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Sunday, 22 December, 2024
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भाकपा माले ने कट्टरता और व्यवहारिक राजनीति के अच्छे तालमेल से बिहार में सफलता पाई

‘नक्सलवादी’, ‘आतंकी समर्थक’, ‘चीन-पोषित माओवादी’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ जैसे अलंकरणों वाले व्यापक दुष्प्रचार के बावजूद सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने बिहार में 12 सीटें जीती हैं.

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बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सरकार बनाने के लिए तैयार होने के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति के बारे में खासी चर्चा हो रही है. भारतीय जनता पार्टी की सफलता से ऐसा लगता होता है कि कोविड के कारण लागू लॉकडाउन के दौरान पलायन के लिए मजबूर होने वाले मजदूरों ने भी बड़ी संख्या में मोदी के पक्ष में मतदान किया है. लेकिन भाजपा की मौजूदगी के बावजूद यह देखना काफी दिलचस्प है कि विपक्ष की ओर से सबसे ज्यादा स्ट्राइक रेट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के नेतृत्व वाले वाम गठबंधन का रहा है.

सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने जिन 19 सीटों पर चुनाव लड़ा, उनमें से 12 पर जीत हासिल की है और यहां तक कि उसने तीन और सीटों पर पुनर्मतगणना की मांग की है. उसे यह सफलता तब हासिल हुई है जब ‘नक्सलवादी’, ‘आतंकी समर्थक’, ‘चीन-पोषित माओवादी’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके लगातार उसके खिलाफ दुष्प्रचार किया जा रहा था.


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सबसे निचले तबके के गरीबों का साथ

पार्टी 1970 के दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन के बाद उभरी थी, लेकिन 1980 के दशक तक उनसे खुद को मुख्यधारा की चुनावी राजनीति में शामिल कर लिया. तबसे भाकपा माले लिबरेशन ग्रामीण गरीबों का एक चेहरा है, और इस क्षेत्र में जाति-विरोधी राजनीति की परिभाषा बदल रही है. संयोगवश, यह पार्टी वैचारिक रूप से भले ही भाजपा से एकदम विपरीत है लेकिन दोनों में एक बात समान है कि इन दोनों ही दलों के पास जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं का कैडर है.

यही वह कैडर है जिसने न केवल 2020 के चुनावों में जीत दिलाई बल्कि भविष्य की राजनीति के लिहाज से जमीन को और भी ज्यादा पुख्ता किया है.

बिहार में सामाजिक न्याय की मजबूत राजनीतिक संस्कृति के बावजूद लंबे समय से इसका फायदा पाने वालों में यादव, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में वर्चस्व रखने वाले समूह और दलितों में से पासवान आदि हैं. भाकपा माले लिबरेशन की सफलता ने स्थितियों को पूरी तरह बदलकर रख दिया है और भूमिहीन जातियों के लिए जमीन की लड़ाई लड़कर उभरी एक पार्टी आज मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बन गई है. दलितों और मुसहर महादलितों, जिनके परिवार 1990 के दशक के दौरान कुख्यात भूमिहार संगठन रणवीर सेना के नरसंहार का निशाना बने थे, को पार्टी के व्यापक जनाधार के तौर पर जाना जाता है.

पिछले साल जब मैं 2019 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान बिहार में था तो यह देखकर काफी चकित हुआ कि बिहार के कुछ ग्रामीण इलाकों में भाकपा माले की तरफ से बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, शंकरबिघा और अन्य नरसंहार में मारे गए लोगों की याद में स्मारक बनाए गए हैं.


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मंडल से मौजूदा मुद्दों तक

भाकपा माले लिबरेशन ने चुनाव में दलितों के सबसे गरीब तबके के बीच अपना आधार बरकरार रखते हुए बेरोजगारी, कृषि बिल और प्रवासी मजदूर संकट के जैसे ज्वलंत मुद्दों को उठाया. मंडल के बाद उभरी सामाजिक न्याय की भूमि पर भाकपा माले लिबरेशन समय से साथ निजीकरण को जाति, भू-स्वामित्व और संसाधन पर अधिकार जैसे मुद्दों के साथ जोड़कर अपनी जाति विरोधी राजनीति का केंद्रबिंदु बनाती रही है. यही नहीं ब्राह्मण, सवर्ण के वर्चस्व वाले वाम नेतृत्व की चर्चित धारणा को बदलते हुए उसने बिहार के चुनाव में एक भी ऊंची जाति का प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा.

भाजपा आज पहले से ज्यादा मजबूत दिख रही है, लेकिन किसानों से जुड़े कानूनों ने बिहार जैसे राज्यों को भी संकट में डाल दिया है. जोरशोर से यह तर्क दिया जा रहा कि ये कानून केवल बड़े, भूमि सम्पन्न उच्च-जाति के किसानों को प्रभावित करेंगे. लेकिन विरोध के स्वर वाम और दलित चेहरों की तरफ से उठाए जा रहे हैं जिनमें विधायक निर्वाचित मनोज मंजिल जैसे लोग शामिल हैं, जिन्होंने बाजार आधारित सुधारों से छोटे किसानों पर पड़ने वाले असर के खिलाफ अभियान चलाया. मई से लाखों प्रवासी मजदूरों के पलायन के बाद से भाकपा माले लिबरेशन और उसके संबद्ध छात्र संगठनों ने अपने अहम संसाधन लौटने वाले मजदूरों की सहायता, राहत कार्य, दान और खाद्य आपूर्ति में लगा दिए.

बिहार की अधिकांशत: नई पीढ़ी ने 30 साल पहले वाली मंडल जैसी राजनीति कभी नहीं देखी है. और फिर भी महागठबंधन की तरफ से बेरोजगारी का मुद्दा, महामारी के बीच परीक्षाएं कराने के खिलाफ छात्रों विरोध, मजदूर संकट और कृषि संबंधी कानूनों का मुद्दा उठाए जाने के बीच पहली बार वोट डालने वाले तमाम युवाओं ने रोजगार, श्रमिक अधिकार और बड़े पैमाने पर निजीकरण के बजाये जाति की राजनीति को तरजीह दी.

पूरी तरह जाति-विरोधी राजनीति के खिलाफ

1990 का दशक सामाजिक न्याय के लिहाज से महत्वपूर्ण सुधारों वाला रहा, लेकिन साथ ही इसने निजीकरण की दिशा के बड़े सुधारों के युग को भी देखा. मोदी सरकार आज रेलवे के निजीकरण के लिए दरवाजे खोलकर और कृषि कानूनों को लागू करके इसी का विस्तार कर रही है. हमें ऐसे राजनीतिक दलों की आवश्यकता है जो जाति और वर्ग की इस कल्पना को जमीनी स्तर पर प्रभावी कैडर के बलबूते भुना सके. ताकि वास्तविक मुद्दे आम लोगों के सामने रखे जा सकें, इसके पहले कि वे राम मंदिर, जम्मू-कश्मीर में जमीन खरीदने की बातों और पाकिस्तान के खिलाफ बेलगाम बयानों जैसे मुद्दों के झांसे में आ जाएं. भाकपा माले लिबरेशन की जीत यह साबित करती है कि वास्तव में इन समस्याओं के खिलाफ बेचैनी तो है—हमें जरूरत है ऐसे विपक्षी दल की जो बहुजन के हित में जमीनी स्तर पर इन चिंताओं से पार पाने के लिए काम करे.

कुछ दिनों पहले गुजरात में एक केमिकल बॉयलर फैक्टरी में धमाके से 12 श्रमिकों की मौत हो गई. कुछ मीडिया रिपोर्टों में इस घटना को प्रबंधन की लापरवाही और कारखाने के श्रमिकों के शोषण के मामले के रूप में पेश किया गया. पीड़ित परिवारों के यहां दौरा करने पर मुझे पता चला कि मरने वाले लगभग सभी लोग दलित-बहुजन थे. इन 12 फैक्टरी मजदूरों की मौत भी जाति आधारित शोषण की निशानी है, लेकिन हमारी राजनीति अब भी ऐसे श्रमिकों के शोषण को उनकी जातिगत पहचान के संदर्भ में नहीं देखती. भाकपा माले लिबरेशन जैसी राजनीतिक पार्टियों ने यह साबित किया है कि आजीविका का मुद्दा जैसे नौकरी या भू-स्वामित्व जातिगत उत्पीड़न की जंजीरों से ही बंधा हुआ है.

भाजपा के एजेंडे के खिलाफ एक मजबूत जाति-विरोधी राजनीति के लिए हमें प्रतिनिधित्व और सामाजिक न्याय के साथ इन मुद्दों पर भी ध्यान देना होगा.

(जिग्नेश मेवाणी गुजरात विधानसभा में एक निर्दलीय विधायक और राष्ट्रीय दलित विचार मंच के संयोजक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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