कांग्रेस द्वारा जारी किए गए चुनावी घोषणापत्र में राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेने का कारण उसे कड़ी भर्त्सना झेलनी पड़ रही है. वित्त मंत्री अरुण जेटली ने मेनिफेस्टो को ‘सकरात्मक रूप से खतरनाक’ बताया है. जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘यह पाकिस्तान के षडयंत्र का दस्तावेज है.’
कांग्रेस द्वारा जारी मेनिफेस्टो किसी एनजीओ के सपनों को साकार करने जैसा है. (और अगर अफवाहों की मानें तो यह किसी एनजीओ द्वारा ही ड्राफ्ट किया गया है.) कांग्रेस का मेनिफेस्टो आर्म्ड फोर्सेस (स्पेशल पावर्स) एक्ट (अफस्पा) और कोड ऑफ क्रिमिनल प्रॉसिजर में बदलाव की बात करता है. जिससे निःसंदेह भाजपा तुरंत इस मुद्दे को भुनाने में लग गई और देश की सुरक्षा को लेकर कांग्रेस द्वारा कड़ा रुख अख्तियार नहीं करने जैसे मुद्दे को लेकर इसे प्रमाण के तौर पर इस्तेमाल करने लगी. लेकिन सच्चाई इससे काफी अलग है.
केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर वामदलों को कमजोर और दक्षिणपंथी को मजबूत माना जाता है. इज़रायल में कहा जाता है, ‘लेफ्ट शांति नहीं रख सकता और राइट युद्ध नहीं लड़ सकता.’ जबकि अगर कायदे से देखा जाए तो चीजें इससे काफी अलग हैं. शातिंप्रिय दिखने वाली लेफ्ट पार्टियों को सत्ता में आने के बाद आक्रमक सैन्य गतिविधियां करने की खुली छूट मिल जाती है. जबकि सैन्य युद्ध के लिए हमेशा अग्रसर दिखने वाले दक्षिणपंथी सत्ता में आने के बाद शांति के समझौते वाले मुद्दे पर वामदलों से ज्यादा तरजीह देते हैं. लेकिन उन्हें तत्कालिक रूप से अंतराष्ट्रीय सैन्य प्रतिबंध झेलने पड़ते हैं. और इस रोग से दुनिया का कोई भी देश अछूता नहीं है. संयुक्त राष्ट्र भी नहीं.
यह बात हमें स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को लेकर कांग्रेस कोई नया-नवेला नहीं है और अगर भाजपा से तुलना करें तो चाहे आंतरिक सुरक्षा हो या बाहरी, दोनों मुद्दों पर वो उससे बेहतर है. अभी तक किसी भी कांग्रेस की सरकार ने अफस्पा को कमजोर नहीं किया है. पार्टी ने आंतरिक सुरक्षा कानून (जैसे टाडा या आतंकवादी व विघटनकारी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) जैसे कड़े कानून की एक सीरीज पेश की है और गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम को काफी मजबूत करने के बाद ही आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) को रद्द किया गया.
कांग्रेस ने नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी (एनआईए) और नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन(एनटीआरओ) की स्थापना की है और सत्ता में रहने के दौरान उसने एविडेंस एक्ट में भी बदलाव किए थे.
अगर थोड़ा पीछे जाए तो 26/11 को मुंबई में हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत द्वारा दिया गया जवाब पिछले 20 सालों में देश की सुरक्षा नीति के हिसाब से सबसे बड़ी कामयाबी थी. ये भी चर्चाएं थी कि भारत ने पाकिस्तान के बलूच प्रांत के विरोधियों को उकसाया था (एक ऐसी पॉलिसी जो कि 2014 में एनडीए द्वारा रोक दी गई). हालांकि, पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने इन खबरों का खंडन किया है.
26/11 की घटना के मद्देनजर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पारंपरिक सैन्य संयम की नीति ने भारत को गुप्त सैन्य ऑपरेशन को करने में अंतराष्ट्रीय स्तर पर छूट दी. भारत ने इसकी अंतराष्ट्रीय स्तर पर राजनीति समर्थन प्राप्त करते हुए पाकिस्तान पर प्रतिबंध लगाने से की और लगभग 10 वर्षों तक एक जनशक्ति और संसाधन- गहन सैन्य अभियान में पाकिस्तानी सेना को पीछे छोड़ दिया. मुझे लगता है कि कांग्रेसी नेता देश की सुरक्षा नीति पर अपने भाजपा समकालीनों से ज्यादा आक्रामक हैं. कांग्रेसी नेताओं को राज्य की शक्तियां किस तरह से काम करती हैं, उसकी गहरी समझ है.
तो, फिर राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर कांग्रेस की छवि इतनी खराब क्यों है? मेरी परिकल्पना दो-गुनी ही.
सबसे पहले, यह हो सकता है कि चुनावी दृष्टिकोण से नहीं, बल्कि जान-बूझकर किया गया हो, (और मेरे हिसाब से यह कांग्रेस के लिए चुनावी मुद्दा नहीं बल्कि एक सुरक्षा नीति है). यह मनमोहन सिंह द्वारा 26/11 पर दी गई प्रतिक्रिया की तरह है, जिसका उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ‘शांतिपूर्ण छवि’ बनाने के लिए किया गया था और जिसने कांग्रेसी सरकारों को दूर तलक जाने की एक उम्मीद जगाई थी.
दूसरा, और हालिया आए (और चिंताजनक) कारण इस बात को लेकर भी हैं कि कांग्रेस कमजोर हो गई है और राष्ट्रीय सुरक्षा पर एक यूरोपीय सामाजिक लोकतांत्रिक दृष्टिकोण को आंतरिक बना सकती है जो कि भारत में संभव नहीं है. यह दूसरा कारण पार्टी के युवा नेताओं में बहुत अधिक दिखाई देता है, और इस मुद्दे पर इन युवा नेताओं द्वारा पार्टी में मौजूद पुराने नेताओं की सलाह लेने में अनिच्छा प्रकट करने के साथ ही इन युवा नेताओं की अनुभवहीनता पार्टी के लिए घातक साबित होती है.
इन दो परिकल्पनाओं की जांच करने के लिए मैंने कांग्रेस के कुछ नेताओं से खासतौर से अफस्पा पर बात की. वरिष्ठ नेता अपने विचारों में स्पष्ट थे कि अफस्पा के दो प्रभाव थे: ऐच्छिक और अनैच्छिक. ऐच्छिक प्रभाव बलि का बकरा और तुच्छ मुकदमेबाजी से सशस्त्र बलों का परिरक्षण था. अनैच्छिक प्रभाव चरित्र हनन था (भ्रष्टाचार और मानवाधिकारों के हनन को पढ़ें, जो आमतौर पर एक रूप या दूसरे में आपराधिकता की ओर जाता है) जो इस तरह के एक कवच को सक्षम बनाता है.
पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने स्पष्ट तौर पर कहा था कि अफस्पा के संरक्षण को अन्य कानूनों पर स्थानांतरित किया जा सकता है, जो समान स्तर के परिरक्षण प्रदान करेगा. वे इस बात को लेकर भी स्पष्ट थे कि अफस्पा के नकारात्मक पहलू भी खुलकर सामने आ सकते हैं. जैसे हेलमेट कैम जो कि बलि देने और कानूनी उत्पीड़न के खिलाफ काम करेगा. एक नेता ने बनावटी मुस्कान के साथ कहा, ‘क्या आपको लगता है कि मैं इरोम शर्मिला हूं? क्या आप जानते हैं कि उसे कितने वोट मिले?’ दूसरी तरफ, वहां कुछ ऐसे युवा नेता भी थे जिन्होंने समस्याओं और उससे जुड़े मुद्दों को लेकर अपनी अज्ञानता दिखाई.
इसका रिफरेंस प्वाइंट घरेलू सच्चाई के बजाय दुनिया के कुछ प्रमुख देश और अंतर्राष्ट्रीय संबंध हैं. एक लाइन में कहें तो समस्या कांग्रेस के साथ नहीं बल्कि राहुल गांधी के साथ है.
समस्या मूलरूप से राहुल और उनकी पार्टी के बीच संवाद की कमी है. एक लेफ्ट लिबरल होना और एक एनजीओ वाला होने में बड़ा ही बारीक अंतर है. और दुर्भाग्य से राहुल गांधी इस अंतर को समझ नहीं पा रहे जैसा कि उनकी पार्टी में कुछ लोग समझ ले रहें. एक विश्वास की कमी झलक रही है. क्योंकि अगर यह पावर इक्वेशन सरकार बनने में तब्दील हो गया तो यह पुराने और अनुभवी नेताओं द्वारा चलने वाली पार्टी की बजाय अनुभवहीन युवा कार्यकर्ताओं की फौज बन जाएगी.
हालांकि अशोक गहलोत और कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाने से एक उम्मीद जगी है कि शायद ऐसा न हो. लेकिन तब भी यही समस्या है कि राहुल गांधी के अलावा कौन? या फिर हम एक ऐसी समस्या पर विचार कर रहे हैं जो कि मौजूद ही न हो.?
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ पीस और कन्फ्लिक्ट स्टडीज में सीनियर शोध छात्र हैं)
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