किसी भी न्याय व्यवस्था में वकीलों को न्यायपालिका का हिस्सा माना जाता है. संभवत: इसीलिए न्यायपालिका या न्यायाधीशों के प्रति किसी भी अधिवक्ता की कथित अवमाननाकारक टिप्पणियों या कृत्यों पर अवमानना की कार्यवाही में सख्त रूख अपनाती है. शीर्ष अदालत अधिवक्ता प्रशांत भूषण को अवमानना का दोषी ठहराने से पहले भी कई वकीलों को इस अपराध का दोषी ठहरा चुकी है. इसमें बार काउन्सिल आफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष विनय चंद्र मिश्रा भी शामिल हैं.
वकीलों से हमेशा यही अपेक्षा की जाती है कि वे न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप का प्रयास नहीं करेंगे और न्यायपालिका तथा न्यायाधीशों के प्रति उनका आचरण सम्मानजनक होगा. यही नहीं, वे उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाने या उसे बदनाम करने जैसा कोई काम नहीं करेंगे.
अक्सर यही देखा गया है कि न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही में शीर्ष अदालत ने किसी वकील को दोषी ठहराये जाने पर सजा सुनाने के बावजूद जेल नहीं भेजा बल्कि ऐसी सजा को एक निश्चित अवधि के लिये निलंबित कर दिया या फिर दोषी वकील को उसके पदों और पदवियों से वंचित करने के फैसले सुनाये.
शीर्ष अदालत ने एक बेहद चर्चित मामले में अवमानना के दोषी पाये गये प्रमुख अधिवक्ता के वकालत करने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था जिसे बाद में पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने उचित नहीं पाया और अपने फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 142 का इस्तेमाल करके इस तरह की सजा नहीं दी जा सकती.
न्यायालय की अवमानना के चक्रव्यूह में इस समय एक्टिविस्ट अधिवक्ता प्रशांत भूषण फंसे हुये है. इस समय उनके खिलाफ अवमानना के कम से कम दो मामले लंबित हैं. इनमें एक मामला तो 2009 ने लंबित है.
यह भी पढ़ें: असहमति की आवाज़ बेहद जरूरी लेकिन इसकी सीमा भी निर्धारित की जानी चाहिए
वकील बनाम जज
इससे पहले भी कई वकील न्याय के प्रशासन में हस्तक्षेप करने, और न्यायपालिका तथा न्यायाधीशों के प्रति अपमानजनक टिप्पणियां करने की वजह से अवमानना की कार्यवाही की चपेट मे आ चुके हैं. इनमे से बार काउन्सिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता विनय चंद्र मिश्रा, दिल्ली बार काउन्सिल के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ अधिवक्ता आर के आनंद, अधिवक्ता मैथ्यू नेदुम्परा जैसे मामलों का उदाहरण देना अनुचित नहीं होगा.
न्यायालय की अवमानना के मामले में पिछले करीब 35 साल के दौरान सबसे महत्वपूर्ण मामला विनय चंद्र मिश्रा का था जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत करते थे और वरिष्ठ अधिवक्ता थे. यह प्रकरण नौ मार्च, 1994 को उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ के न्यायाधीशों से वरिष्ठ अधिवक्ता विनय चंद्र मिश्रा द्वारा दुर्व्यवहार किये जाने से संबंधित था.
इस मामले में उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एस के केशोटे ने कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश से लिखित में शिकायत की थी. न्यायमूर्ति केशोटे ने अपनी शिकायत में कहा था कि अवमाननाकर्ता ने उनका तबादला कराने या फिर संसद में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पेश कराने की धमकी दी थी. यही नहीं, अवमाननाकर्ता ने उनका बुरी तरह अदालत कक्ष में अपमान किया था.
मामले
कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश वी के खन्ना ने न्यायमूर्ति केशोटे की शिकायत प्रधान न्यायाधीश के पास भेज दी थी जिन्होंने इसे विचार के लिये 15 अप्रैल 1994 को तीन सदस्यीय खंडपीठ को सौंप दिया था.
इस खंडपीठ के सदस्यों में न्यायमूर्ति पी बी सावंत, न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह और न्यायमूति जगदीश शरण वर्मा शामिल थे. इस मामले की काफी लंबी सुनवाई चली थी. हालांकि, तमाम कानूनी दांव-पेंच अपनाने के बाद अवमाननाकर्ता ने न्यायालय से बिना शर्त क्षमा याचना भी कर ली थी.
न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने 10 मार्च, 1995 को अपने फैसले में अवमाननाकर्ता विनय चंद्र मिश्र को न्याय प्रशासन में हस्तक्षेप करने और अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल कर न्यायाधीश को धमकी देने के लिये न्यायालय की आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराते हुये उन्हें सजा सुनायी थी.
पीठ ने अपने फैसले में कहा था कि चूंकि, अवमाननाकर्ता बार का वरिष्ठ सदस्य है और बार काउन्सिल ऑफ इंडिया का अध्यक्ष तथा उप्र हाई कोर्ड बार एसोसिएशन का अध्यक्ष है और उनका आचरण देश भर की बार के सदस्यों को प्रभावित कर सकता है. इसलिए हम उन्हें ऐसा दंड देना चाहते हैं तो दूसरों के लिये नजीर बने.
पीठ ने इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के मद्देनजर संविधान के अनुच्छेद 129 एवं अनुच्छेद 142 में प्रदत्त अधिकारों का इस्तेमाल करते हुये मिश्रा को छह सप्ताह की साधारण कैद की सजा सुनाई जिसे चार साल के लिये निलंबित कर दिया गया था और कहा था कि अगर अवमाननाकर्ता इस दौरान अवमानना के किसी अन्य अपराध में दोषी पाया गया तो यह सजा लागू हो जायेगी.
यही नहीं, न्यायालय ने विनय चंद्र मिश्रा के वकालत करने पर तीन साल का प्रतिबंध लगाने के साथ ही विभिन्न पदों पर उनके निर्वाचन और मनोनय को तत्काल प्रभाव से खत्म कर दिया था.
विनच चंद्र मिश्रा के वकालत करने पर तीन साल की पाबंदी लगाने की न्यायालय की व्यवस्था पर सवाल उठाते हुये उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन ने शीर्ष अदालत में याचिका दायर की. यह मामला संविधान पीठ को सौपा गया.
इस मामले की सुनवाई के दौरान विचारणीय सवाल यह उठा कि क्या अवमनना के दोषी एक वकील को दी गयी सजा में संविधान के अनुच्छेद 129 एवं 142 में प्रदत्त अधिकार का इस्तेमाल करते हुये उसका लाइसेंस निलंबित करके एक निश्चित अवधि के लिये उसे वकालत करने से वंचित किया जा सकता है. यह सवाल पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंपा गया.
न्यायमूर्ति एस सी अग्रवाल, न्यायमूर्ति जी एन रे, न्यायमूर्ति ए एस आनंद, न्यायमूर्ति एस पी भरूचा और न्यायमूर्ति एस राजेन्द्र बाबू की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने 17 अप्रैल, 1998 को अपने फैसले में कहा कि न्यायालय की अवमानना के लिये अवमाननाकर्ता, जो वकील है, को सजा देते समय उसका वकालत का लाइसेंस निलबित करने की भी सजा देने के लिये न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 142 एवं अनुच्छेद 129 में प्रदत्त अधिकार का इस्तेमाल नहीं कर सकता
संविधान पीठ ने कहा कि एक वकील, जिसे अवमानना का दोषी पाया गया हो, वह पेशेवर कदाचार का भी दोषी हो सकता हे लेकिन इसके लिये राज्य की बार काउन्सिल या बार काउन्सिल आफ इंडिया ही उसे सजा दे सकती है.
इसी तरह, राजधानी में बीएमडब्लू कांड के नाम से चर्चित प्रकरण में चश्मदीद गवाह को तोड़ने या खरीदने में वरिष्ठ अधिवकता आई यू खान और वरिष्ठ अधिवक्ता आर के आनंद की भूमिका को लेकर एनडीटीवी पर 30 मई, 2007 को एक कार्यक्रम प्रसारित हुआ था.
इस कार्यक्रम में दिखाये गये तथ्यों को गंभीरता से लेते हुये दिल्ली उच्च न्यायालय ने पहले तो एनडीटीवी से सारी सामग्री मांगी और फिर इसके आधार पर स्वत: ही आर के आनंद, आई यू खान और आनंद के सहयोगी भगवान शर्मा के खिलाफ आपराधिक अवमानना की कार्यवाही शुरू की.
उच्च न्यायालय ने 21 अगस्त, 2008 को आनंद और खान को न्यायालय की अवमानना कानून की धारा 2 (सी) के दो उपबंधों के तहत आपराधिक अवमानना का दोषी ठहराया और उन पर उच्च न्यायालय तथा अधीनस्थ अदालतों में पेश होने पर चार महीने की रोक लगाने के साथ ही दोनों को वरिष्ठ अधिवक्ता की पदवी से भी वंचित कर दिया था.
आर के आनंद और आई यू खान ने इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की थी. उच्चतम न्यायालय में न्यायमूर्ति बी एन अग्रवाल, न्यायमूर्ति जी एस सांघवी और न्यायमूर्ति अलताफ अहमद की पीठ ने 29 जुलाई 2009 को आर के आनंद की अपील खारिज कर दी थी जबकि आई यू खान को दोषी ठहराने का फैसला निरस्त कर दिया था.
इस प्रकरण में न्यायालय ने अपने फैसले में वकीलों के बीच इस पेशे के गिरते मानदंडों पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुये इस पर तत्काल अंकुश लगाने पर जोर दिया था. न्यायालय का कहना था कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो देश के न्याय प्रशासन पर इसके बहुत ही घातक परिणाम होंगे क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी न्यायिक प्रणाली बार के सहयोग के बगैर संतोषजनक तरीके से काम नहीं कर सकती है.
वकीलों से संबंधित एक अन्य महत्वपूर्ण मामला मैथ्यू नेदुम्परा है जिन्हें शीर्ष अदालत ने 12 मार्च, 2019 को अधिवक्ताओं को वरिष्ठ अधिवक्ता नामित करने की व्यवस्था के खिलाफ नेशनल लायर्स कैंपेन फॉर ज्यूडीशिअल ट्रांसपेरेन्सी एंड रिफार्म्स की याचिका खारिज करते हुये न्यायलाय की अवमानना का दोषी पाया था.
नेदुम्परा ने बाद में 27 मार्च, 2019 को न्यायालय में एक हलफनामा देकर यह आश्वासन दिया था कि वह भविष्य में कभी भी बंबई उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को धमकाने का प्रयास नहीं करेंगे.
यह भी पढ़ें: माई लॉर्ड अगर न्यायपालिका की निष्पक्षता बचाना चाहते हैं तो रिटायर होने के दो साल बाद तक कोई पद न लें
सजा
शीर्ष अदालत ने इस आश्वासन को ध्यान में रखते हुये नेदुम्परा को न्यायालय की अवमानना करने के अपराध में तीन महीने की कैद की सजा सुनाई थी लेकिन उनके आश्वासन को ध्यान में रखते हुये इस सजा को निलंबित कर दिया था. साथ ही न्यायालय ने नेदुम्परा के बतौर वकील शीर्ष अदालत में पेश होने पर एक साल के लिये रोक लगा दी थी.
न्यायालय ने छह मई को तीन अन्य वकीलों को भी अवमानना का दोषी ठहराया था. न्यायालय ने विजय कुर्ले, नीलेश ओझा और राशिद खान पठान को तीन तीन महीने की साधारण कैद और दो दो हजार रूपए जुर्माने की सजा सुनाई थी. चूंकि इस समय कोविड-19 संक्रमण फैला हुआ है, इसलिए न्यायालाय ने कहा कि यह सजा 16 सप्ताह बाद प्रभावी होगी.
उच्चतम न्यायालय के सख्त रूख को देखते हुये जरूरी है कि न्यायपालिका से जुड़े विषयों पर अपनी असहमति व्यक्त करते हुये यह ध्यान रखा जाये कि उससे न्याय के प्रशासन में किसी प्रकार का दखल नहीं हो और न्यायपालिका तथा न्यायाधीशों की गरिमा को ठेस भी नहीं पहुंचे.
जज पर भी लिया गया है फैसला
जहां तक अवमानना की कार्यवाही का सवाल है तो न्यायपालिका के सदस्य रहने के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश सी एस कर्णण और शीर्ष अदालत के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू के खिलाफ भी सख्ती रूख अपनाया था.
न्यायमूर्ति कर्णण को उच्चतम न्यायालय ने मई, 2017 में अवमानना का दोषी ठहराते हुये छह महीने की सजा सुनायी थी. यह पहला मौका था जब किसी पीठासीन न्यायाधीश को अवमानना का दोषी ठहराया गया था. न्यायमूर्ति कर्णण को सेवानिवृत्त होने के बाद 21 जून को कोयम्बटूर से गिरफ्तार करके जेल भेजा गया था.
इसी तरह, शीर्ष अदालत के एक फैसले पर असहमति व्यक्त करते हुये सोशल मीडिया पर तीखी टिप्पणियां करने वाले उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कण्डेय काटजू भी न्यायालय की अवमानना की कार्यवाही की चपेट में आ गये थे. यह दीगर बात है कि न्यायालय ने बाद में जनवरी, 2017 में न्यायमूर्ति काटजू की क्षमा याचना स्वीकार करते हुये उनसे संबंधित मामला बंद कर दिया था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)