कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा पिछले शनिवार को बुलाई गई पार्टी नेताओं की घंटों चली बैठक ने एक बार फिर यही साफ कर दिया कि वह पार्टी को इस अंजाम तक पहुंचाने वाली समस्या— गांधी परिवार— का हल ढूंढने के मूड में नहीं है. पार्टी तो उस मसले पर चर्चा तक करने को तैयार नहीं दिखती है जिस मसले का सबसे पहले समाधान किया जाना चाहिए, यानी पार्टी की कमान गांधी परिवार से अलग किसी और के हाथों में सौंपना. कांग्रेस समस्या का समाधान समस्या से ही करने की कोशिश कर रही है.
एक दर्जन से ज्यादा नेताओं की इस बैठक में पूर्व पार्टी अध्यक्ष, और कांग्रेस के भावशून्य चेहरे, राहुल गांधी ने कहा कि वे पार्टी को पुनर्गठित करने के लिए तैयार हैं. पार्टी को पुनर्गठित करने की जरूरत है, यह कोई भारी ज्ञान की बात नहीं है. असली सवाल यह है कि यह काम किसके नेतृत्व में हो. यह तो सबको पता है कि राहुल गांधी पार्टी को गठित, पुनर्गठित, पुनः पुनर्गठित करने में विफल रहे हैं. इसके बावजूद, सवाल यह है कि कांग्रेस अपने नेतृत्व में आमूल परिवर्तन के सबसे नाजुक तथा निर्णायक सवाल का जवाब ढूंढने की बजाय राहुल की या गांधी परिवार की भूमिका के बारे में विचार करने पर अपना समय और अपनी पूंजी क्यों बरबाद कर रही है?
नेतृत्व परिवर्तन तो छोड़िए, नेतृत्व संकट की चर्चा भी इस बैठक में छेड़ी नहीं गई. यह बैठक पार्टी के 23 प्रमुख नेताओं की ओर से सोनिया गांधी को भेजे गए उस पत्र के चार महीने बाद बुलाई गई थी, जिस पत्र में इन नेताओं ने पार्टी की कमान एक पूर्णकालिक और गतिशील नेता के हाथ में सौंपे जाने की अहमियत पर ज़ोर दिया है. आज कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि उसकी कमान एक कमजोर, दिशाहीन, अनमने, और कुल मिलाकर जमीन से कटे आलाकमान के हाथों में है. इसका समाधान केवल बैठकें या चिंतन शिविर लगाना नहीं है.
2014 के लोकसभा चुनाव में झटका खाने के छह साल बाद भी ऐसा लग रहा है कि बात यही चल रही है कि कांग्रेस का नेतृत्व कौन गांधी करे, और सबसे दुस्साहसिक यह कि आलाकमान और बाकी पार्टी के बीच कितनी बड़ी खाई है. लेकिन नये नेतृत्व पर चर्चा की कोई आहट तक नहीं सुनाई देती. इसका नतीजा यह है कि पार्टी में नयी जान फूंकने की भी कोई बात नहीं हो रही.
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नेतृत्व में घालमेल
कांग्रेस के लिए संकट कोई रातोरात नहीं पैदा हो गया. यह यूपीए-2 के दौर से ही धीरे-धीरे पकता रहा है, और राष्ट्रीय मंच पर नरेंद्र मोदी के पदार्पण के साथ यह और तेजी से पकने लगा.
चुनावी राजनीति हर किसी के बस की बात नहीं होती. राहुल गांधी के बस की तो निश्चित ही नहीं है, और यह भी स्पष्ट होता जा रहा है कि यह प्रियंका गांधी वाड्रा के भी बस की बात नहीं है. उन दोनों में अपनी खूबियां बेशक होंगी. उदाहरण के लिए, राहुल गांधी नेकनीयत हैं, ‘जनेऊधारी ब्राह्मण’ के ठप्पे के बावजूद सबका साथ वाले सामाजिक तानेबाने में यकीन रखने वाले नेता हैं, जिसकी आज भाजपा की ध्रुवीकरण वाली राजनीति के मद्देनजर बहुत जरूरत है.
लेकिन एक पार्टी का नेतृत्व करना बिलकुल अलग मामला है. सोनिया गांधी 1998 में पहली बार पार्टी की अध्यक्षता संभालने के बाद कांग्रेस को गर्त से उबारने में सफल रही थीं. उन्होंने न केवल उसे चुनावी सफलता दिलाई बल्कि उसे 10 साल तक केंद्र में सत्ता में बने रहने में मदद भी की. यह सब वे गठबंधन बनाने और गठबंधनों के दौर के मुताबिक पार्टी को ढालने की अपनी कुशलता के बूते कर पाईं. और अपनी विरासत के रूप में उन्होंने कुछ अहम कानून और कुछ नीतिगत निर्णय सौंपे.
लेकिन, राहुल गांधी का दौर एकदम अलग रहा है. कांग्रेस की बेकाबू गिरावट जारी रही, और राहुल के कारण इसकी गति तेज ही हुई. वे मोदी के दौर में न केवल मतदाताओं के मन-मिजाज पर छा पाने में विफल रहे सके बल्कि पार्टी अथवा उसके संगठन को भी मजबूत न बना सके. राहुल मनमौजी हैं और अक्सर ढुलमुल रहे हैं, और ऐसे सलाहकारों से घिरे रहे हैं जिन्हें भारतीय राजनीति के दांवपेंचों की शायद ही कोई समझ है.
बहुत उम्मीदें राजनीति में प्रियंका गांधी वाड्रा के ‘औपचारिक’ प्रवेश पर टिकी थीं लेकिन कांग्रेस की बदकिस्मती से वे उम्मीदें भी धराशायी हो गईं.
अब राहुल यह तो कह रहे हैं कि वे पार्टी का पुनर्गठन करेंगे, लेकिन उन्होंने 2013 के दिसंबर में विधानसभा चुनावों में हार के बाद भी क्या यह वादा नहीं किया था कि वे पार्टी में ऐसे बदलाव करेंगे जिनकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी? अगर वे फिर से पार्टी की कमान अध्यक्ष के रूप में या केवल एक ‘मसीहा’ के रूप में संभालने जा रहे हैं, तो पिछले साल पद से उनके हटने का क्या मतलब था? दरअसल, इस बीच ऐसा कोई फर्क नहीं पड़ा है कि राहुल अब पार्टी को संभालने और उसका पुनर्गठन करने के लिए अधिक सक्षम हो गए हों.
सोनिया गांधी ने अपना राजनीतिक शिखर छू लिया और अब स्वास्थ्य भी उनका साथ नहीं दे रहा है, इसलिए उन्हें ज़िम्मेदारी किसी को सौंपनी ही होगी. कॉंग्रेस की समस्या यह नहीं है कि उसके पास नेताओं की कमी है. राजस्थान हो या मध्य प्रदेश या छत्तीसगढ़ या और कोई राज्य, उसके प्रदर्शन से यह स्पष्ट है. समस्या दरअसल ‘प्रथम परिवार’ से आगे न देख पाने की है.
मुंह चुराने की आदत
और इससे बड़ी समस्या यह है कि कांग्रेस के नेता नेतृत्व परिवर्तन के बारे में कोई चर्चा न तो शुरू करना चाहते हैं और न ऐसी कोई बात सुनना चाहते हैं.
अगस्त में 23 असहमत पार्टी नेताओं ने सोनिया गांधी को पत्र लिखकर मांग की थी कि पार्टी को ‘पूर्णकालिक और प्रभावी नेतृत्व’ दिया जाए. उनकी सुनवाई चार महीने बाद हुई, और तब भी नेतृत्व वाले सवाल को बड़े अदब से टाल दिया गया. मेरी सहयोगी फातिमा खान ने बताया कि उस बैठक में शामिल एक नेता ने उनसे कहा, ‘पार्टी अध्यक्ष के चुनाव का विषय रखा गया मगर बहुत संक्षेप में. चूंकि पार्टी के केंद्रीय चुनाव कमान को चुनाव करवाने की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई इसलिए हमने इस विषय पर ज्यादा चर्चा करना ठीक नहीं समझा.’
पार्टी के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है, शीर्ष पद के लिए प्रभावी नेतृत्व की व्यवस्था करना. इस विषय को अगर बैठक में ‘प्रस्तुत’ भर किया गया और इस पर ‘संक्षेप में’ ही चर्चा की गई, तो साफ है कि कांग्रेस में समस्या से मुंह चुराने की प्रवृत्ति इस कदर जड़ जमा चुकी है कि उसमें किसी सुधार की उम्मीद रखना मुश्किल है.
पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि कुछ नेता तो इसी से संतुष्ट थे कि गांधी परिवार ने कम-से-कम चर्चा की शुरुआत तो की, जबकि कुछ नेताओं का कहना था कि कोई ठोस नतीजा नहीं निकला. बैठक में पार्टी नेताओं ने कहा कि और ज्यादा ‘चिंतन शिविर’ किए जाने चाहिए. लेकिन इन ‘शिविरों’ में वे चिंतन किस बात पर करेंगे? उन्हें सबसे पहले चिंतन इस बात पर करना चाहिए कि एक नया, अधिक सक्षम नेता कैसे उभरे; और फिर इस पर विचार करना चाहिए कि ऐसे नेता के नेतृत्व में पार्टी को आगे कैसे बढ़ाना है. लेकिन ऐसा लगता है कि यह सब कांग्रेस आलाकमान के एजेंडा में शामिल नहीं है.
त्वमेव माता, च पिता त्वमेव
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ‘दिप्रिंट’ से बातचीत में कहा, ‘मीडिया ने उस पत्र को बहुत तूल दे दिया. जब हर कोई राहुल जी और सोनिया जी को अपना नेता मान रहा है, तब कोई विवाद क्यों होगा? बैठक बड़े सदभाव से चली, हर एक के नजरिए को सुना गया. हर किसी का यही मानना था कि राहुल गांधी कमान संभालें.’
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने मुझसे एक बातचीत में कहा कि राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनना चाहिए. ये सब पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं, जिनकी नज़र गांधी परिवार से आगे जाती नहीं है, बावजूद इसके कि पिछले छह साल में पार्टी को भारी पराजय का ही सामना करना पड़ा है. पार्टी के अंदर जो लोग कमजोर नेतृत्व का मसला उठाते हैं, मसलन 23 असहमत नेता, उन्हें हाशिये पर डाल दिया जाता है और महज इस बात से संतुष्ट हो जाने को कहा जाता है कि परिवार ने उनकी बात को सुनने लायक माना तो सही.
कांग्रेस बस एक ही घेरे में चक्कर काट रही है. अमेरिकी विचारक जॉन डेवी ने एक बार कहा था, ‘जिस समस्या को अच्छी तरह प्रस्तुत कर दिया गया उसे आधा हल हुआ मान लीजिए.’ कांग्रेस को सबसे पहले तो खुल कर और बिना क्षमाप्रार्थी हुए यह कबूल करना चाहिए कि वह जिस दलदल में धंसती जा रही उससे निकलने के बारे में कुछ सोचने से पहले उसे अपने नेतृत्व में आमूल बदलाव की जरूरत है.