सबसे पुराना सिद्धान्त कहता है कि राजनीति हो या कोई जंग हो तो शत्रु के शत्रु को अपना दोस्त मानना चाहिए और जब आप गर्त में पड़े हों और लड़ाई में आप कहीं हों ही नहीं, तब आप क्या करेंगे? वैसी हालत में बने-बनाए, पारंपरिक नियम-कायदे से ही बात नहीं बनने वाली. जब आप एकदम हताशा की स्थिति में पड़ जाते हैं तब आप उसे पलटने की कोशिश में जुट जाते हैं. वैसी स्थिति में दुश्मन का सबसे करीबी दोस्त आपका दोस्त बन जाए तो कैसा रहे? उनकी दोस्ती में बाल बराबर भी दरार दिखे, तो तेज धार वाली कुल्हाड़ी से उस दरार को चौड़ा करने की कोशिश क्यों न की जाए?
महाराष्ट्र में यही खेल कांग्रेस और उसकी सहयोगी एनसीपी खेल रही है. इन पंक्तियों के लिखे जाने तक किसी सौदे पर मुहर तो नहीं लगी है, मगर इन दोनों ने शिवसेना के साथ सत्ता में भागीदारी करने की जो रजामंदी घोषित की है वही यह बताने के लिए काफी है कि भारतीय राजनीति किस कदर बदल रही है. कांग्रेस और एनसीपी दशकों से एक ‘सेकुलर’ सहयोगी के रूप में जाने जाते रहे हैं और अब वे उस पार्टी की ओर अपने हाथ बढ़ा रहे हैं जिसकी वे इतने दिनों तक दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी और सांप्रदायिक पार्टी कहकर निंदा करते रहे. भारत का एक अहम धर्मनिरपेक्ष गठबंधन एक वैचारिक लक्ष्मणरेखा का अतिक्रमण कर रहा है.
कांग्रेस के लिए तो यह और भी मार्के की बात है. शरद पवार की एनसीपी को तो यदाकदा अपनी चतुर सियासी चालों, परोक्ष सौदेबाजी आदि के लिए जाना भी जाता रहा है. जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूं, तीन दशकों से शरद पवार भारत के सबसे कुशल ‘नेटवर्किंग’ वाले नेता माने जाते रहे हैं. पुरानी फैशन की भारतीय राजनीति में माहिर पवार किसी को अपना दुश्मन नहीं मानते. वे भाजपा और शिवसेना से हमेशा लड़ते रहे और ये दोनों पार्टियां उन्हें हमेशा ‘घाघ’ कहती रही हैं. विधानसभा चुनाव के समय मोदी सरकार के प्रवर्तन निदेशालय ने तो उनका नाम एक घोटाले में भी घसीट लिया और यह भी याद रखिए कि इसी मोदी सरकार ने उन्हें भारतरत्न के बाद सबसे बड़े सम्मान पद्मविभूषण से नवाजा. पवार और ठाकरे परिवारों में एक समय व्यावसायिक किस्म का राजनीतिक रिश्ता भी रहा है.
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दूसरी तरफ कांग्रेस है, जो कभी भी उस दिशा में नहीं गई. कांग्रेस के पक्के आलोचक इसका खंडन कर सकते हैं और इंडियन मुस्लिम लीग, केरल कांग्रेस (सी) और एक समय असदुद्दीन ओवैसी की एमआईएम के साथ उसके समझौतों का जिक्र कर सकते हैं. वे समझौते अभी भी बिलकुल स्थानीय किस्म के छोटे समझौते हैं और अल्पसंख्यकों की राजनीति करने वाले छोटे दलों के साथ किए गए हैं. लेकिन, अब जो हो रहा है वह आज़ादी के बाद पहली बार किसी सच्चे, देसी घी टाइप हिंदुत्ववादी पार्टी के साथ कांग्रेस का हाथ मिलाना है.
आपने गौर किया होगा कि कांग्रेस, खासकर पिछले दो दशकों में सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की बुनियादी राजनीति हिंदुत्ववादी दलों को अपना मुख्य सैद्धान्तिक प्रतिद्वंद्वी मानने की रही है और उनकी पूरी राजनीति उनका विरोध करने पर केन्द्रित करती रही है. 2003 में एनडीटीवी के ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में मुझसे बात करते हुए लालकृष्ण आडवाणी ने शिकायत की थी कि सोनिया गांधी उनकी पार्टी को केवल प्रतिद्वंद्वी नहीं बल्कि ‘दुश्मन’ मानती हैं. अपनी राजनीति को इस तरह परिभाषित करने के बाद कांग्रेस हर उस दल से हाथ मिलाने को तैयार रहती थी, जो भाजपा और उसके पक्के सहयोगियों से लड़ने को तैयार हो. भाजपा के पक्के सहयोगियों में हम शिरोमणि अकाली दल और शिवसेना को गिनते हैं.
सोनिया के नेतृत्व में कांग्रेस ने वाम दलों से कई बार गठबंधन किया, जिसकी शुरुआत सिर्फ ‘सांप्रदायिक ताकतों’ को बाहर रखने के लिए एचडी देवेगौड़ा और आइ.के. गुजराल की संयुक्त मोर्चा वाली सरकार को बाहर से समर्थन देकर की गई और फिर 2004 के चुनाव के अप्रत्याशित नतीजे के बाद इसने अपने नेतृत्व में यूपीए सरकार बनाई.
गठबंधनों के दौर में इसने कभी-कभी उन लोगों से हाथ मिलाया, जो भाजपा का साथ दे चुके थे. इनमें ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार शामिल हैं. लेकिन कभी किसी हिंदुत्ववादी सहयोगी या अकाली दल से हाथ नहीं मिलाया. हमेशा ख्याल रखा गया कि ‘प्रगतिशील ताकतों’ वाली छतरी तनी रहे. सोनिया की कांग्रेस अल्पसंख्यकवाद की ओर भी झुकी, पहले तो उसने आतंकवाद विरोधी कानून ‘पोटा’ को खत्म करने का फैसला किया (भले ही यूपीए के राज में संशोधनों के जरिये इसी तरह के कठोर प्रावधान लागू किए गए) और फिर मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का जायजा लेने के लिए सच्चर कमिटी का गठन किया.
इसलिए आप समझ सकते हैं कि इतना बड़ा सैद्धांतिक फैसला लेने के लिए इस पार्टी के अंदर कितना भारी मंथन चला होगा. आप यह भी देख सकते हैं कि इससे पार्टी के पुराने, ज्यादा व्यावहारिक शैली की राजनीति करने वाले नेताओं और राहुल गांधी के इर्द-गिर्द जमा हुए नए, वामपंथी झुकाव वाले समूह के बीच किस तरह के तर्क-वितर्क हुए होंगे. आप यह भी समझते होंगे कि पुराने लोग अब अलग तरह से क्यों सोचने लगे हैं.
पहली बात यह कि वे सार्वजनिक तौर पर भले कहने की हिम्मत न करें, वे मानते हैं कि राहुल कई बार विफल साबित हो चुके हैं और अब उनका जो थोड़ा-बहुत राजनीतिक जीवन बचा है उसमें सुधार या वापसी की कोई उम्मीद नहीं दिखती. दूसरे, संभव है कि उन्हें जल्दी ही सीबीआइ या ईडी की हिरासत में जाना पड़े और तीसरी बात यह कि अपेक्षाकृत नई पीढ़ी, खासकर हाल की जेएनयू आदि से आयातित क्रांतिकारी जमात के विपरीत ये लोग अपने राजनीतिक इतिहास को अच्छी तरह जानते हैं.
मसलन उन्हें याद है कि जब उनकी पार्टी का वर्चस्व था और उसके प्रतिद्वंद्वी अगर ज्यादा नहीं तो आज जितने गहरे गड्ढे में थे (1984 में भाजपा महज दो सांसदों की पार्टी थी), तब विचारधारा को लेकर उनका रुख लचीला था. 1966 तक, जब पंजाब को बांट कर दो नए राज्य हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बनाए गए. भारतीय जनसंघ (भाजपा की मूल पार्टी) शिरोमणि अकाली दल की घोर दुश्मन थी. लेकिन, 1967 के चुनावों में वे दोनों कांग्रेस के खिलाफ मिलकर लड़े.
बाद में, इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के दौर में भारतीय राजनीति जब एकध्रुवीय बन गई तब न केवल जनसंघ और इसके समाजवादी आलोचक बार-बार साथ आए, बल्कि इन्होंने अपनी विचारधारा से एकदम दूर वाले वाम दलों से भी तालमेल किए. इस तरह के तालमेल को हमने तीन अहम अवसरों पर काम करते देखा, भाजपा और वाम दलों ने किसी काम की न मानी गई वीपी सिंह सरकार (1989-90) को सहारा देने के लिए हाथ मिलाया, फिर 2008 और 2012 में कांग्रेस के नेतृत्व वाले ‘सेकुलर’ गठजोड़ से बनी यूपीए सरकार को हराने की मिलकर कोशिश की. मुद्दा बनाया भारत-अमेरिका परमाणु संधि और मल्टी-ब्रांड खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश को.
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विचारधारा के लिहाज से दो ध्रुवों पर खड़ी भाजपा और वाम दलों को अगर साझा शत्रु के खिलाफ एकजुट होने में कोई हिचक नहीं हुई तो अब कांग्रेस को क्यों हो? कांग्रेस ने राजनीति को एकध्रुवीय बनाया था, अब भाजपा यही कर रही है. तो अब उसी तरह का लचीला रुख क्यों न अपनाया जाए? यह सवाल व्यावहारिकता की दुहाई देने वाले कांग्रेसी आज उठा सकते हैं. एक समय भाजपा और वाम दलों ने भ्रष्टाचार (बोफोर्स घोटाला) का या वंशवाद का बहाना बनाया था. कभी अमेरिकी परमाणु संधि के खिलाफ, तो कभी उग्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों (खुदरा कारोबार में एफडीआइ) को दूर रखने के लिए साझा मोर्चा बनाया गया.
आज ऐसा ही कुछ कांग्रेस क्यों नहीं कर सकती? खासकर तब, जबकि भारत के दूसरे सबसे बड़े (लोकसभा में 48 सांसद भेजने वाला) और सबसे ‘साधनसंपन्न’ राज्य महाराष्ट्र को मोदी-शाह की भाजपा की गिरफ्त से बचाने का पुरस्कार मिलने वाला हो. लोकसभा में 52 सीटों और महाराष्ट्र विधानसभा में 44 सीटों (चार बड़ी पार्टियों में चौथे नंबर) पर सिमट आई कांग्रेस को अब खोने के लिए बचा क्या है? इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनकी सरकार अल्पजीवी हो या भाजपा फिर वापस आ जाए? वैसे भी यह भाजपा के ही हाथ में जानी थी.
इस तर्क की खामियों और इससे जुड़े जोखिमों पर हम एक-दो हज़ार शब्द और लिख सकते हैं. अगर पवार इस एकजुटता को सचमुच मजबूती नहीं देते तो इसकी क्षणभंगुरता बिलकुल स्पष्ट है. लेकिन जब आप ऐसी हताशा की स्थिति में हों तब डूबते को तिनके का सहारा भी काफी होता है, भले ही उस तिनके का रंग गहरा भगवा ही क्यों न हो.
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