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Monday, 23 December, 2024
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क्यों अनुबंध खेती का अध्यादेश किसानों, खरीदारों और व्यापारियों के लिए लाएगा फायदा ही फायदा

लेकिन मोदी सरकार का यह अध्यादेश अनुबंध खेती में सरकारी दखल की गुंजाइश भी छोड़ता है, जिस पर संसद को विचार करना चाहिए जब इसे कानून बनाने के लिए पेश किया जाएगा.

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यह कृषि उत्पादों के बाज़ारों को नया कानूनी ढांचा देने की कोशिशों का एक हिस्सा है. इससे पहले दो और अध्यादेश जारी किए गए हैं, जिनमें से एक तो आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करता है और दूसरा खाद्य सामग्री के राष्ट्रीय बाज़ार के गठन के मकसद से ‘एपीमसी’ के अधिकारों में कटौती करता है.

अब तीसरा अध्यादेश लाया गया है जिसका नाम है—‘फारमर्स (एम्पावरमेंट ऐंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस ऐंड फार्म सर्विसेज ऑर्डनेंस’. इसमें किसानों के लिए प्रावधान किया गया है कि वे कृषि उत्पादों के ख़रीदारों से सीधे अनुबंध कर सकते हैं. अभी तक पूरे देश में किसान अपने उत्पाद सीधे उपभोक्ताओं या खाद्य प्रसंस्करण कंपनियों को नहीं बेच सकते थे, उन्हें लाइसेंसधारी व्यापारी के मार्फत ही अपना उत्पाद बेचना पड़ता था.

अगर आलूचिप्स के लिए खास तरह के आलू चाहिए या जूस बनाने के लिए विशेष किस्म के नारंगी चाहिए या किसी रेस्तरां चेन को बड़ी मात्रा में मशरूम चाहिए, तो कंपनी को यह सब एक व्यापारी के जरिए खरीदना पड़ता है. वह किसान के साथ सीधे यह करार नहीं कर सकता कि वह उसकी जरूरत की चीज़ उपजाए और पहले से तय की गई कीमत पर उसे बेचे. इस व्यवस्था में किसान मुनाफाखोर व्यापारी की दया पर निर्भर रहता है.

‘एपीएमसी’ क़ानूनों का जाल

राज्य सरकारों को कृषि बाज़ारों और मेलों को नियंत्रित करने का अधिकार हासिल है. लेकिन ज़्यादातर एपीमसी क़ानूनों के तहत ‘बाज़ार क्षेत्रों’ का निर्धारण करके इस परिभाषा में काफी ढील दी जाती है. एक प्रखण्ड से लेकर पूरे जिले तक को बाज़ार क्षेत्र में शामिल किया जा सकता है और एक बाज़ार क्षेत्र का किसान अपना उत्पाद निर्धारित एपीएमसी बाज़ार में ही बेच सकता है. उसे बगल के जिले के एपीएमसी बाज़ार में भी जाने की इजाजत नहीं है, चाहे वह उसके बिलकुल करीब ही क्यों न हो.

कुछ राज्यों में किसानों को अपना उत्पाद एपीएमसी बाज़ार में लाए बिना भी उसे लाइसेंसधारी व्यापारी को बेचने की छूट दी गई है. लेकिन एपीएमसी की सेवाएं न लेने के बावजूद किसानों/व्यापारियों को एपीएमसी को अक्सर सेवा फीस देनी पड़ती है. इससे प्रतिस्पर्द्धा का माहौल खराब होता है. व्यापारियों को इन बाज़ारों में अपना संघ बनाना आसान लगता है और वे किसानों को कम कीमत देते हैं. किसानों को भी कीमतों में रोज-रोज के बदलाव के कारण परेशानी का सामना करना पड़ता है.

अध्यादेश से यह सब बदल जाएगा. इसके बाद किसान अपना उत्पाद बेचने के लिए किसी व्यक्ति या कंपनी के साथ अनुबंध कर सकेंगे. अध्यादेश कहता है कि एपीएमसी बाज़ार के कानून केवल बाज़ार के स्थान पर लागू होंगे, इससे बाहर के लेन-देन पर लागू नहीं होंगे. ऐसे लेन-देन पर किसी एपीएमसी से जुड़े टैक्स या फीस नहीं वसूले जा सकेंगे.

किसान फसल कटाई से पहले ही अपने उत्पादों की कीमतें और खरीदार भी तय कर सकेंगे, और बिचौलिये भी फसल कटाई के समय आपूर्ति और कीमत के बारे में आश्वस्त हो सकेंगे. यह दोनों पक्षों के लिए फायदे वाली बात है.

बिचौलिये आपूर्ति और मांग को पूरा करने में अहम भूमिका निभाते हैं लेकिन फिलहाल एपीएमसी कानून एकाधिकारी पेशे का निर्माण करता है, जिसे प्रतिस्पर्द्धी होने की जरूरत नहीं है. यह कानून बिचौलिया/ व्यापारी बाज़ार में कमी को दूर करता है. यह बिचौलियों को किसी तरह से प्रतिबंधित या हतोत्साहित नहीं करता. यह एपीएमसी को खत्म नहीं करता. लेकिन अब आगे उन्हें दूसरे ख़रीदारों से प्रतियोगिता करनी होगी और बेहतर सेवाएं व कीमत देनी होगी.


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किसानों को प्रोत्साहन

नया कानून किसानों को खाद्य प्रसंस्करण करने वालों (या किसी से भी) से परिमाण, गुणवत्ता और कीमत के मामले में करार करने की छूट देगा. यह पेप्सिको जैसी विशाल प्रसंस्करण कंपनी या कोई एक रेस्त्रां भी हो सकता है, जिसकी दिलचस्पी सब्जियों या जैविक दालों में हो सकती है.

यह अध्यादेश (इसके साथ ही आवश्यक वस्तु अधिनियम पर दूसरा अध्यादेश) बिचौलियों को अनुबंध खेती के लिए भंडारण की सीमा से मुक्त करेगा. यह बड़े संगठनों को अनुबंध खेती में शामिल होने की सुविधा प्रदान करेगा. यह छोटे व्यापारियों को भी अपनी क्षमता बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करेगा.

कृषि उत्पादों के लिए बड़े, और अधिक संख्या में खरीदार आएंगे तो उनमें प्रतियोगिता से किसानों को ही लाभ होगा. ये कदम कृषि वस्तुओं के लिए राष्ट्रीय बाज़ार की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे.

अनुबंध खेती कोई नया विचार नहीं है, पंजाब जैसे कुछ राज्य कानून बनाकर इसे आगे बढ़ाने की कोशिश कर चुके हैं. कई कानूनी बाधाओं के बावजूद भारत में छोटे पैमाने पर अनुबंध खेती किसानों के लिए सकारात्मक भूमिका निभा रही है.

कृषि मंत्रालय ने अनुबंध खेती के लिए मॉडल कानून 2018 में ही प्रस्तुत किया था, लेकिन यह कुछ ज्यादा ही निर्देशात्मक था. यह अनुबंध खेती की अनुमति तो देता था मगर केवल अधिसूचित वस्तुओं के लिए; कीमतें सरकारी नियमों के अनुसार तय की जानी थीं; और हर अनुबंध को जिला प्रशासन में पंजीकृत करवाना जरूरी था. इसके विपरीत नया अध्यादेश किसी भी कृषि उत्पाद के लिए अनुबंध खेती की अनुमति देता है, कीमतें तय करने का अधिकार संबंधित पक्षों को देता है, और अनुबंधों को केंद्रीय ई-रजिस्ट्रेशन की अनुमति देता है.

सरकारी दखल का खतरा

अध्यादेश अनुबंधों की आज़ादी की दिशा में सकारात्मक कदम तो उठाता है मगर दो मामलों में सरकारी हस्तक्षेप की गुंजाइश छोड़ता है— कार्यपालिका द्वारा मध्यस्थता, और स्व प्रेरणा से मुकदमा दायर करने की छूट. अध्यादेश को जब संसद में पेश किया जाए तब इन मुद्दों पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए.

पक्षों के बीच विवाद के निबटारे के लिए सामान्य न्यायपालिका का सहारा लेने की जगह यह अध्यादेश कार्यपालिका (सब-डिवीज़नल मजिस्ट्रेट) को यह ज़िम्मेदारी सौंपता है, जो प्रक्रियागत नियमों से बंधा नहीं होगा. यह इस मामले के पक्षों से ज्यादा सरकार को अधिकार सौंपता है. अगर विवादों को न्यायपालिका में सुलझाने की व्यवस्था हो तो यह नहीं होगा.

यह अध्यादेश कार्यपालिका को विवादों के निबटारे के लिए स्वप्रेरणा से मामले दायर करने का अधिकार देकर सरकारी हस्तक्षेप का रास्ता खुला छोड़ता है. ये ऐसे मामले हो सकते हैं जिनमें कृषि अनुबंध करने वाले पक्षों ने कोई विवाद नहीं खड़ा किया होगा लेकिन सरकार अनुबंध में शामिल होकर उसमें फेरबदल कर सकती है. यह अनुबंध कानून के मूल सिद्धांत का उल्लंघन है. अगर अनुबंध में शामिल पक्ष कोई शिकायत नहीं कर रहे तो तीसरे पक्ष को उस अनुबंधीय रिश्ते में दखल नहीं देना चाहिए. इस सिद्धांत का उल्लंघन पक्षों के बीच के व्यावसायिक संबंध को कमजोर करता है. अगर सरकार अनुबंध खेती के करारों में बार-बार दखल करेगी तो खरीदार पीछे हटेंगे.


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1991 में जो आर्थिक सुधार किए गए उनके तहत उद्योगों और सेवा क्षेत्र के प्रति कानूनी रुख में बुनियादी बदलाव आया. लाइसेंस-परमिट-इंसपेक्शन राज के कई कानूनों को रद्द किया गया और भागीदारों को ज्यादा आज़ादी दी गई. अफसोस की बात है कि कृषि क्षेत्र को वह आज़ादी नहीं मिली. इस क्षेत्र के भागीदार अभी भी पुराने कानूनी ढांचे में जी रहे हैं. सरकार ने जो अध्यादेश जारी किए हैं वे किसानों को अपना उत्पाद बेरोकटोक बेचने की आज़ादी देने की दिशा में एक स्वागतयोग्य कदम है.

(इला पटनायक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर और शुभो रॉय शिकागो विश्वविद्यालय में रिसर्चर हैं.यहां व्यक्त विचार निजी हैं. )

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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