scorecardresearch
Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतकांग्रेस को मौसमी विरोध बंद करने की जरूरत, जीएसटी से लेकर कृषि बिल तक की नींव रखी थी मनमोहन सिंह ने

कांग्रेस को मौसमी विरोध बंद करने की जरूरत, जीएसटी से लेकर कृषि बिल तक की नींव रखी थी मनमोहन सिंह ने

कांग्रेस के पास मौका है कि वह भाजपा सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों और श्रम कानूनों पर अपना रुख साफ करे. मोदी सरकार द्वारा सरकारी संपत्तियों की बिक्री पर स्पष्ट रुख अपनाए.

Text Size:

भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है और विपक्ष में बैठी कांग्रेस उसके तमाम कानूनों का विरोध कर रही है. पार्टी ने कृषि कानून का विरोध तेज कर दिया है. इसके पहले पार्टी जीएसटी, निजीकरण और आरक्षण जैसे मसलों पर सरकार का विरोध कर चुकी है. पार्टी के सड़कों पर उतरने के  बावजूद तमाम कानूनों के विरोध के मोर्चे पर कांग्रेस की नीति ढुलमुल नजर आती है.

राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कृषि विधेयक अब कानून बन चुका है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पार्टी शासित राज्यों को कहा है कि वे अनुच्छेद 254 (2) के तहत बिल पास करने पर विचार करें, जो केंद्रीय कानून को निष्क्रिय करता हो. कृषि कानून का सबसे तेज विरोध पंजाब में हो रहा है, जहां कांग्रेस इस समय सबसे ताकतवर है. उसके अलावा उत्तर भारत के जिन राज्यों में कांग्रेस प्रभावी है, वहां उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं. कानून का विरोध करने वाले स्वतंत्र किसान संगठनों को भी कांग्रेस समर्थन दे रही है.


यह भी पढ़ें: कृषि सुधार विधेयक महज एक शुरुआत है, 1991 के सुधारों से इसकी तुलना न करें


मनमोहन ने रखी थी नींव

वहीं किसानों को मंडी से मुक्त करने का कांग्रेस उस दौर में समर्थन करती रही है, जब वह सत्ता में थी. खासकर मनमोहन सिंह सरकार के 10 साल के कार्यकाल में तमाम कवायदें हुईं कि कृषि क्षेत्र में निजीकरण के दरवाजे खोल दिए जाएं. उस दौर में तमाम रिपोर्ट  आती थीं, जिनमें यह बताया जाता था कि कृषि में निजी निवेश आने से किस तरह से कोल्ड चेन बन जाएगी, गोदाम बनेंगे और फसलों की बर्बादी रुकने से किसान मालामाल हो जाएंगे. इसके अलावा बिचौलियों को खत्म करने का मसला भी समय समय पर उठता रहा है. यह अलग बात है कि मनमोहन सिंह सरकार के गठबंधन में होने की वजह से तमाम दलों का दबाव होता था और वह उन कानूनों को पारित नहीं करा पाई. लेकिन उसकी मंशा जरूर रही है कि किसानों को मंडी से मुक्त किया जाए, ठेके पर खेती हो और कृषि जिंसों के भंडारण की सीमा समाप्त हो.

इसी तरह से सरकारी कंपनियां बेचे जाने को लेकर कांग्रेस मुखर है. पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गांधी इसके खिलाफ ट्वीट करते रहते हैं और प्रधानमंत्री मोदी को उद्योगपतियों का प्रवक्ता बताते हैं. इसके अलावा कांग्रेस समर्थकों व पार्टी की ओर से भी सोशल मीडिया पर तमाम वीडियो वायरल किए जाते हैं, जिसमें यह कहा गया होता है कि मोदी सरकार सरकारी संपत्तियों को अपने उद्योगपति साथियों के हवाले कर रही है. वहीं 1991 में मनमोहन सिंह के वित्त मंत्री रहते निजीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई और उसके बाद यूपीए-1 और यूपीए-2 में यह प्रक्रिया जारी रही. साल दर साल हर बजट में विनिवेश से होने वाली आमदनी तय की जाती थी और बाकायदा लक्ष्य तय होता था कि वित्त वर्ष के दौरान कितना बेच देना है. कांग्रेस के शासन में यह हवाला दिया जाता था कि सरकारी कंपनियों को कार्यकुशल बनाने के लिए उसे निजी क्षेत्र की तर्ज पर किया जा रहा है, जिससे बगैर सरकारी हस्तक्षेप के काम हो सके. अब मोदी के नेतृत्त वाली राजग सरकार के कार्यकाल में विनिवेश की जगह कंपनियों की बिक्री लिखा जा रहा है और विश्लेषक यह लिख रहे हैं कि कोरोना के कारण राजस्व में आई कमी की भरपाई सरकार कंपनियां बेचकर कर सकती है.

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) पर कांग्रेस का विरोध भी दिखावटी ही नजर आता है. देश भर में एक कर लगाए जाने का अभियान कांग्रेस शासनकाल में ही चलाया गया था और आम सहमति न बन पाने के कारण जीएसटी लागू नहीं किया जा सका. भाजपा ने सत्ता में आने के बाद इसकी कवायद तेज की और अरुण जेटली के वित्त मंत्री रहते इसे लागू कर दिया गया. जब जीएसटी लागू हो गया तो कांग्रेस इसके तमाम प्रावधानों में खामियां निकालने में जुट गई कि वह ऐसा जीएसटी नहीं, वैसा जीएसटी चाहती थी. हालांकि तकनीकी बातें आम नागरिक के समझ से परे हो जाती हैं कि उसमें तकनीकी खामी क्या है और कांग्रेस की जीएसटी भाजपा के जीएसटी से किस तरह से अलग होती. नागरिक यह भी सोचते हैं कि आखिर व्यवस्था खराब करने के लिए भाजपा क्यों जीएसटी लागू करेगी, जब वही अधिकारी इसे लागू करा रहे हैं, जो कांग्रेस के शासनकाल में राजनीतिक गतिरोध के कारण नहीं लागू करा सके थे.


यह भी पढ़ें: मनमोहन सिंह की अर्थ नीति में चीन से बहुत पीछे कैसे छूट गया भारत


अस्ति नास्ति में फंसी कांग्रेस

आरक्षण के मसले पर भी कांग्रेस अपनी मिट्टी पलीत करा चुकी है. अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के आरक्षण को लेकर कांग्रेस का रवैया हमेशा से ढुलमुल रहा. जब वीपी सिंह ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने के लिए विधेयक पेश किया तो लोकसभा में कांग्रेस के नेता राजीव गांधी ने उसके खिलाफ जोरदार भाषण दिया. जबकि मंडल कमीशन रिपोर्ट तैयार कराने में इंदिरा गांधी सरकार की अहम भूमिका रही थी. साथ ही पहले पीवी नरसिम्हराव के शासनकाल में न्यायालय के फैसले के बाद ओबीसी आरक्षण लागू कराया गया और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने केंद्रीय संस्थानों में ओबीसी आरक्षण लागू कराया.

कांग्रेस अभी भी अस्ति नास्ति में फंसी हुई है. ऐसा लगता है कि पार्टी में तमाम दबाव समूह हैं, जो अपने मुताबिक पार्टी को हांकने की कोशिश करते हैं और इसकी वजह से पार्टी दिशाहीन नजर आती है. चाहे वह कृषि विधेयक का मसला हो, सरकारी कंपनियां बेचे जाने का मसला हो, जीएसटी का मसला हो, वंचितों को हक देने का मसला हो, कांग्रेस का रुख साफ नजर नहीं आता है.

फिलहाल कांग्रेस के पास मौका है कि वह भाजपा सरकार द्वारा लाए गए कृषि कानूनों और श्रम कानूनों पर अपना रुख साफ करे. मोदी सरकार द्वारा सरकारी संपत्तियों की बिक्री पर स्पष्ट रुख अपनाए. केवल यह कह देना पर्याप्त नहीं होगा कि हमारी वाली बिक्री सही थी, मोदी सरकार वाली बिक्री गलत है. कांग्रेस अगर इन मसलों पर स्पष्ट राय रखती है और यह घोषणा करती है कि अब निजीकरण की जरूरत नहीं है, मोदी सरकार लाभ वाले जिन उपक्रमों को बेच रही है, सत्ता में आने पर कांग्रेस सरकार उन्हें फिर से अपने कब्जे में लेगी तो उसकी दिशा साफ हो सकेगी. उसी तरह कृषि कानून और श्रम कानून को लेकर भी पार्टी को रुख साफ करने की जरूरत है जिससे मतदाताओं को यह भरोसा हो सके कि अगर भाजपा सरकार सत्ता से हटती है तो उसके द्वारा लाए गए कथित जनविरोधी कानून तत्काल खत्म किए जाएंगे.


यह भी पढ़ें: मोदी सरकार राज्यों के साथ मिलकर ही कृषि क्षेत्र में वास्तविक सुधारों को लागू कर सकती है


(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)

share & View comments