एमानुएल मैक्रों ने, जिनका मुल्क विद्रोह के सपनों और हिंसा के दुस्वप्नों में जीता है, 17 मार्च को एलान किया कि फ्रांस ‘युद्ध लड़ रहा है’, और अपने बीस मिनट के भाषण में यह बात उन्होंने छह बार दोहराई. राष्ट्रपति निवास एलिजे पैलेस से बोलते हुए मैक्रों का युद्ध म्युनिसिपल चुनावों को निलंबित करने और इस एलान से शुरू हुआ कि पाबंदियों के ‘उल्लंघन की सज़ा मिलेगी’.
विश्वव्यापी कोरोना महामारी के बारे में बात करने के लिए फ़ौजी शब्दावली का उपयोग करने वाले मैक्रों अकेले राजनेता नहीं हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने खुद को एक ‘युद्धकालीन राष्ट्रपति’ कहा. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोरोनावायरस के ख़िलाफ़ ‘युद्ध’ की तुलना महाभारत से की.
दुनिया भर में हर रोज़ लोगों का जीवन एक नई घेरेबंदी में शुरू होता है. वे पाते हैं कि ‘दुश्मन’ के हाथ बहुत लंबे हैं. यह एक ऐसा साज़िशी दुश्मन है जिसे हमारे हर क़दम की ख़बर है, एक फ़ौजी निगाह से लैस यह दुश्मन नए पैंतरे अपनाने में माहिर है. इसे मालूम है कि अगर हमने आदेशों का पालन नहीं किया तो हमारा ‘क़िला’ ढह जाएगा.
‘यह धैर्य और अनुशासन की घड़ी है,’ प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रीय टेलीविज़न पर 24 मार्च को लॉकडाउन का एलान करते हुए कहा. दुनिया भर में सरकारों और मीडिया के लिए एक बात बहुत साफ़ है, कि कोरोनावायरस की विश्वव्यापी महामारी एक ‘युद्ध’ है. इस युद्ध में, लोगों से ‘शांति बनाए रखने’ को कहा जा रहा है, जैसा कि मैक्रों ने किया, जबकि बाकी सारी चीज़ें मोर्चे की ‘दिशा में भेजी और तैनात’ की जा रही हैं, लामबंदी हो रही है, जैसा कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने जनवरी में एलान किया था.
लगता है कि हर किसी को एक अच्छा युद्ध पसंद है, भले ही उस युद्ध का कोई वजूद न हो. अगर यह युद्ध है तो लड़ाई का मोर्चा असल में कहां है: वायरस में? शरीर में? अस्पतालों में? घरों में जहां लोगों ने खुद को बंद कर रखा है? हवा में, जिसमें संक्रामक एरोसॉल कण मिले हुए हैं? आख़िर कौन-सी ताकतें लामबंद की गई हैं और लड़ाई का कैसा ख़ाक़ा तैयार किया गया है?
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युद्ध का एलान करने में जितनी होशियारी दिखती है, वह तब धरी रह जाती है जब बात इलाज और बचाव के ठीक-ठीक इंतजामों पर आती है. उल्टे यहां अफरातफरी और गलतफहमियों की एक मजबूत घेरेबंदी है, जिसमें राजनेताओं से लेकर न्यूज़ एंकरों तक हर कोई उलझा हुआ दिखता है, जिन्हें इस मानवीय संकट में भी सिर्फ़ लड़ाई की भाषा में ही बात करना आता है.
‘अदृश्य दुश्मन’ के ख़िलाफ़ ‘ऐतिहासिक लड़ाई’
मिसाल के लिए ट्रंप का 18 मार्च का राष्ट्र के नाम संबोधन. उन्होंने दावा किया कि वे एक ‘अदृश्य दुश्मन’ के ख़िलाफ़ ‘ऐतिहासिक लड़ाई’ लड़ रहे हैं, और इस दुश्मन की क़िस्मत में हार लिखी हुई है, क्योंकि ‘हम ही जीतेंगे, जीतेंगे हम ही’.
लेकिन एक वायरस को ‘दुश्मन’ के रूप में समझना एक ग़लती है. दुश्मन की तरह वायरस को हराया नहीं जा सकता – आप इससे खुद का बचाव कर सकते हैं, अपनी सेहत और शरीर की देखभाल और टीकों की मदद ले सकते हैं. जिस ‘लड़ाई’ का इतना शोर है, वह सांकेतिक रूप में भी तभी होती है, जब वायरस शरीर में चला जाए. और कोरोनावायरस का कोई इलाज या टीका अभी नहीं है. इसलिए हम जिस लड़ाई की बात कर रहे हैं, वह कोई मायने नहीं रखती. लेकिन यह दिखाता है कि युद्ध और टकरावों की मानसिकता हमारी ज़िंदगी के नज़रिए से इस तरह जुड़ी हुई है कि हम अपने शरीर के सेहतमंद होने की प्रक्रिया को भी युद्ध की भाषा में समझते हैं, जबकि यह कहीं अधिक जटिल प्रक्रिया है.
लेकिन अगर इसे एक युद्ध होना है तो दुश्मन भी बनाने होते हैं और दोस्त भी.
12 मार्च को ट्रंप ने अपने “मित्रों” का आह्वान किया और कहा कि वे सरकार और निजी क्षेत्र की ‘संपूर्ण ताकत को लामबंद’ कर रहे हैं. दूसरे विश्वयुद्ध या खाड़ी युद्ध के समय का आह्वान लगने वाली यह बात असल में निजी क्षेत्र को एक गुहार थी, जिसे अब ‘एक विदेशी वायरस का सामना’ करने में मदद करने के लिए फुसलाया जा रहा है. अगर एक जंग हो रही है, तो वहां एक विदेशी तत्व की खोज करना ज़रूरी बन जाता है. ‘समय के आरंभ से ही, राष्ट्रों और जनता ने अप्रत्याशित चुनौतियों का सामना किया है,’ ट्रंप ने बताया. राजनेताओं के इतिहास में उनके राष्ट्रों की स्थापना से ही शायद ‘समय का आरंभ’ होता है.
समय और उसके प्रवाह पर काबू पाने की कोशिश सत्ता हमेशा करती है. यह बात बहुत साफ़ तौर पर युद्ध के समय सामने आती है, भले ही युद्ध सचमुच का हो या काल्पनिक. जगहों पर नियंत्रण इसे संभव बनाता है. मिसाल के लिए एक मुल्क के भीतर आवाजाही की एक बुनियादी गतिविधि को लीजिए. जब शांतिकाल के एक संकट को युद्ध करार दिया जाता है, तो सरकारों के लिए यह आसान और शायद ज़रूरी हो जाता है कि वे इस लोकतांत्रिक अधिकार और आज़ादी पर पाबंदी लगा दें.
आम तौर पर हम इस पर गौर तक नहीं करते. घर से बाहर निकलना या बिना पूछताछ और निगरानी के आवाजाही करना अब हमारे लिए ‘अधिकार’ भर नहीं रह गया है, यह हमारे जीवन जीने का तरीका है. लेकिन एक वैश्विक महामारी हमें इसका अहसास कराती है कि यह एक हासिल किया हुआ अधिकार है. किसी औपनिवेशिक शासन या कब्ज़े की तरह पूरी दुनिया में बैरियर, जांच चौकियां, दीवारें खड़ी हो गई हैं, कर्फ्यू लागू कर दिए गए हैं. आवाजाही की आज़ादी पर दुनिया भर में सत्ता का नियंत्रण रहा है.
ऐसे कदम एक संकट से निबटने के नाम पर उठाए गए हैं. वे कारगर हो सकते हैं, लेकिन वे यह भी दिखाते हैं कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य किस तरह कब्ज़े, लड़ाई और युद्ध के विचारों पर आधारित हैं.
देशों के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’
हर बार जब एक संकट आता है, हमें बताया जाता है कि ‘युद्ध स्तर’ की कोशिशें की जा रही हैं. रोज़मर्रा की बातों में और सोच तक में युद्ध जगह बना लेता है. हम अपने संसाधनों की तैनाती करते हैं, हम युद्धक्षेत्र में अपनी ताकत आंकते हैं, हम लड़ाई लड़ते हैं, हम विजेता के रूप में उभरने की उम्मीद करते हैं. डॉक्टर योद्धा हैं. मरीज लड़ाके हैं. घर छुपने की खंदकें हैं. हम युद्ध क्षेत्र से आने वाली रोज़ की खबरें कॉरपोरेट मीडिया से हासिल करते हैं, जिसने हरेक भावना और अहसास को एक तमाशे में तब्दील कर दिया है, हरेक तस्वीर अब एक हथियार की तरह हम पर आजमाई जा रही है. महामारी को देखने का हमारा जंगी नज़रिया हमारी आंखों से इस संकट की इंसानी क़ीमत को ओझल कर देता है – लोग मर रहे हैं, उनके रोज़गार ख़त्म हो रहे हैं, वे हर तरह की अनिश्चितता और आशंकाओं में घिरे हुए हैं.
इसलिए जब ट्रंप ने एलान किया कि ‘हम सब इस (संकट) में एक साथ हैं’, तो उनका मतलब सिर्फ़ अमेरिकी लोगों से था. ‘सबसे पहले अमेरिका की भलाई’. ‘विरोधी को पछाड़ने’ की उनकी योजना यह है कि ‘एक राष्ट्र, एक परिवार’ की तरह काम किया जाए. एक बार यह हो जाए तो ‘हमारा भविष्य इतना उज्ज्वल है कि कोई कल्पना भी नहीं कर सकता.’
युद्ध, मिथकों पर पलता है, जो युद्ध की गाथाओं का ही एक रणनीतिक रूप है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक मिथक का उपयोग करते हुए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन का एलान किया. उन्होंने भारत की जनता से कहा कि ‘लक्ष्मण रेखा’ न लांघें. ‘आपको ये याद रखना है कि घर से बाहर पड़ने वाला आपका सिर्फ़ एक क़दम कोरोना जैसी गंभीर महामारी को आपके घर में ले आ सकता है,’ प्रधानमंत्री ने कहा. चीन, अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि अपनी ज़िंदगियों को बचाने के लिए एक ही रास्ता – ‘एष: पन्था:’ – है कि हम उस ‘लक्ष्मण रेखा’ को न लांघें जो घर के दरवाज़े पर खींच दी है.
रामायण के हवाले से कही जा रही इन बातों के साथ, मोदी ने इस बात पर भी कई बार ज़ोर दिया कि यह एक ‘निर्णायक लड़ाई’ है और भारतीय इसका ‘मुकाबला’ कर रहे हैं. राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में मोदी ने कोरोनावायरस संकट की तुलना एक युद्धकालीन संकट से की, अपने दूसरे भाषण में उन्होंने इसे एक महाभारत बताया.
‘युद्ध’ और उससे होने वाले ख़तरे
यह देखना दिलचस्प है कि जनता की भलाई और सेहत की बात का उपयोग महज़ इस बात को रेखांकित करने के लिए किया गया कि ख़तरा राष्ट्र के सामने है. प्रधानमंत्री मोदी ने बार-बार लोगों को याद दिलाया कि परिजन, बच्चे, माता-पिता, दोस्त ख़तरे का सामना कर रहे हैं, लेकिन यह कहने का मक़सद यह बताना था कि असली संकट राष्ट्र के सामने है. और अगर लोगों ने लापरवाही की, तो राष्ट्र को इसकी क़ीमत चुकानी होगी. इसमें से एक क़ीमत यह होगी कि देश 21 साल पीछे चला जाएगा. अपने पूरे भाषण में उन्होंने इसके बारे में कुछ नहीं कहा कि राष्ट्र की तरफ़ से जनता की भलाई, देख-भाल और इलाज के लिए ठीक-ठीक कौन-से क़दम उठाए जा रहे हैं.
भाषण ने लोगों को जितना आश्वस्त किया, उससे कहीं अधिक डराया. जैसे मिसाल के लिए उन्होंने कहा कि बीमारी ‘आग की तरह फैल रही है’. दूसरी तरफ़, देश में आग की तरह नफ़रत, संदेह और उन्माद भी फैल रहा है. महाराष्ट्र में सार्वजनिक जगह में छींकने वाले एक व्यक्ति को पीट दिया गया. दिल्ली में निज़ामुद्गीन मरकज़ में तबलीग़ी जमात को लेकर सांप्रदायिक नफ़रत फैलाई जा रही है. पूर्वोत्तर के लोगों पर नस्ली हमले हुए हैं.
इसलिए यह देखना मुश्किल नहीं है कि दुनिया भर में कहीं भी, युद्ध की भाषा समाज में लोगों के बीच परायापन, दूरी और अलगाव को बढ़ाती है. जब देश यह जताने की कोशिश करते हैं कि वे एक वैश्विक महामारी के संकट को दूर करने के लिए युद्ध लड़ रहे हैं, तो एक काल्पनिक विदेशी के प्रति नफ़रत और उग्र मानसिक उन्माद पैदा होना तय है. यह ज़रूरी है कि हम कोरोनावायरस महामारी के ख़िलाफ़ फ़ुर्ती से और कारगर उपाय करें, लेकिन ऐसा करते हुए युद्ध का आदर्श अपने सामने रखेंगे तो हम भारी चूक करेंगे.
हमें एक कारगर और सबसे लिए उपलब्ध स्वास्थ्य सेवा की ज़रूरत है, लेकिन इसके बदले में हम युद्ध की मिथकीय गाथाओं से काम ले रहे हैं.
(लेखक एक सिनेमा अध्येता हैं और बर्लिन स्थित लाइबनित्स-सेंट्रुम मोडेर्नेर ओरिएंट में रिसर्च फेलो हैं.)
शानदार। मूढ़ मगज इस देश में लोगों के सोचने को समेट दिया गया है। हम सिर्फ बीजेपी, कांग्रेस तक सोचते हैं। मीडिया उतना ही हमे सोचने की मोहलत देता। बड़ी आबादी वाले मुल्क में बहुत से नजरिए आने चाहिए।