scorecardresearch
Thursday, 31 October, 2024
होममत-विमतनेशनल इंट्रेस्टकोरोनावायरस ने सर्वशक्तिमान केंद्र की वापसी की है और मोदी कमान को हाथ से छोड़ना नहीं चाहेंगे

कोरोनावायरस ने सर्वशक्तिमान केंद्र की वापसी की है और मोदी कमान को हाथ से छोड़ना नहीं चाहेंगे

भारत आज अगर आंतरिक तथा बाह्य रूप से ज्यादा सुरक्षित है तो इसमें दशकों तक संघीय व्यवस्था में रहने का भी कुछ योगदान तो है ही.

Text Size:

जब तमाम तरह के ढोंगों से आप अपना धीरज खोने लगें, तो आप किसी सच्चे पंजाबी की तरह सारे घालमेल का पर्दाफाश करते हुए सच बोल पड़ते हैं, जैसा पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इस सप्ताह किया. साहसिक प्रतिकार करते हुए उन्होंने कोरोनावायरस के कारण हमारी व्यापक राष्ट्रीय राजनीति में आए इस सबसे बड़े परिवर्तन को रेखांकित कर दिया कि सर्वशक्तिशाली, वर्चस्ववादी केंद्रीय सत्ता 35 वर्षों तक कमजोर रहने के बाद अब फिर से प्रबल हो गई है.

एक पंजाबी समाचार चैनल से बात करते हुए अमरिंदर सिंह ने देशभर में शराब की बिक्री पर रोक लगाने के केंद्र सरकार के एकतरफा फैसले पर सवाल उठाया. उन्होंने पूछा कि शराब का कोरोनावायरस से क्या लेना-देना है. यह वायरस तो इससे संक्रमित व्यक्ति के बलगम या थूक से फैलता है. आप सब्जियों और फलों की खुली बिक्री की तो छूट दे रहे हैं जबकि वे उन जगहों पर भी गिरे हुए हो सकते हैं जहां बलगम या थूक गिरे हों और जिनसे इस वायरस के फैलने का ज्यादा खतरा है. लेकिन बोतलबंद शराब पर रोक क्यों लगे, जबकि उसके साथ ऐसा कोई खतरा नहीं जुड़ सकता.

अब आप ‘पटियाला पेग’ और उम्रदराज पंजाबी से जुड़े चुटकुले न दोहराने लगिए, इसलिए बता दूं कि पूर्व महाराजा अमरिंदर सिंह कतई वो शख्स नहीं हैं जो शराब नहीं पीते और न ही वे इसलिए नाराज हैं कि उनका बार खाली हो गया है. उनकी नाराजगी की ठोस वजह है, वह यह है कि उनका सरकारी खजाना सूख रहा है.

अल्कोहल और पेट्रोलियम दो ऐसी चीज़ें हैं. जिन पर राज्य सरकार सीधे टैक्स लगा सकती है, बावजूद इसके कि केंद्र ने पेट्रोलियम पर पहले से ही बड़ा टैक्स लगा रखा है. यह व्यवस्था खासकर जीएसटी लागू होने के बाद बनी है. अल्कोहल तो पूरी तरह राज्य सरकार के दायरे में है. इसलिए यह दिवालिया हो चुकी अधिकतर राज्य सरकारों के लिए आमदनी का मुख्य स्रोत है.

लेकिन, कोरोना महामारी ने असाधारण कदम उठाना जरूरी कर दिया और पूरे देश ने उनका समर्थन किया. मोदी सरकार ने लॉकडाउन लागू करने और असाधारण अधिकारों का उपयोग करने के लिए 1897 के ‘एपिडेमिक डिजीजेज़ एक्ट’ और सूनामी के बाद 2005 में बनाए गए ‘डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट (डीएमए) का सहारा लिया. उसने जिन गतिविधियों पर खास तौर से रोक लगाई उनमें शराब की बिक्री भी है. इस रोक ने पहले से ही दिवालिया जैसी स्थिति में पहुंच चुके राज्यों को और गहरे संकट में डाल दिया. इसने उन्हें पैसे के लिए हताश होकर केंद्र सरकार के आगे हाथ पसारने, मानो जिंदा रहने के लिए ऑक्सीज़न मांगने पर मजबूर कर दिया.


यह भी पढ़ें : मोदी के लॉकडाउन ने काम तो किया लेकिन अब भारत को हनुमान के पहाड़ की नहीं बल्कि संजीवनी बूटी की जरूरत है


अब आप समझ गए होंगे कि अमरिंदर किस बात की शिकायत कर रहे हैं. अधिकतर दूसरे मुख्यमंत्रियों की भी यही शिकायत है. बस इतना ही, क्योंकि शराब के बारे में कोई बात करना नहीं चाहता. लेकिन अमरिंदर इस तरह के किसी ढोंग में नहीं पड़ते. आज अहम बात यह है कि राज्यों को पहले से हासिल अधिकार का थोड़ा-सा भी इस्तेमाल करने के लिए केंद्र से गुजारिश करनी पड़ रही है. इसीलिए हम कह रहे हैं कि कोरोना ने सर्वशक्तिमान केंद्र को फिर से प्रकट कर दिया है, जिसे हम 1989 के बाद से सिकुड़ते देख रहे थे.

पिछली व्यवस्था की ओर लौटने के इस मामले में शराब तो महज एक प्रतीक है, भले ही या दिलचस्प लगती हो. आज हमारे पास एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो मुख्यमंत्रियों से तो क्या, सीधे सरपंचों से बात करते हैं. केंद्र से अधिकार प्राप्त टीमें राज्यों के दौरे कर रही हैं. यह अंदाजा लगाने के लिए नहीं कि बाढ़, तूफान या सूखे के कारण वहां हुए नुकसान के मद्देनजर केंद्र कितनी सहायता दे सकता है. बल्कि ये टीमें यह निगरानी और हिसाब लगाने जा रही हैं कि राज्य सरकारें कोरोना संकट से किस तरह निपट रही हैं और केंद्र के आदेशों का पूरा पालन कर रही हैं या नहीं. ये टीमें राज्य सरकारों से सवाल कर रही हैं, पूरे अधिकार से उनसे सूचनाएं मांग रही हैं और उन्हें फटकार भी लगा रही हैं. और राज्य सरकारें उनका हुक्म बजा रही हैं. मसलन महाराष्ट्र सरकार को ही लीजिए, जो शायद सबसे दोस्ताना है.

राजस्थान सरकार भी अनुकूल ही है. केवल ममता बनर्जी की पश्चिम बंगाल सरकार ही निडर होकर विद्रोही तेवर दिखा रही थी. लेकिन वह भी रास्ते पर आ गई है. केंद्रीय टीम यह पता लगाने के लिए वहां के मेडिकल रिकॉर्डो की जांच कर रही है. मौतों का हिसाब ले रही है कि राज्य सरकार आंकड़ों में घालमेल तो नहीं कर रही. तमाम शोरशराबा मचाने के बावजूद राज्य सरकार को न केवल कुछ सवालों के जवाब देने और अपने यहां मौतों के आंकड़ों में काफी कुछ संशोधन करने को मजबूर किया गया है. उदाहरण के लिए, बृहस्पतिवार और शुक्रवार के बीच राज्य ने कोरोना से हुई मौतों की संख्या 15 से बढ़ाकर 57 कर दी. अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि रातो-रात लोग दर्जनों की तादाद में मर गए हों. ये वे मृतक थे, जो कोविड पॉज़िटिव पाए गए थे मगर उन्हें दूसरी बीमारियों के कारण मृत घोषित किया गया था.

जो पश्चिम बंगाल 34 साल तक वामपंथी शासन में और फिर एक दशक से ममता के राज में अपने आप में लगभग एक गणतन्त्र की तरह काम करता रहा. उसे पहली बार इस तरह का व्यवहार झेलना पड़ा है. अगर आपको यह परिवर्तन महत्वपूर्ण नहीं लगता, तो याद कीजिए कि यही मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की बैठक में शामिल होने से इनकार करती रहीं. प्रधानमंत्री का हवाई अड्डे पर आकर स्वागत करने से मना करती रहीं और हवाई अड्डे से शहर तक उनके साथ गाड़ी में बैठने से इनकार करती रही हैं.

यह राज्य सरकार अपने एक चहेते आइपीएस अधिकारी को गिरफ्तारी से बचाने के लिए सीबीआई से भिड़ गई थी और जीत भी गई थी. लेकिन अब जो परिवर्तन आया है वह इस महामारी और इसके चलते केंद्र द्वारा विशेष अधिकारों के उपयोग के कारण आया है. लेकिन, इन अधिकारों को अगर कबूल किया जा रहा है तो इसकी मुख्य वजह है पैसा. जब सारे स्थानीय कारोबार बंद हैं, सम्पत्तियों का लेन-देन बंद है, लॉकडाउन के कारण पेट्रोल/डीजल की बिक्री लगभग शून्य है, और शराब बिक्री पर भी रोक है, तब राज्यों की कमाई भी बंद है. अब कई राज्य सरकारों को अपने कर्मचारियों को वेतन देने में भी मुश्किल होगी और गरीबों को राहत सीधे केंद्र से मिल रही है.

आज़ादी के बाद तीन दशकों तक, खासकर इंदिरा गांधी के दौर में कांग्रेस का दबदबा था. हमारी संघीय व्यवस्था बस नाम के वास्ते ही चल रही थी. अधिकतर राज्यों में कांग्रेस ही सत्ता में थी और केंद्र की मर्जी के बिना कोई भी मुख्यमंत्री किसी डीएम या एसपी का तबादला तक नहीं कर सकता था. कांग्रेस मुख्यमंत्री हवाई अड्डे पर पार्टी अध्यक्ष की उंगली के उपेक्षापूर्ण इशारे पर भी बर्खास्त किए जा सकते थे (1990 में राजीव गांधी ने कर्नाटक के वीरेंद्र पाटील की इसी तरह छुट्टी की थी). राज्य में विपक्षी दल की सरकार को बर्खास्त करने के लिए अनुच्छेद 356 था.

इमरजेंसी के बाद स्थिति थोड़ी बदली. हालांकि, इंदिरा गांधी 1980 में वापस आ गईं लेकिन पंजाब, तमिलनाडु समेत कुछ राज्यों में स्वायत्तता पर ज़ोर दिए जाने के कारण उन्हें मजबूरन कुछ छूट देनी पड़ी, भले ही वह वैचारिक दृष्टि से ही क्यों न हो. 1983 में उन्होंने केंद्र-राज्य संबंधों की समीक्षा के लिए जस्टिस सरकारिया आयोग का गठन किया. उसने विशद रिपोर्ट दी, जिसके बारे में मैंने ‘इंडिया टुडे’ में खबर भी दी थी और जस्टिस सरकारिया का इंटरव्यू भी किया था. फिर भी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के पास इतनी ताकत थी कि वे सत्ता का दबदबा दिखा सकते थे.


यह भी पढ़ें : कोविड भारत में अभी वायरल नहीं हुआ पर देश और दुनिया में कुछ लोग सच्चाई को स्वीकार नहीं कर पा रहे


1989 में कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय वर्चस्व टूटने के बाद पर भारतीय राजनीति बदल गई. बाद के दशकों में भारत संविधान के द्वारा परिभाषित वास्तविक संघीय व्यवस्था से दूर होता गया है. यह कारगर भी रहा है, इसके प्रमाण भी हैं. भारत अब पहले से ज्यादा समृद्ध है या कह सकते हैं कि बेहतर हालत में है. अगर आपको यह मुफीद लगे तो कह सकते हैं कि गरीबों की संख्या पहले से कम हुई है. आर्थिक वृद्धि की दरों में लगातार सुधार हुआ है.

और सबसे अहम बात यह है कि कांग्रेस जिस क्षेत्रीयतावाद का डर दिखाकर कहा करती थी कि इससे देश टूट जाएगा, वह पूरी तरह गलत साबित हुआ है. भारत में संघीय व्यवस्था के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा एवं एकता का भाव भी मजबूत हुआ है. अपने पूरे इतिहास में भारत आज अगर आंतरिक तथा बाह्य रूप से ज्यादा सुरक्षित है तो इसमें दशकों तक संघीय व्यवस्था में रहने का भी कुछ योगदान तो है ही.

लेकिन इसे अब उलटा जा रहा है. इसमें मोदी के तौर तरीकों और उनकी लोकप्रियता से भी मदद मिल रही है. इस महामारी ने इसे नैतिक औचित्य प्रदान किया है. इसे हम आज अमेरिका में भी होते देख रहे हैं, जहां रिपब्लिकन और डेमोक्रेटिक दलों के शासन वाले राज्यों में फेडरल फंडिंग के लिए होड़ चल रही है और डोनाल्ड ट्रंप का मानना है कि वे राज्यों को आदेश दे सकते हैं कि कौन-सा राज्य कब लॉकडाउन से मुक्त होगा और कितना और रिपब्लिकन गवर्नर (जॉर्जिया) के इस फैसले को उलट सकते हैं कि 1 मई से वहां लॉकडाउन में छूट दी जा सकती है.

बहरहाल, यह असामान्य दौर गुजर जाएगा. लेकिन इसके कारण जो उपरोक्त परिवर्तन आए हैं उन्हें क्या उलटा जा सकेगा? अमेरिका में तो संस्थागत ढांचे काफी मजबूत हैं लेकिन क्या मोदी के शासन में केंद्र सरकार पहले वाली स्थिति में लौटेगी और वह फिर से सिकुड़ी हुई दिखेगी ? हमारी राजनीति का जो इतिहास रहा है वह कोई बहुत उम्मीद नहीं जगाता.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments

3 टिप्पणी

  1. Sir aap modi ji ka khof jabrjasti bana rahe hai….aap buul rahe hai modi ka koi parivar nahi ….Gandhi family jaise ki bo apne parivarke liy ulte shidhe Kam Kare……aap janta Tak sahi or nispakhs jankari pahunchao

  2. हमारे PM सबसे बात करते हैं सिवाय पत्रकार , शायद ये भी भारत में नया नया शग़ल हैं .

  3. आज राज्य पहले से ज्यादा मजबूत है। बिना ३५६ के खौफ के तथा असंवैधानिक तरीके से , केंद्र के खिलाफ कानून पास हो रहे है। आज केंद्र की आलोचना आज राजनीतिक फायदा से रहा है। जीएसटी के बाद राज्य अपना हिस्सा स्वतः पा रहे है। जाहिर है कि सरकार अभी भी धारा ३५६ का उपयोग तथा दुरुपयोग नहीं कर रही है। ३५६ का दुरुपयोग कांग्रेस के काले कारनामों का एक हिस्सा है। किसी जमाने में कांग्रेस के मुख्य मंत्री की वास्तविक हैसियत सिर्फ एक परिवार के चाटुकार की होती थी।

Comments are closed.