शांति भूषण और उनके बेटे प्रशांत भूषण न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता के हिम्मती योद्धा रहे हैं. ये दोनों अनेक मानवाधिकार और पर्यावरण कार्यकर्ताओं के लिए आसरा रहे हैं, जिनकी पैरवी इन्होंने बिना फीस लिए और अथक रूप से उच्च न्यायालयों में की है. दोनों भूषण अजमल कसाब व याक़ूब मेमन की सज़ाए मौत और कश्मीर के लोगों के आत्म-निर्णय के अधिकारों के समर्थन जैसे अलोकप्रिय मुद्दों पर सैद्धांतिक रुख़ अपनाने से नहीं डरते. लेकिन साथ ही ये भी ज़रूरी है कि गाहे ब गाहे लोकप्रिय हस्तियों को चयनात्मक ढंग से निशाना बनाने वाले इनके निंदात्मक और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बयानात की ओर भी ध्यान खींचा जाए.
सार्वजनिक मुद्दों की लड़ाई लड़ते हुए भूषणों के अंदर एक असहनशीलता पैदा हो गई है. ये सिर्फ उन पर ही ग़ुस्सा नहीं उतारते, जो वैचारिक रूप से इनके ख़िलाफ हैं. बल्कि कई बार इनके हमसफर ‘उदारवादी’ भी इनके व्यापक और कभी -कभी बेबुनियाद आरोपों का निशाना बने हैं. बरसों की मेहनत से कमाई गई लोगों की प्रतिष्ठा को इन्होंने बिना किसी ठोस सबूत के अपने अविवेकी बयानों से मिट्टी में मिलाया है.
भ्रष्टाचारियों की बेहद लंबी सूची
2009 में दिए गए एक इंटरव्यू में प्रशांत भूषण ने भारत के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीषों में 8 को भ्रष्ट क़रार दे दिया. सुप्रीम कोर्ट में दिए एक हलफनामे में शांति भूषण ने सील किए हुए कवर के अंदर एक सूची पेश की जिसमें क्रमश: आठ, छ: और दो मुख्य न्यायाधीशों की ईमानदारी की, अलग-अलग श्रेणियों में शिनाख़्त की गई थी. इस हलफनामें में उन्होंने कहा, ‘आवेदक की राय में आठ निश्चित रूप से भ्रष्ट थे, छ: निश्चित रूप से ईमानदार थे और बाक़ी दो के बारे में, निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि वो ईमानदार थे या भ्रष्ट.’
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बाद में, प्रशांत भूषण ने पूर्व चीफ जस्टिस एसएच कपाड़िया के बारे में अपने आरोप को ये सफाई देते हुए हल्का कर दिया कि कपाड़िया के नाम के आगे ‘भ्रष्टाचार’ शब्द का इस्तेमाल, ‘केवल हितों के टकराव’ के संदर्भ में किया गया था और वो इसलिए था कि कपाड़िया के पास खनन समूह वेदांता स्टर्लाइट के शेयर्स थे. भूषण ने जस्टिस केजी बालकृष्णन की अगुवाई वाली, फॉरेस्ट बेंच में जस्टिस कपाड़िया को शामिल किए जाने का विरोध किया था, जो वेदांता स्टर्लाइट ग्रुप की एक परियोजना से संबंधित, एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रही थी. चूंकि जस्टिस कपाड़िया ने ख़ुद को उस बेंच से नहीं हटाया, इसलिए भूषण ने उन्हें ‘भ्रष्ट’ क़रार दे दिया. बाद में कपाड़िया सीजेआई बने और उनके कार्यकाल में शीर्ष अदालत ने अपनी पूर्ण शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए कोर्ट की निगरानी में 2-जी स्पेक्ट्रम और कोयल आवंटन की जांच के आदेश दे दिए, जिसमें अंत में जाकर मंत्रियों और शक्तिशाली व्यवसाइयों की गिरफ्तारियां हुईं और उन्हें दी गईं तमाम रिआयतें और लाइसेंस रद्द कर दिए.
प्रशांत और शांति भूषण ने जिन लोगों को ‘भ्रष्ट’ क़रार दिया है. उनकी सूची सुप्रीम कोर्ट जजों से आगे जाती है. इसमें कपिल सिब्बल, प्रणब मुखर्जी, मनीष तिवारी, रवि शंकर प्रसाद, सलमान खुर्शीद, देश का लगभग हर प्रमुख कॉरपोरेट समूह, बार के सहयोगी और मीडिया के पत्रकार शामिल हैं- ‘भ्रष्टाचारियों’ की इनकी लिस्ट लंबी है और बढ़ रही है. जूनियर भूषण ने एक बार तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को ‘शिखंडी’ कह दिया था- हिंदू महाकाव्य महाभारत का एक ट्रांसजेंडर किरदार, जो कौरवों की तरफ था और जिसने लड़ाई से बचने के लिए अपने जेंडर का इस्तेमाल किया. कपिल सिब्बल के ख़िलाफ आप के सदस्य के नाते प्रशांत भूषण ने एक प्रेस कॉनफ्रेंस को संबोधित किया और उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए. उस समय कपिल सिब्बल यूपीए-2 की सरकार में संचार मंत्री थे और उनके बेटे अमित सिब्बल एक सीनियर वकील थे. भूषण ने सिब्बल्स के ख़िलाफ हिंदी और अंग्रेज़ी में दो प्रेस विज्ञप्तियां भी जारी कीं थीं. हिंदी प्रेस विज्ञप्ति को ‘कपिल सिब्बल गाथा’ कहा गया था. इसकी सामग्री लज्जाजनक थी और इसमें दावा किया गया था कि कपिल सिब्बल ने एक संचार कंपनी की हिमायत इसलिए की थी कि उनका बेटा उसका वकील था. इसमें भी, किसी प्रतिदान का कोई ठोस सबूत पेश नहीं किया गया. ये आरोप घटिया और सरासर झूठे थे. कई साल बाद सिब्बल्स ने, लोकतंत्र-विरोधी शक्तियों के ख़िलाफ लड़ाई में, साझा मूल्यों का हवाला देते हुए, भूषण के ख़िलाफ दायर मानहानि का मुक़दमा वापस ले लिया. प्रशांत ने पूर्व एजी वाहनवती और मौजूदा एजी केके वेणुगोपाल पर भी झूठ बोलने के आरोप लगाए.
आप पर बार-बार निशाना
प्रशांत भूषण की सूचियों के संग्रह, जैसे ‘दस सबसे भ्रष्ट मंत्री’, ‘सौ सबसे भ्रष्ट राजनेता’, ‘आठ सबसे भ्रष्ट चीफ जस्टिस’ और ‘चार चीफ जस्टिस जिन्होंने लोकतंत्र को तबाह कर दिया है’ के साथ भारी समस्या है. ये बिल्कुल साफ नहीं है कि वो ऐसी विशेष संख्या पर कैसे पहुंचते हैं या भ्रष्टाचार को नापने का कौन सा मानदंड अपनाते हैं. ये सूचियां अकसर सत्यापन योग्य साक्ष्यों के बिना जारी कर दी जाती हैं.
2015 से 2018 के बीच जब भी सरकारी एजेंसियों ने आम आदमी पार्टी (आप) के सदस्यों पर मुक़दमा क़ायम किया, या कोई आप विधायक गिरफ्तार हुआ या दिल्ली सरकार के किसी पदाधिकारी पर सीबीआई या आईटी विभाग या दिल्ली पुलिस की छापेमारी हुई. भूषण और योगेंद्र यादव, टीवी और सोशल मीडिया पर उस क़दम की ख़ूब सराहना करते थे. उनकी घिसी-पिटी प्रतिक्रिया का सार यही होता था, ‘क्या हमने आपको नहीं बताया था कि वो सब भ्रष्ट हैं’. आख़िरकार, आप विधायक 130 में से 99 मामलों में बरी हो गए, जो पुलिस ने 2015 से 2019 के बीच, 52 विधायकों के ख़िलाफ दायर किए थे.
लेकिन इन ‘लोकतंत्र के अभिभावकों’ ने एक बार भी दिल्ली में चुनी हुई सरकार के खिलाफ, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक हमलों पर मुंह नहीं खोला. जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रमुख सचिव पर सीबीआई छापे के बाद उन्हें जेल में डाला गया, तो प्रशांत भूषण ने ट्वीट किया, ‘केजरीवाल का चिल्ला-चिल्ला कर इसे प्रतिशोध बताना, सिर्फ इसलिए कि सीबीआई ने उन्हें सूचित किए बिना, उनके भरोसेमंद आदमी पर छापा मार दिया, बहुत ही बेतुकी बात है. क्या किसी अभियुक्त को रेड की चेतावनी दी जानी चाहिए? केजरीवाल के ‘भरोसेमंद’ प्रमुख सचिव के खिलाफ मामला काफी मज़बूत है. आप इसे सिर्फ इसलिए प्रतिशोध नहीं कह सकते कि किसी विपक्षी राजनेता या उनके विश्वासप्राप्त आदमी के यहां छापा पड़ा है.’ 2015 में जब आयकर विभाग ने छतरपुर विधायक करतार सिंह तंवर के घर पर छापा मारा, तो भूषण ने अपने ट्वीट में इशारा किया कि तंवर भ्रष्ट था और वो उन लोगों में था जिसके विधायक के नामांकन का, उन्होंने विरोध किया था.
‘बेशर्म’, ‘पाखंडी’, और ‘झूठा’ वो शब्द हैं, जो भूषण ने बार बार खुले तौर पर अपने पूर्व सहयोगी अरविंद केजरीवाल के लिए प्रयोग किए, जो किसी समय भूषण की किताब में ‘सबसे ईमानदार व्यक्ति’ थे.
2018 में, जब दिल्ली के मुख्य सचिव अंशु प्रकाश ने अरविंद पर आरोप लगाया कि सीएम की मौजूदगी में आप विधायकों ने उन्हें थप्पड़ मारा और दिल्ली पुलिस के निचले दर्जे के अधिकारियों ने केजरीवाल से घंटों पूछताछ की तो प्रशांत भूषण को इसमें कुछ ग़लत नहीं लगा कि एक मामूली से आरोप पर दिल्ली पुलिस एक सिटिंग चीफ मिनिस्टर से पूछताछ कर रही थी. बल्कि भूषण ने उस नौकरशाह की हिमायत करना पसंद किया और उसे ‘बहुत सम्मानित मुख्य सचिव’ क़रार दिया. उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, पहले तो ये मुनासिब नहीं था कि मुख्य सचिव को आधी रात को, सीएम आवास पर मीटिंग के लिए बुलाया जाए और दूसरे सभी सबूत इस ओर इशारा करते हैं कि मीटिंग में उन पर हमला किया गया था. 2015 से 2018 के बीच, शांति भूषण ने बार-बार दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने की मांग की ये तर्क देते हुए कि अरविंद केजरीवाल सरकार संविधान का उल्लंघन कर रही थी.
केंद्र द्वारा आप के खिलाफ एजेंसियों के दुरुपयोग को भूषणों का मौन समर्थन दोहरे मानदंड दर्शाता है.
शायद अगर दोनों भूषण, ख़ासकर सामान्य रूप से ‘उदारवादी’ लोग, दिल्ली पुलिस द्वारा आप विधायकों की, ग़लत गिरफ्तारियों का, मुखर होकर विरोध करते, तो उसका हौसला इतना अधिक न बढ़ता, जितना आज हो गया है, जब वो खुल कर हर्ष मंडर और अपूर्वानंद जैसे, मानवाधिकार रक्षकों के पीछे पड़ी है.
एक आरामदेह क्लब
दमन के ख़िलाफ नाराज़गी चयनात्मक नहीं हो सकती, जब पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम को संदिग्ध सबूतों और झूठे प्रतीत होते आरोपों की बिना पर जेल में डाला गया, तो उदारवादी तबक़े से कोई महत्वपूर्ण आवाज़, सैद्धांतिक रुप से उनकी हिमायत में खड़ी नहीं हुई. मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़, जिनके पीछे गुजरात सरकार पिछले 6 साल से हाथ धोकर पड़ी है, नैतिक समर्थन के लिए केवल वामपंथी राजनीतिक दलों के सहारे हैं. मुख्यधारा के ग़ैर-बीजेपी राजनेता और दिल्ली का बुद्धिजीवी वर्ग, यदा कदा ही उनकी हिमायत में खड़ा होता है.
जब केंद्र की सत्तावादी सरकार अवैध तरीक़े से आप सरकार की शक्तियों को कम करती जा रही थी, तो चिदंबरम ने आप से अपने गहरे राजनीतिक विरोध को दरकिनार करते हुए 2017 में सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली सरकार की पैरवी की और दिल्ली की चुनी हुई सरकार पर केंद्र के असंवैधानिक हमले के ख़िलाफ दलीलें दीं. सीनियर वकील गोपाल सुब्रहमण्यम ने ऐसे समय में बिना किसी फीस के केंद्र के खिलाफ दिल्ली सरकार का केस लड़ा, जब व्यवसायिक रूप से सफल अधिकांश वकील, आप को छूना भी नहीं चाहते थे. सिब्बल ने न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में केजरीवाल सरकार की पैरवी की, बल्कि वो दक्षिणपंथी कार्यकर्ता मधु किश्वर के लिए भी खड़े हुए, जो कोर्ट में अपनी नागरिक स्वतंत्रताओं का बचाव कर रहीं थीं. लेकिन ये मिसालें अपवाद हैं.
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अधिकांश उदारवादी एक आरामदेह क्लब की तरह काम करते हैं. अगर आप इस ग्रुप का हिस्सा नहीं हैं, (जो अधिकतर ऑनलाइन, ट्विटर व फेसबुक, और सेमिनार व सिम्पोज़ियम जैसे निजी मंचों पर काम करता है) और उनके विचारों से सहमत नहीं हैं. एक दूसरे को री-ट्वीट नहीं करते 280 कैरेक्टर्स में और हैशटैग पर एक दूसरे की प्रशंसा नहीं करते, तो या तो आप बेईमान हैं या फिर आपकी कोई अहमियत नहीं है और चूंकि आप इस ख़ासमख़ास क्लब का हिस्सा नहीं हैं, इसलिए आपके खिलाफ कोई भी सरकारी कार्रवाई- चाहे वो ईडी या आयकर विभाग की रेड हो दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तारी हो या सीबीआई के लगाए भ्रष्टाचार के आरोप हों- न्योचित है.
आगे बढ़ना
विडंबना ये है कि भूषण ने उच्च न्यायपालिका की अवमानना के लिए एक दलित जज- जस्टिस सीएस कर्णन को 6 महीने की जेल की सज़ा का समर्थन किया था. भूषण ने ट्वीट किया था, ‘ख़ुशी है कि एससी ने आख़िरकार न्यायालय की घोर अवमानना के लिए, कर्णन के साथ बिल्कुल सही किया. उन्होंने जजों पर अंधाधुंध आरोप लगाए और एससी के जजों के खिलाफ बेहूदे आदेश जारी किए!.’ जाने माने वकील फाली एस नरीमन ने अपनी किताब गॉड सेव द ऑनरेबल सुप्रीम कोर्ट में कर्णन को दोषी ठहराने और जेल भेजने के लिए सुप्रीम कोर्ट की आलोचना की और सात जजों की बेंच के इस फैसले को शीर्ष अदालत की एक सबसे ख़राब घड़ी क़रार दिया. उन्होंने ये भी कहा कि किसी जज के ख़िलाफ कोर्ट की अवमानना शक्तियों का इस्तेमाल दुर्भाग्यपूर्ण है.
प्रशांत भूषण ने अब सुप्रीम कोर्ट के समक्ष साफ कर दिया है कि वो माफी नहीं मांगेंगे. ये उनके पिछले तीस साल के सार्वजनिक आचरण के अनुरूप है. उन्होंने कभी विरले ही अपनी अविवेकी टिप्पणियों के लिए माफी मांगी है. एक दो मौक़े याद किए जा सकते हैं, जब उन्होंने बाबा रामदेव पर किए गए निंदात्मक ट्वीट के लिए सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी थी और 2013 में तब के अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती की ईमानदारी पर सवाल उठाने और उन्हें झूठा कहने के लिए सुप्रीम कोर्ट के समक्ष माफी मांगी थी.
ये तर्क दिया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट और चीफ जस्टिस के खिलाफ की गईं. भूषण की ताज़ा ट्वीट्स घटिया और ग़ैर-ज़िम्मेदाराना थीं, लेकिन वो निश्चित रूप से अवमानना नहीं हैं. ये सुप्रीम कोर्ट की आवमानना शक्तियों का उपहास होगा, अगर वो एक दिन के लिए भी भूषण को जेल भेज देता है. पिछले दो हफ्तों में मैंने ये तर्क दिया है कि भारतीय लोकतंत्र और उसके संस्थानों को ज़्यादा तहक़ीक़ात और निरीक्षण की ज़रूरत है. भले ही ऐसा लगे कि सवाल पूछने वालों ने कभी कभी शालीनता की मर्यादा लांघ दी है.
अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मैडिसन के मशहूर शब्द हैं, ‘बेहतर है कि नुक़सान पहुंचाने वाली कुछ डालियों को ऐसे ही छोड़ दिया जाए, क्योंकि उन्हें काटकर फेंकने से सही से फल दे रही डालियों की ताक़त को नुक़सान पहुंचेगा.’ प्रशांत भूषण ने सामाजिक कार्यों के अपने विधिशास्त्र से सार्वजनिक हित की भलाई का काम अधिक किया है और थोक भाव के अपने आरोपों से यदा कदा नुक़सान कम पहुंचाया है. कोर्ट को इस बात को समझना चाहिए और ज़्यादा आवश्यक मुद्दों की ओर बढ़ जाना चाहिए.
लेखक एक पूर्व पत्रकार और आप के सदस्य हैं. वो अब कॉरपोरेट और आर्बिट्रेशन वकील हैं, और मुम्बई में बिज़नेस ग्रुप्स को कॉरपोरेट लीगल सर्विसेज़ मुहैया कराते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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Please mention the conflict of interest of the writer with Prashant Bhushan in Essar Case