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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतमायावती का खड़गे को लेकर कांग्रेस का विरोध ठीक नहीं, पार्टी शुरू से दलित नेतृत्व देती रही है

मायावती का खड़गे को लेकर कांग्रेस का विरोध ठीक नहीं, पार्टी शुरू से दलित नेतृत्व देती रही है

कांग्रेस ने न केवल अपनी विचारधारा और चिंतन में दलितों को आत्मसात किया बल्कि उनके नेतृत्व के विकास पर भी बल दिया. आजादी के समय से ही कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता दलित होते रहे.

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मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष निर्वाचित होने पर स्वाभाविक रूप से कांग्रेस और दलितों के भीतर उत्साह है. वहीं बहुजन समाज पार्टी और कुछ बुद्धिजीवियों ने असंतोष और आशंका जाहिर की है. मायावती ने अपने चिरपरिचित अंदाज में इसकी निंदा की है. उन्होंने एक वरिष्ठ दलित नेता के एक राष्ट्रीय पार्टी के अध्यक्ष बनने पर बधाई देने की भी औपचारिकता नहीं दिखायी. बल्कि इस मौके का इस्तेमाल उन्होंने कांग्रेस को दलित विरोधी पार्टी दिखाने में किया है. उनकी पार्टी यह मानती रही है कि दलितों की असली पार्टी बसपा ही है और वही दलितों का कल्याण कर सकती है.

बसपा और मायावती को यह मानने का अधिकार है लेकिन उन्हें इतिहास और सच को दबाने का अधिकार नहीं है. यह ऐतिहासिक सच्चाई है कि आजादी के पहले और बाद में कांग्रेस दलितों की पसंदीदा और हितैषी पार्टी रही है और आज भी दलित उसे अपनी पार्टी मानते हैं. मायावती कांग्रेस पर इसीलिए सबसे ज्यादा आक्रामक रहती हैं क्योंकि उन्हें पता है कि दलित कांग्रेस को अपनी पार्टी मानते हैं और कांग्रेस का दलित उत्थान में किसी भी अन्य पार्टी की तुलना में सबसे ज्यादा योगदान है.

पहले चरणजीत सिंह चन्नी के पंजाब के मुख्यमंत्री बनने पर और अब खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद से कांग्रेस और दलितों के बीच संबंध फिर से बहस के केन्द्र में आ गया है. कांग्रेस के कुछ समर्थक और विरोधी दोनों इसे पार्टी के इतिहास में एक नये अध्याय की शुरुआत के रूप में देख रहे हैं. लेकिन दोनों इस बात को समझने में असफल रहे हैं कि मल्लिकार्जुन खड़गे का कांग्रेस अध्यक्ष बनना कांग्रेस में नयी शुरुआत नहीं बल्कि कांग्रेस की राजनीति की निरंतरता में है.

महात्मा गांधी कहा करते थे कि उनका सपना है कि कोई दलित नेता कांग्रेस का अध्यक्ष बने. राहुल गांधी दलितों को आगे लाकर पार्टी और सरकार में निर्णायक और महत्वपूर्ण पदों पर बैठा रहे हैं वह कांग्रेस की पुरानी परंपरा रही है.

मायावती और बसपा के कांग्रेस पर लगातार लगाये जाते रहे आरोपों का कांग्रेस ने वैसे ही कभी जवाब नहीं दिया जैसे भाजपा के 70 साल में क्या किया के छलपूर्ण सवालों के जवाब देने की कोशिश नहीं की. लेकिन अब जब दलितों के कांग्रेस के रिश्ते को लेकर फिर से बहस चल रही है तब कांग्रेस पर लगाये गये कुछ राजनीति से प्रेरित आरोपों के जवाब देने जरूरी हो गये हैं.

कांग्रेस आधुनिक और प्रगतिशील सोच के लोगों का संगठन था. 28 दिसंबर, 1885 के अपने स्थापना अधिवेशन में ही सामाजिक न्याय और भाईचारे का रास्ता अपना लिया था. कांग्रेस के पहले अध्यक्ष उमेशचंद्र बनर्जी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा था, ‘समस्त देशप्रेमियों में प्रत्यक्ष मैत्री व्यवहार के द्वारा वंश, धर्म और प्रांत संबंधी तमाम पूर्व-दूषित संस्कारों को मिटाना और राष्ट्रीय एकता की उन तमाम भावनाओं का… पोषण व परिवर्धन करना.’


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कांग्रेस स्थापना के समय से ही दलितों के प्रति संवेदनशील रही है

कांग्रेस अपनी स्थापना के समय से ही दलितों की न केवल वर्तमान बदहाली के प्रति अतिरिक्त संवेदनशील रही है बल्कि उनके प्रति ऐतिहासिक अन्याय के प्रति भी सचेत रही है. 1917 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पारित किया था, ‘यह कांग्रेस भारतवासियों से आग्रहपूर्वक कहती है कि परंपरा से दलित जातियों पर जो बंदिशें चली आ रही हैं वे बहुत दुखदायी और क्षोभकारक हैं, जिससे दलित जातियों को बहुत कठिनाइयों, सख्तियों और असुविधाओं को सामना करना पड़ता है, इसलिए न्याय और भलमनसी का ताकाजा है कि ये तमाम बंदिशें मिटा दी जाएं.’

उसकी शुरू से ही यह मान्यता रही है कि दलितों के कल्याण के लिए कुछ विशेष इंतजाम करने होंगे. यह शायद देश की अकेली पार्टी रही है जो अपने सांगठनिक कोष से दलितों के लिए विद्यालय, छात्रावास और कुएं बनवाने के लिए धन आवंटित किए. 1922 में अश्पृष्यता उन्मूलन के लिए कांग्रेस ने स्वामी श्रद्धानंद की अध्यक्षता में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की एक उप-समिति बनायी थी. महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने दलितों के मंदिर प्रवेश और अस्पृश्यता उन्मूलन को अपना कार्यक्रम बनाया था. अखिल भारतीय चरखा संघ ने दलित महिलाओं की आर्थिक आत्मनिर्भर बनने में सहायता दी.

कम्युनल अवार्ड के फलस्वरूप पूना-पैक्ट को लेकर तमाम भ्रांतियां फैलायी गयी हैं जिनका मकसद गांधी और कांग्रेस को बदनाम करना रहा है. गांधी दलितों के निर्वाचन के खिलाफ नहीं, बल्कि उन्हें हिंदू से भिन्न पहचान के रूप में देखने के खिलाफ थे. कम्युनल अवॉर्ड को वे हिंदू धर्म और देश की एकता को तोड़ने वाला मानते थे, जो कि वह था ही.

पृथक निर्वाचन मंडल में दलितों के लिए 71 सीटें तय थीं जबकि गांधी ने 147 सीटें पेश कीं, जिसके आधार पर पूना पैक्ट हुआ. इस तरह संसद एवं विधानसभाओं-विधानपरिषदों में दलितों के लिए सीटों को आरक्षित किया गया. एक तरह से दलितों के लिए सीटें आरक्षित करने का विचार कांग्रेस का था जिसे उसने आज तक अपना समर्थन दिया है.

बसपा ने उत्तर भारत के दलितों में एक झूठ स्थापित कर दिया है कि कांग्रेस ने डॉ. आंबेडकर का तिरस्कार और अपमान किया. मायावती ने खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर जो निंदा-ट्वीट किया था, उसमें भी प्रमुखता से यह आरोप लगाया गया है. जबकि सच यह है कि कांग्रेस के कटु विरोधी होने के बावजूद उन्हें कांग्रेस ने अपने सदस्य से इस्तीफा दिलाकर मुंबई से संविधान सभा भेजा था और संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया था. प्रथम नेहरू मंत्रिमंडल में आम्बेडकर को मंत्री बनाया और दो बार राज्यसभा में भेजा था. दूसरा कौन दल है जो अपने राजनीतिक विरोधी के साथ ऐसा उदार व्यवहार किया हो? जबकि इसके लिए कांग्रेस के सामने कोई मजबूरी नहीं थी सिवाय भारत को एक समावेशी और न्यायप्रिय राष्ट्र बनाने के उसके आदर्श के.

आजादी मिलने के बाद कांग्रेस ने न केवल संवैधानिक ढांचे में दलितों के अधिकार सुरक्षित किये बल्कि सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों में भी दलितों के लिए हरसंभव प्रावधान किये गये. सरकारी नौकरियों, शैक्षिक संस्थाओं में आरक्षण का प्रावधान किया. वर्ण व्यवस्था का उन्मूलन किया, अस्पृश्यता को कानूनी जुर्म बनाया और दलितों के अनुकूल परिवेश बनाया. राजीव गांधी ने एससी-एसटी एक्ट लाकर दलितों के खिलाफ अपराध की रोकथाम की दिशा में निर्णायक काम किया. आज़ादी के बाद नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार ने दलितों व आदिवासियों को शैक्षिक संस्थानों व सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान करके दुनिया का सबसे बड़ा अफर्मेटिव एक्शन प्लान चलाया था, जिसकी वजह से आज दलित निरन्तर तरक्की के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं.

कांग्रेस दलितों को नेतृत्व भी दिए

कांग्रेस ने न केवल अपनी विचारधारा और चिंतन में दलितों को आत्मसात किया बल्कि उनके नेतृत्व के विकास पर भी बल दिया. आजादी के समय से ही कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता दलित होते रहे. जगजीवन राम भारत में दलितों के सबसे बड़े नेता थे. नेहरू की पहली कैबिनेट में मंत्री बने थे. बाद में कांग्रेस दूसरे दलित राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. संविधान लागू होने के एक दशक के भीतर ही दामोदरम संजीवैया आंध्र प्रदेश व देश के पहले दलित मुख्यमंत्री बने. 1962 में संजीवैया कांग्रेस के पहले दलित राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे. कांग्रेसी केआर नारायण देश के पहले दलित राष्ट्रपति बने. दलित अपनी ताकत और संघर्ष से कांग्रेस की दलीय और राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाते रहे हैं क्योंकि कांग्रेस दलितों के हितों के प्रति समर्पित रही है.

कांग्रेस ने अपनी स्थापना के समय से ही देश में जो लोकतांत्रिक, समाजवादी और समतावादी राजनीतिक परिवेश निर्मित किया, उसके बिना दलितों के उत्थान नहीं हो सकता था. मायावती जहां मनुवादी ताकतों के आगे दलित हितों को कुर्बान कर रही हैं, वहीं उन्हें अपनी सच्ची हितैषी पार्टी से दूर करके उन्हें गुमराह कर रही हैं. खड़गे का कांग्रेस का अध्यक्ष बनना न केवल कांग्रेस और दलितों के लिए खुशी की बात है बल्कि पूरे देश के लिए गर्व की बात है. इसमें एक बड़ा संदेश छुपा है कि भारतीय समाज अतीत का गुलाम नहीं बल्कि एक समतामूलक व बेहतर समाज के निर्माण के महान लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहा है.

संपादन: इन्द्रजीत

(लेखक कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव हैं. व्यक्त विचार उनके अपने हैं)


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