नई दिल्ली: “क्या आप (संयुक्त राष्ट्र) महासचिव का चुनाव लड़ने में रुचि रखते हैं?” यह सवाल 2005 में न्यूयॉर्क में उस समय के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शशि थरूर से पूछा था. उस वक्त थरूर संयुक्त राष्ट्र में अंडर-सेक्रेटरी-जनरल के पद पर कार्यरत थे और उन्होंने बाद में स्वीकार किया कि यह सवाल सुनकर वह थोड़ा चौंक गए थे.
1978 से संयुक्त राष्ट्र में कई भूमिकाओं में सेवा दे चुके थरूर को लगता था कि उनका “पूरा कार्य जीवन जैसे इस संगठन के शीर्ष पद की तैयारी रहा है.” फिर भी, उन्हें यह मानने का कोई कारण नहीं था कि उस वक्त भारत सरकार उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करने के लिए तैयार थी.
हालांकि भारत ने आखिरकार उन्हें 2006 के मध्य में इस पद के लिए नामित किया, लेकिन इसमें कुछ देरी हुई. थरूर दक्षिण कोरिया के बान की-मून से हार गए, जिनकी सरकार ने अपने उम्मीदवार के लिए आक्रामक प्रचार किया था. लेकिन थरूर की उम्मीदवारी के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा अमेरिका बना.
“तीन वजहें—कोरिया के साथ द्विपक्षीय संबंध, भारत की ओर से समर्थन में विश्वास की कमी की धारणा, और बुश प्रशासन की यह इच्छा कि कोफी अन्नान जैसे ‘मजबूत’ महासचिव को दोहराया न जाए—इन सबने मिलकर अमेरिका के वीटो का कारण बना जो मेरी उम्मीदवारी को रोक गया,” उन्होंने 2016 में ओपन मैगज़ीन में लिखा था.
दो दशक बाद, एक तरह के विडंबनापूर्ण मोड़ में, थरूर अब एक ऐसे विवाद में घिरे हैं जिसमें कूटनीतिक रंग भी हैं. वही कांग्रेस पार्टी जिसने कभी उन्हें वैश्विक राजनय के सर्वोच्च पद के लिए आगे बढ़ाया था, अब केंद्र सरकार द्वारा उन्हें ऑपरेशन सिंदूर के तहत विभिन्न देशों की राजधानियों में जा रही बहुदलीय प्रतिनिधिमंडल का नेता बनाए जाने पर उदासीन है.
इसी कारण शशि थरूर इस हफ्ते दिप्रिंट के ‘न्यूज़मेकर ऑफ द वीक’ बने हैं.
कांग्रेस में शशि थरूर—अविश्वास की गाथा
2006 में संयुक्त राष्ट्र महासचिव की दौड़ हारने के बाद, शशि थरूर ने भारत में ज्यादा समय बिताना शुरू किया और कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. 2009 के आम चुनावों में केरल के तिरुवनंतपुरम से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस ने उन्हें विदेश राज्य मंत्री का पद दिया. थरूर तब से लगातार चार बार यह सीट जीतते आए हैं.
2015 में थरूर ने दावा किया था कि जब वह संयुक्त राष्ट्र की नौकरी के बाद अपने विकल्पों पर विचार कर रहे थे, तब उन्हें बीजेपी और वामपंथी पार्टियों की तरफ से भी ऑफर मिला था. लेकिन उन्होंने कांग्रेस को इसलिए चुना क्योंकि जैसा कि उन्होंने 2009 में कहा था, “आर्थिक रूप से मेरा वामपंथी विचारधारा से कोई मेल नहीं है. जो लोग सालों से मेरा लेखन पढ़ते आए हैं, वे जानते हैं कि मेरा उस सांप्रदायिकता से भी कोई मेल नहीं जो दुर्भाग्यवश भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोगों द्वारा प्रोत्साहित की गई… और इसी वजह से कांग्रेस पार्टी मेरे लिए सही विकल्प है.”
फिर भी, पार्टी के कुछ नेताओं की नजर में थरूर की कांग्रेस के प्रति निष्ठा शुरू से ही संदिग्ध रही है. 2014 के आम चुनावों में कांग्रेस की हार के कुछ दिन बाद नरेंद्र मोदी की तारीफ में दिए गए उनके बयान ने बीते एक दशक में कई ऐसे बयानों की शुरुआत की, जिससे यह धारणा और मजबूत हुई.
हफपोस्ट में एक लेख में थरूर ने लिखा कि जैसे मोदी ने खुद को “नफरत के प्रतीक से आधुनिकता और प्रगति के अवतार” में बदला, वैसे ही वह बीजेपी को “हिंदू वर्चस्ववाद के माध्यम” से “एक स्वाभाविक शासक दल” में बदलने की कोशिश कर रहे हैं.
उन्होंने आगे लिखा: “मेरे जैसे विपक्षी सांसद के लिए यह बचकाना होगा कि मैं मोदी 2.0 की समावेशी पहल की अनदेखी करूं और उनके ज्यादा सुलझे बयानों और कदमों का स्वागत न करूं. लेकिन जैसे ही वह मोदी 1.0 की तरह कोई बांटने या सांप्रदायिक बात करेंगे, हम उनका मजबूती से विरोध करेंगे। भारत की जनता और इसकी बहुलतावादी लोकतंत्र इससे कम की हकदार नहीं है.”
पार्टी सहयोगियों की आलोचना के बाद थरूर ने कांग्रेस और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को पार्टी के संचार विभाग को लिखे एक पत्र में दोहराया. उन्होंने लिखा: “किसी खास बात के लिए उनकी (मोदी की) तारीफ करके हम जनता की अपेक्षाएं तय करने में मदद करते हैं और भविष्य में उनके आचरण को परखने के लिए एक मानक खड़ा करते हैं.”
हालांकि, इससे यह धारणा दूर नहीं हो सकी कि थरूर कांग्रेस में फिट नहीं बैठते. जैसा कि कांग्रेस महासचिव (संचार) जयराम रमेश ने पिछले महीने मीडिया से बातचीत में कहा था, “कांग्रेस में होना और कांग्रेस का होना, इन दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है.”
साथ ही, कांग्रेस नेतृत्व मानता है कि थरूर के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई उल्टा असर डाल सकती है. एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने दिप्रिंट से कहा, “शहरी भारत में उनकी लोकप्रियता पार्टी के ध्यान से ओझल नहीं है.” खासकर तब जब केरल—उनका गृह राज्य—एक साल से भी कम समय में विधानसभा चुनावों की ओर बढ़ रहा है.
थरूर की टिप्पणी—कांग्रेस द्वारा तथ्य-जांच
असल में, कांग्रेस हाईकमान के करीबी पार्टी के एक वर्ग को इस बात से नाराज़गी थी कि थरूर ने ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर केंद्र सरकार के निमंत्रण को स्वीकार कर लिया और एक बहुदलीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया, वो भी पार्टी नेतृत्व की अनुमति लिए बिना. यात्रा के दौरान उनके सार्वजनिक बयानों ने इस नाराज़गी को और बढ़ा दिया.
29 मई को पनामा में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए थरूर ने कहा कि 2016 में “पहली बार भारत ने भारत-पाकिस्तान के बीच नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार की और आतंकवादियों के अड्डे पर सर्जिकल स्ट्राइक की.” उन्होंने आगे कहा, “यहां तक कि कारगिल युद्ध के दौरान भी हमने एलओसी पार नहीं की थी; लेकिन उरी में हमने किया. फिर पुलवामा हमला हुआ… इस बार हमने न केवल एलओसी पार की बल्कि अंतरराष्ट्रीय सीमा भी पार कर बालाकोट में आतंकियों के मुख्यालय पर हमला किया.”
“और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि यही अब नया सामान्य (न्यू नॉर्मल) है. प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कर दिया है कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ जरूरी था क्योंकि इन आतंकियों ने 26 महिलाओं की मांग का सिंदूर मिटा दिया,” उन्होंने कहा.
थरूर के इन बयानों से कांग्रेस नेतृत्व इतना नाराज़ हुआ कि उसने पार्टी नेता उदित राज के बयान का समर्थन कर दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि थरूर को बीजेपी का प्रवक्ता बन जाना चाहिए. उदित राज विवादास्पद बयानों के लिए जाने जाते हैं. थरूर ने पलटवार करते हुए अपने आलोचकों को “कट्टरपंथी” और “ट्रोल” बताया.
कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा, जो राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं, ने तुरंत थरूर की अपनी ही किताब से अंश निकालकर उनके बयान में विरोधाभास दिखाया. अपनी 2018 की किताब पैराडॉक्सिकल प्राइम मिनिस्टर में थरूर ने लिखा था कि कांग्रेस सरकार ने कई बार सीमापार सर्जिकल स्ट्राइक को मंजूरी दी थी, लेकिन उन्हें कभी राजनीतिक रूप से भुनाया नहीं गया—यह बात उनके इस दावे का खंडन करती है कि मोदी सरकार में 2016 में पहली बार भारत ने एलओसी पार की.
थरूर ने किताब में लिखा था, “2016 में पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा पर की गई ‘सर्जिकल स्ट्राइक्स’ और म्यांमार में विद्रोहियों के खिलाफ की गई सैन्य कार्रवाई का बेशर्मी से चुनावी फायदा उठाना—जो कांग्रेस ने कभी नहीं किया, हालांकि उसने पहले भी कई ऐसी स्ट्राइक्स की थी—राष्ट्रीय सुरक्षा मामलों में विवेक और गैर-राजनीतिक रुख की भावना के घोर पतन का संकेत था.”
फिलहाल कोलंबिया में मौजूद थरूर ने अभी तक खेड़ा को जवाब नहीं दिया है. हालांकि, 2018 में अपनी किताब के परिचय में किया गया उनका एक ट्वीट उल्लेखनीय है.
“मेरी नई किताब, दि पैराडॉक्सिकल प्राइम मिनिस्टर, सिर्फ 400 पेज की आलोचना नहीं है,” थरूर ने एक्स पर लिखा था, यह बताते हुए कि किताब प्रधानमंत्री की आलोचना से कहीं बढ़कर है. शायद पवन खेड़ा को यह ध्यान में रखना चाहिए.
यह लेखक के निजी विचार हैं.
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