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Monday, 17 June, 2024
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कांग्रेस हमेशा से वंशवादी नहीं थी, इंदिरा गांधी के जमाने में आया हाईकमान कल्चर

इंदिरा गांधी की ही स्टाइल में हाईकमान कल्चर से पार्टी चलाने का गुण उनके समय में अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत करने वाले बाल ठाकरे और कांशीराम में भी आया.

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कांग्रेस के अध्यक्ष पद को लेकर मचे विवाद के बीच राजनीतिक पार्टियों के भीतर लोकतंत्र और वंशवाद का मुद्दा एक बार फिर से चर्चा में आ गया है. हालांकि पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र का मुद्दा बार-बार उठता रहा है लेकिन इस मुद्दे पर कांग्रेस के समर्थकों की जिस तरीके से इस बार प्रतिक्रिया आयी वह भारत में लोकतंत्र और खासकर पार्टी सिस्टम में आ रहे बदलाव को समझने के लिए ज़रूरी है.

कांग्रेस में इस बार जब लोकतंत्र की मांग उठी तो गांधी-नेहरू परिवार के समर्थकों ने इसे यह कह कर खारिज करने की कोशिश की कि कांग्रेस के अंदर लोकतंत्र की मांग करने वाले लोग आरएसएस/बीजेपी के भीतर ऐसी मांग क्यों नहीं करते? साथ ही ये तर्क भी दिया जा रहा है कि भारत में हर पार्टी में वंशवाद है और ये सिर्फ कांग्रेस की समस्या नहीं है. इस तर्क के समर्थन में बीजेपी के वंशवादी नेताओं की पूरी लिस्ट दिखाई जा रही है जो तथ्य के तौर पर गलत भी नहीं है.


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कांग्रेस में वंशवाद और अलोकतांत्रिक पार्टी तंत्र

संविधान भले ही उदारवादी लोकतंत्र की बात करता है लेकिन इसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी यहां की राजनीतिक पार्टियों में समाप्त होता लोकतंत्र है. चूंकि राजनीतिक पार्टियां लोकतांत्रिक नहीं है इसलिए अन्य सामाजिक और राजनीतिक संस्थाएं भी अलोकतंत्रिक होती जा रही है.

राजनीतिक पार्टियां सिर्फ सत्ता पर कब्ज़ा करने का हथियार नहीं होतीं बल्कि वह अपनी कार्यप्रणाली से समाज और देश की अन्य संस्थाओं के लिए उच्च मापदंड स्थापित करती हैं, इसलिए भी उनका लोकतांत्रिक होना ज़रूरी है. कांग्रेस पार्टी चूंकि देश की सबसे पुरानी पार्टी है इसलिए उसका लोकतांत्रिक होना ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि राजनीतिक पार्टियों को कैसे काम करना चाहिए इसका मापदंड कांग्रेस ही स्थापित कर सकती थी.

कांग्रेस पार्टी में लोकतंत्र का नहीं होना एक समस्या है. लेकिन इस आरोप से बचाव के लिए पार्टी के नेताओं और समर्थकों ने आरएसएस/बीजेपी के उदाहरण का सहारा लिया है. इससे साफ हो जाता है कि देश अब उस ‘पार्टी सिस्टम’ की तरफ बढ़ गया है जहां बीजेपी सारे मापदंड और विमर्श के मुद्दे तय कर रही है जिसकी ओर प्रदीप छिब्बर और राहुल वर्मा समेत कई राजनीति विज्ञानी इशारा कर रहे हैं. अपनी पार्टी के बचाव में आरएसएस/बीजेपी का उदाहरण लेना दरअसल कांग्रेस की नैतिक और विचारधारात्मक हार है.

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कांग्रेस लगातार या तो बीजेपी के पीछे चल रही है या बीजेपी की आलोचना में व्यस्त है. सवर्ण आरक्षण से लेकर अनुच्छेद-370, तीन तलाक बिल से लेकर राम मंदिर पर बीजेपी से अलग कोई लाइन कांग्रेस नहीं खींच पाई. वहीं आर्थिक नीतियों में बीजेपी के साथ कोई बुनियादी विचारधारात्मक अंतर न होने के बावजूद कांग्रेस आर्थिक मुद्दों पर मोदी सरकार की आलोचना करती रहती है.

कांग्रेस के पास अपना कोई सकारात्मक कार्यक्रम इस समय नहीं है.


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गांधी-नेहरू परिवार के बिना कांग्रेस की एकजुटता संदिग्ध?

गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति के हाथ में कांग्रेस की कमान दिए जाने के जवाब में यह तर्क दिया जा रहा है कि ऐसा करने से कांग्रेस पार्टी टूट जाएगी. जबकि खुद राहुल गांधी, परिवार के बाहर के किसी व्यक्ति को कमान देने की पेशकश के साथ पिछले साल अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके हैं. प्रियंका गांधी ने भी राहुल की बात का समर्थन किया है. इसके बावजूद कई कांग्रेस समर्थक गांधी-नेहरू परिवार के हाथ में ही पार्टी की कमान रखने के इच्छुक हैं. पार्टी का अस्तित्व बनाए रखने के लिए उन्हें ऐसा करना जरूरी लगता है.

गांधी-नेहरू परिवार के नेतृत्व में न होने की स्थिति में कांग्रेस के बिखराव की आशंका का तर्क ठीक वैसा ही है जिसे बीजेपी ने देश में फैलाया है कि नरेंद्र मोदी जैसे मज़बूत नेता के बिना देश ‘टुकड़ों-टुकड़ों’ में बंट जाएगा. किसी पार्टी के समर्थकों में इस तरह के विचार का आना यह दर्शाता है कि लोगों को डराकर या अनिश्चय का माहौल बनाकर राजनीति की जा रही है. डर और भय के माहौल में लोग कोई भी जोखिम नहीं लेना चाहते.

कांग्रेस के नेताओं को अगर आम जनता का विश्वास जीतना है तो उन्हें सबसे पहले अपने अंदर के भय को जीतना होगा तभी वे कार्यकर्ताओं के बीच के डर को खत्म कर पाएंगे. उन्हें यह साबित करना होगा कि लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति हमेशा के लिए नेता नहीं बनता और नए नेतृत्व के सामने आए बिना कोई भी पार्टी अनंत काल तक नहीं चल सकती.


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कांग्रेस में हाईकमान कल्चर की ऐतिहासिकता

कांग्रेस के अंदर व्याप्त गांधी-नेहरू परिवार के हाईकमान या आलाकमान कल्चर को पार्टी के नेताओं और समर्थकों ने सर्वकालिक ऐतिहासिक सत्य मान लिया है. ऐसे लोगों को लगता है कि कांग्रेस पार्टी हमेशा से ही ऐसी थी इसलिए जब भी कोई नेता इस पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव कराने की मांग करता है तो उसे पार्टी विरोधी कह दिया जाता है.

कांग्रेस में हाईकमान कल्चर की शुरुआत 1971 में इंदिरा गांधी ने की थी, जब उन्होंने पुरानी कांग्रेस से अलग होकर नई कांग्रेस बनाई और इस नई पार्टी में आंतरिक चुनाव की प्रक्रिया को बंद कर दिया था. राजनीति विज्ञानी कंचन चंद्रा के अनुसार आंतरिक चुनाव बंद करने का कांग्रेस को बड़ा नुकसान हुआ, खासकर उत्तर भारत में, जहां पार्टी जनाधारविहीन पुरानी नेताओं के कब्ज़े में कैद रही और नए नेताओं को पार्टी में बढ़ने का मौका नहीं मिला. ऐसे स्थिति में कई नए उभरे नेताओं ने जनता दल, बसपा, सपा, भाजपा जैसी पार्टियां ज्वाइन कर ली.

आज भी कांग्रेस में उन्हीं नेताओं का समूह पार्टी के अंदर लोकतांत्रिक ढंग से चुनाव का विरोध करता है जो खुद जनाधारविहीन है क्योंकि वह राजनीति में पत्रकारिता, वकालत, समाजसेवा जैसे पेशों से आया हुआ होता है.

इंदिरा गांधी का कांग्रेस पार्टी में आंतरिक चुनाव समाप्त करके हाईकमान कल्चर की शुरुआत करना, उनके उन दिनों कम्युनिस्ट विचारधारा वाले सोवियत संघ की तरफ हुए झुकाव की वजह से आया दिखता है. भारत उन दिनों सोवियात संघ के काफी नज़दीक चला गया था और उसी से प्रभावित होकर इंदिरा गांधी ने बैंकों और कोयला खानों के राष्ट्रीयकरण, जनसंख्या नियंत्रण जैसी नीतियां अपनायी थीं. चूंकि सोवियत संघ या फिर चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में लोकतांत्रिक चुनाव की कोई प्रथा नहीं रही है इसलिए उससे प्रभावित नेताओं ने भी वही मॉडल अपना लिया. ऐसी स्थिति में पार्टी में लोकतंत्र की संभावना नहीं रह जाती.

इंदिरा गांधी की ही स्टाइल में हाईकमान कल्चर से पार्टी चलाने का गुण उनके समय में अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत करने वाले बाल ठाकरे और कांशीराम में भी आया, जिससे इनके द्वारा स्थापित शिवसेना और बसपा भी हाईकमान कल्चर वाली ही पार्टियां बनी. वहीं तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी, टीआरएस, वाईएसआर कांग्रेस जैसी देश की कई बड़ी पार्टियां इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस से टूटकर बनी है इसलिए उनमें भी हाईकमान कल्चर का आना स्वाभाविक है.

(लेखक रॉयल हालवे, लंदन विश्वविद्यालय से पीएचडी स्क़ॉलर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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