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Sunday, 22 December, 2024
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हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस बनी, लेकिन वहां अपने विदेशी संस्थापक का नाम क्यों नहीं ले रही

अब देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी में बदल गई कांग्रेस की तरह ही पुरानी पड़ चुकी शीशे वाली कोठी का हाल भी अच्छा नहीं है और उसके संरक्षण तक के लाले पड़े हुए हैं.

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हिमाचल प्रदेश के मतदाता वहां हो रहे विधानसभा चुनाव में 1985 से चली आ रही हर बार सरकार बदल देने की अपनी परम्परा को तोड़कर भारतीय जनता पार्टी को दोबारा सत्ता सौंप दें या उसको और मजबूत करते हुए दुर्दिन झेल रही कांग्रेस का राज्याभिषेक कर दें, यह तथ्य अपरिवर्तित ही रहने वाला है कि यह प्रदेश, खासकर इसकी राजधानी शिमला, अतीत में कांगेस की स्थापना भूमि और उसके संस्थापक एलन ऑक्टेवियन ह्यूम की कर्मभूमि रही है. हां, भारत व भारतीयों के प्रति ह्यूम के अनवरत प्रेम और आजादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका की साक्षी भी.

आगे बढ़ने से पहले याद कर लेना चाहिए कि गत 19 अक्टूबर को मल्लिकार्जुन खड़गे को आजादी के बाद का अपना 19वां अध्यक्ष चुनने वाली कांग्रेस पार्टी की नींव एलन ऑक्टेवियन ह्यूम (जो तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के सचिव यानी सिविल सर्वेंट और पॉलिटिकल रिफॉर्मर थे) द्वारा 1885 में 28 दिसम्बर को शिमला की रोथनी कासल नामक इमारत में ही डाली गई थी. अलबत्ता, उसका स्थापना सम्मेलन बाद में मुम्बई में आयोजित किया गया था.

रोथनी कासल को एक और शीशे वाली कोठी नाम से भी जाना जाता है. इसका एक बड़ा कारण उसके निर्माण में हुआ शीशे का व्यापक प्रयोग और ह्यूम द्वारा उसमें विकसित किया गया ‘ग्लास हाउस’ है. इस ग्लास हाउस में ह्यूम ने कई प्रजातियों के पक्षी तो पाल ही रखे थे, तरह-तरह की जड़ी-बूटियों वाले पेड़-पौधे भी लगवा रखे थे. इस काम में पक्षी विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान में उनकी गहरी दिलचस्पी इस तरह उनके सिर चढ़कर बोली थी कि उनका ग्लास हाउस पक्षियों व उनके अंडों का दुनिया का सबसे बड़ा निजी संग्रह बन गया था.


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लेकिन अब देश की ग्रैंड ओल्ड पार्टी में बदल गई कांग्रेस की तरह ही पुरानी पड़ चुकी शीशे वाली कोठी का हाल भी अच्छा नहीं है और उसके संरक्षण तक के लाले पड़े हुए हैं.

पड़ें भी क्यों नहीं? 1999 में कर्नाटक की बेल्लारी लोकसभा सीट पर सोनिया गांधी के मुकाबले मैदान में उतरी भाजपा नेता सुषमा स्वराज द्वारा पहली दफा उनके विदेशी मूल व ‘विदेशी बनाम देसी बहू’ को मुद्दा बनाने के बाद से वह लगातार इस कदर जोर पकड़ता गया कि कांग्रेस भाजपा के आक्रामक राष्ट्रवाद का मुकाबला करने के लिए अपनी ‘विदेशी जड़ों’ की चर्चा से भी डरने लग गई.

फिर वह अपने विदेशी संस्थापक की स्मृतियों की रक्षा के लिए ही क्योंकर सचेष्ट (इच्छा दिखाती) होती? वह तो उसका नाम लेने से भी सायास परहेज बरतने लगी-उसने उसकी जयंतियों व पुण्यतिथियों पर भी उन्हें ठीक से याद करना छोड़ दिया. इस विधानसभा चुनाव में भी उसके नेताओं के होठों पर ह्यूम का नाम नहीं ही आ रहा, भले ही उनका भारत प्रेम इस कृतघ्नता की इजाजत नहीं देता.

बहरहाल, कई साल पहले चर्चा चली थी कि सार-संभाल के अभाव में बदहाल और विस्मृत शीशे वाली कोठी को होटल में बदला जाने वाला है. तब प्रदेश में कांग्रेस की ही सरकार थी और कहा जा रहा था कि उसने इस कोठी के नये मालिक राजेश मोहन को उसे ढहाने और साइट को होटल में तब्दील करने की मंजूरी दे दी है. उसके बाद इसको लेकर बहुत विवाद भी हुआ था और इतिहासकार प्रो. एसआर मेहरोत्रा ने इस ‘हेरिटेज बिल्डिंग’ का समुचित संरक्षण न किये जाने को लेकर राज्य सरकार को पत्र में इस पर गहरा क्षोभ जताया था कि वह अपनी पार्टी की ऐतिहासिकता के संरक्षण को लेकर भी कतई गंभीर नहीं है.

प्रसंगवश, शिमला के रिज मैदान से जाखू मंदिर के रास्ते पर इस कोठी का निर्माण तो 1838 में ही हो गया था, लेकिन इसे रोथनी कासल नाम 1867 में मिला, जब वह ह्यूम का निवासस्थल बनी. ह्यूम पहली बार उसमें 1870 से 1879 के बीच रहे, फिर 1882 में सेवानिवृत्ति के बाद से 1894 तक. उनके वक्त न सिर्फ कांग्रेस की स्थापना के पहले बल्कि बाद में भी उसके संबंध में अधिकतर महत्वपूर्ण बैठकें इसी कोठी में होती रहीं-स्थापना के बाद कांग्रेस की पहली बैठक भी यहीं हुई. यह कोठी 1906 तक उसके महासचिव का आधिकारिक पता भी हुआ करती थी. एक समय वायसराय के कई विशिष्ट अतिथि भी ह्यूम की संगति का लाभ उठाने रोथनी कासल आया करते थे. हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का हॉली लॉज भी इस कासल से कुछ ही दूरी पर स्थित है.

भारत प्रेमी ह्यूम के बारे में जानना दिलचस्प है कि वे न कभी कांग्रेस के अध्यक्ष बने, न ही उसके मंच से बोले. 18 मार्च, 1894 को उन्होंने हमेशा के लिए भारत छोड़ा तो विनम्रतापूर्वक लिखा था, ‘भारत की दयालु संतानें कभी अपने स्नेही हृदयों पर मेरा मृत्योत्तर लेख लिखें तो बस यही लिखें कि ह्यूम हमें अनवरत प्यार करते रहे.

1829 में 6 जून को जन्मे ह्यूम अपने स्काटिश माता-पिता की 8वीं संतान थे. 20 साल की उम्र में ही बंगाल सिविल सर्विस में नियुक्ति पाने के बाद जल्दी ही उन्होंने अपनी न्यायपरायण अधिकारी की छवि बना ली थी. 1857 में देश का पहला स्वतंत्रता संग्राम शुरू हुआ तो वे इटावा के कलेक्टर थे. तब उनके भारतीय शुभचिंतकों ने उनकी रक्षा के लिए हिन्दुस्तानी पगड़ी व चमड़े से बना हुआ जूता पहनाकर उनका वेश बदला और सुरक्षित आगरे के लालकिले पहुंचा दिया था. ह्यूम ने लौटकर वहां फिर से अंग्रेस हुकूमत का इकबाल बुलंद किया तो 7 फरवरी, 1858 को अनंतराम गांव के पास विकट युद्ध में 125 बागी सैनिक मार गिराये गये और आठ को फांसी पर लटका दिया गया था.

इस विडम्बना के बावजूद ह्यूम ऐसे इकलौते अंग्रेस अधिकारी थे, जिसने उस स्वतंत्रता संग्राम के लिए मदांध गोरी हुकूमत द्वारा जनभावनाओं के तिरस्कार को दोषी ठहराया और कहा था कि भला इसी में है कि अंग्रेज भारतीयों को अपने देश पर अपनी हुकूमत के लिए तैयार करके वापस चले जायें. वरना बार-बार 1857 होगा और सभ्यता, संस्कृति, व्यापार व उद्योग सबको नष्ट कर डालेगा.

1871 में तत्कालीन वायसराय मेयो ने पहली बार कृषि विभाग बनाया तो ह्यूम को उसका सचिव बनाया. लेकिन इससे पहले कि ह्यूम देश के त्रस्त किसानों के लिए कुछ कर पाते, मेयो की हत्या कर दी गयी और उनकी सारी कृषि योजनाएं सरकारी उदासीनता व अंग्रेज उद्योगपतियों के विरोध की भेंट चढ़ गईं. तब ह्यूम ने नये वायसराय नार्थब्रुक्स को चेतावनी दी थी कि किसानों का गुस्सा ऐसे ही बढ़ता रहा तो एक दिन वायसराय की बग्घी के नीचे आया एक छोटा-सा रोड़ा भी उसे पलट देगा.

बाद में ‘सबसे विलासी’ कहे जाने वाले वायसराय लिटन ने सूती कपड़े के आयात पर शुल्क हटाया तो ह्यूम को इस आशंका में उनके पद से हटा दिया कि वे इसका कड़ा विरोध करेंगे. इससे अपमानित महसूस कर रहे ह्यूम ने समय पूर्व सेवानिवृत्ति ले ली और जैसा कि पहले बता आये हैं, रौथनी काॅसल में रहने लगे.

1882 में वे ‘भारतहितकारी’ वायसराय लॉर्ड रिपन की लोकल सेल्फ गवर्नमेंट योजना के तहत वे शिमला म्यूनिसिपैलिटी के वाइसचेयरमैन का चुनाव जीते तो वहां उनके नाम पर एक बड़ा अस्पताल बनवाया गया, जिसे बाद में दीनदयाल उपाध्याय का नाम दे दिया गया.

बाद में रिपन और भारतीयों के बीच संवाद सेतु बनने पर वे कांग्रेस की स्थापना के प्रयत्नों में रिपन को भी साथ लेने में सफल रहे. रिपन के ही चलते नये वायसराय डफरिन भी, जो आगे चलकर ह्यूम के कट्टर आलोचक बन गये, इन प्रयत्नों में बाधक नहीं बने. मुम्बई में कांग्रेस के स्थापना सम्मेलन में ह्यूम को छोड़कर उसके सारे प्रतिनिधि भारतीय थे, जो भले ही एक दूजे से अपरिचित थे, ह्यूम उन सबको जानते थे.

16 फरवरी, 1892 को कांग्रेस के सचिव की हैसियत से प्रदेश कांग्रेस कमेटियों को स्वराज के पक्ष में लिखे गोपनीय पत्र में ह्यूम ने चेताया था कि स्वराज नहीं मिला तो देर-सवेर बड़े हिंसक उपद्रव होंगे. पत्र लीक हो गया और अंग्रेजों ने उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया तो सबसे दुःखद यह था कि कांग्रेसी भी उन्हें गलत ठहरा रहे थे.

31 जुलाई, 1912 को ह्यूम ने लंदन में बेहद खामोशी से अंतिम सांस ली और चिरनिद्रा में विलीन हो गये.

(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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