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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतकुछ लोग कोरोना की ओर से भी लड़ रहे हैं. नदी, जंगल, पहाड़ सब डरे हुए हैं, हमें भी डरना चाहिए

कुछ लोग कोरोना की ओर से भी लड़ रहे हैं. नदी, जंगल, पहाड़ सब डरे हुए हैं, हमें भी डरना चाहिए

चिढ़ियों की चहचहाहट, नीला आकाश, आकाश में तारे और साफ नदियां यह बता रहीं है कि प्रकृति अपनी धरती को फिर हासिल कर रही है.

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कई लोगों को पलायन करते मजदूरों की तस्वीरें ओवररेटेड लग सकती हैं. प्रकृति के रोमांस में डूबा मध्यम वर्ग कोरोना समय के सकारात्मक पक्ष को देख रहा है. चिड़ियों की चहचहाहट, नीला आकाश, आकाश में तारे और साफ नदियां यह बता रहीं है कि प्रकृति अपनी धरती को फिर हासिल कर रही है. और गुवाहाटी की सड़कों पर टहलते हाथियों के झुंड बराबरी का संकेत दे रहे है. यदि आप भी रूमानी हुए जा रहे हैं तो इस घटना पर नजर डालिए.

केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावडेकर ने जूम एप पर बैठकर 191 प्रोजेक्ट को पर्यावरणीय मंजूरी दे दी. ना अपील, ना वकील, ना दलील की तर्ज पर किसी तीसरे पक्ष को जानने-सुनने की कोशिश ही नहीं की गई. कारण दिया गया कि त्वरित विकास के लिए फटाफट निर्णय जरूरी है.

बानगी देखिए – पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने असम की नूमालीगढ़ रिफाइनरी को आदेश दिया था कि वह अपनी बाउंड्रीवाल के एक हिस्से को गिराए क्योंकि जंगल की जमीन पर पहला हक जानवरों का है. रिफाइनरी ने एक बड़े हिस्से में दीवार हाथियों के आने जाने से परेशान होकर बनाई थी. यह अलग बात है कि यह जगह हाथियों का कॉरिडोर यानी आने –जाने का रास्ता ही था.  लेकिन अब पर्यावरण मंत्रालय ने इस रिफाइनरी के तीन गुना विस्तार की अनुमति दे दी. अभी तक रिफाइनरी ने हाथियों के रास्ते को बंद किया था अब वह उनके घर पर ही कब्जा कर लेगी.


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लेकिन इन हाथियों को डरना चाहिए राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड से,  जिसने असम के ही देहिंग पटकई हाथी अभ्यारण में कोयले के खनन को मंजूरी दे दी. इस बेजुवानों की आवाज उठाने वाले पर्यावरण कार्यकर्ता भी घरों में बंद हैं.

इसी सरकारी नजरबंदी का फायदा उठा कर पर्यावरण मंत्रालय यह पक्का करने मे जुटा है कि विकास नहीं रूकना चाहिए. सामान्य तौर पर किसी भी परियोजना को पर्यावरणीय मंजूरी देने के लिए एक विशेषज्ञ समूह उस पर विचार करता है. इस समिति में एनबीडब्ल्यूसी यानी नेशनल बोर्ड फार वाइल्ड क्लीरिएंस और एफएसी यानी फारेस्ट एडवाइजरी कमेटी के साथ – साथ एक्सपर्ट एप्रेजल कमेटी के सदस्य भी होते हैं. यह कमेटी पर्यावरणीय मंजूरी देने से पहले हितग्राहियों से उनके विचार मंगाती है और फील्ड वर्क भी करती है. और ज्यादातर मामलों में पर्यावरणीय अध्ययन किया जाता है. लेकिन अब इन सभी प्रक्रियाओं को दरकिनार कर मंजूरी दी जा रही है.

हेल्थ इमरजेंसी के दौर में पर्यावरण मंत्रालय की विभिन्न स्थाई समितियां अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने के बजाए इसे आर्थिक मौके के तौर पर देख रहीं हैं. ब्रह्मपुत्र नदी पर सीप्लेन एयरपोर्ट बनाना या उत्तराखंड में यमुना पर लखवाड़- व्यासी बांध परियोजना के लिए बिनोग वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी के साथ लगे 768 हेक्टेयर के वन को साफ करने की मंजूरी देना. ये निर्णय बताते है कि सिस्टम से संवेदनशीलता की उम्मीद बेकार है. तालाबीरा के कोयला बिजली उत्पादन और खनन को लेकर आदिवासी कई महीनों से प्रदर्शन कर रहे हैं अब उनकी जानकारी के बिना ही प्लांट के विस्तार की अनुमति दे दी गई है. इन समितियों ने अभ्यारण्य और टाइगर रिजर्व से निकलने वाले जितने भी राजमार्ग, ट्रांसमिशन लाइन और रेल लाइन के प्रोजेक्ट थे, सभी को अनुमति दे दी.

कुछ परियोजना तो ऐसी है जो सामान्य तौर पर कभी अस्तित्व में ही नहीं आती. मंत्रालय की वन सलाहकार समिति ने सिफारिश की है कि अरूणाचल प्रदेश में दिबांग नदी बेसिन में एटालिन पनबिजली परियोजना को मंजूरी दी जानी चाहिए. यह इलाका जैवविविधता का हॉटस्पॉट माना जाता है. यहां क्लाउडेड लेपर्ड और बाघ रहते हैं साथ ही भारत में पाए जाने वाले पक्षियों की आधे से ज्यादा जातियां पर मिलती है. 2010 में केंद्र सरकार ने ही इसे अक्षत जंगल की उपाधि दी थी. लेकिन अब इसे मंजूरी देने पर गंभीरता से विचार चल रहा है.


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मंत्रालय ने प्लास्टर ऑफ पेरिस की मुर्तियों पर लगी पाबंदी को एक साल के लिए हटा लिया है, यानी एक साल तक नदियों में पीओपी की बनी मुर्तियां बहाई जा सकती है. जावड़ेकर ने ट्वीट किया है इससे मुर्तिकारों को फायदा होगा. लेकिन नदी का क्या ?

ऐस नहीं है कि सिर्फ पर्यावरण मंत्रालय को ही विकास की हड़बड़ी है. पिछले दिनों लॉकडाउन 3.0 खत्म होने से पहले केंद्र और राज्यों की विडियो कांफ्रेंसिंग में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा कि कुंभ के चलते हमें रिषीकेश और हरिद्वार में खनन की अनुमति जल्दी बढ़ानी होगी. ताकि विकास कार्य हो सके. रावत हमेशा ही उत्तराखंड खोदने को लेकर उत्साहित और बेसब्र रहते हैं. वे यह भी चाहते हैं कि हरिद्वार कुंभ में राजाजी नेशनल पार्क के एक हिस्से का उपयोग मेला गतिविधियों के लिए किया जाए. वे खुलकर पनबिजली परियोजना की ओर से बोलते हैं, उनकी शह पर ही हाइड्रो पावर कंपनियों ने न्यूनतम पर्यावरणीय बहाव के विरोध में कोर्ट जाने की धमकी केंद्र को दी थी.

लोग घरों में बंद है और पर्यावरण मंत्रालय एक लालची व्यापारी की तरह व्यवहार कर रहा है. जो बेजुवान बोल नहीं सकते उनकी ओर से प्रकृति खुद बोलती है, बार संकेत आते है कि धरती सबकी है, पर कुछ लोग समझने को ही तैयार नहीं.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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