में तवज्जो दे या न दे. लेकिन आज के बदले हुए समय में सबकुछ एक क्लिक की दूरी पर है और नई मीडिया के प्रबंधन या एडिटर जैसी व्यवस्था से मुक्त होने के चलते, सामूहिक संचार और संवाद का वास्तविक और लोकतान्त्रिक मंच बनकर उभरा है.

हाल के कुछ आंदोलनों में इस मीडिया का प्रभावी तरीके से इस्तेमाल किया गया है, यह भी कारण है कि सरकार लगातार सोशल मीडिया पर शिकंजा कसने के लिए लगातार प्रयास में लगी हुई ताकि देश की बहुसंख्यक आबादी की आवाज़ को उसी तरह से दबाकर रखा जाये जैसे मेनस्ट्रीम मीडिया दबाकर रखती आ रही है. भारतीय मीडिया की सबसे विडम्बना यही है कि इसके एक बड़े हिस्से द्वारा समाजवादी या साम्यवादी होने का दावा किए जाने के बावजूद राष्ट्रीय मीडिया के 315 सबसे अधिक प्रभावशाली लोगों में से कोई भी दलित-आदिवासी नहीं है. ये शोध योंगेंद्र यादव, अनिल चमड़िया और जितेंद्र कुमार ने 2006 में किया था.

संगठनकर्ता बन गया है सोशल मीडिया

लेकिन आज देश में दलितों और आदिवासियों की आवाज़ को दबाना पहले की तरह संभव नहीं रह गया है क्योंकि वैकल्पिक मीडिया के चलते मुख्यधारा की मीडिया को भी उनकी आवाज़ को सुनने को मजबूर होना पड़ रहा है. यह आवाज़ इतनी ताकतवर होती जा रही है कि महानगरों से लेकर छोटे शहरों और गांव के इलाकों तक दलित समुदाय के बीच चेतना आ रही है. आज ज़रूरत इस बात की है कि दलित और आदिवासी नई मीडिया को सधे हुए संचारक की तरह न केवल इस्तेमाल करे बल्कि अपने समाज को सोशल मीडिया संचार के लिए तैयार भी करे.

भारत की जिस भाषाई विविधता को आज़ादी के सात दशक तक देशव्यापी संचार में रोड़ा माना जाता रहा, उसे नई मीडिया की क्रांति ने धता बताकर, हर भाषा को न केवल अपना ज़रिया बना लिया और उसकी आवाज़ भी बन गयी. नई मीडिया की इसी भाषाई निरपेक्षता ने देश भर के दलितों को उत्पीड़न के खिलाफ एक नई संचार की भाषा दे दी है. इसका असर इतना व्यापक है कि सोशल मीडिया दलितों और आदिवासियों पर अत्याचारों को रिपोर्ट करने की मुख्यधारा की मीडिया में तब्दील हो गई है.

(लेखक सामाजिक और मीडिया विषयों पर नियमित टिप्पणियां लिखते हैं.)

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