ठेठ केसरिया पार्टी शिवसेना से किसी ने शायद ही उम्मीद की होगी कि वह कांग्रेस और एनसीपी की बैसाखियों के सहारे सत्ता पर काबिज हो जाएगी. क्योंकि दोनों ही दल चार दशकों से भी अधिक समय से महाराष्ट्र की राजनीति में केसरिया ब्रिगेड के कट्टर दुश्मन रहे हैं.
और यही कारण है कि गुरुवार को शिवसेना ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में उद्धव ठाकरे के शपथ ग्रहण के लिए शिवाजी पार्क में एक भव्य समारोह का आयोजन किया. इसके जरिए हिंदू हृदय सम्राट बाला साहेब ठाकरे के बेटे को अपने पार्टी समर्थकों को आश्वस्तकारी संकेत देना था कि विभिन्न विचारधाराओं के गठबंधन में होने के बावजूद हिंदुत्व की उनकी विचारधारा में कोई बदलाव नहीं आया है. ‘पाया कुछ नहीं, गंवाया सब कुछ’ की कहावत अब उन पर अच्छे से लागू होती है.
मैं उन्हें शुभकामनाएं देता हूं, पर लगता नहीं कि महाराष्ट्र की यह सरकार छह महीने भी चल पाएगी.
शिवसेना दूसरों के कारण हासिल इस सुअवसर का लुत्फ उठा सकती है, पर ऐसा ज़्यादा दिन तक चलेगा नहीं. शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस सरकार शायद अधिक दिनों तक नहीं टिक पाएं, और ऐसा इसलिए नहीं कि ये भाजपा की ख्वाहिश है. दरअसल गठबंधन राजनीति की खींचतान नकली गठबंधन को अधिक दिनों तक टिके रहने का अवसर नहीं देती है. ये कांग्रेस के हित में नहीं है कि वह शिवसेना के साथ सत्ता में साझेदारी कर अपना वोट बैंक या बचा-खुचा जनसमर्थन गंवा दे. बेहद अप्रत्याशित व्यवहार वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) भी शायद लंबे समय तक शिवसेना के साथ नहीं रहना चाहेगी क्योंकि इससे उसके वोट शेयर और राज्य में आर्थिक एवं प्रशासनिक प्रभुत्व के कम पड़ने का खतरा रहेगा.
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महाराष्ट्र की राजनीति में जब तक शरद पवार का प्रभुत्व है, कम-से-कम तब तक राज्य में राजनीतिक दांव-पेच का पूर्वानुमान लगाना मौसम की भविष्यवाणी करने से भी अधिक कठिन है. पिछले कुछ दिनों में वह एकाधिक बार साबित कर चुके हैं कि ‘महाराष्ट्र में सरकार के गठन में अंतत: पवार साहब की ही चलेगी.’
प्रतिद्वंद्वियों को कम नहीं आंकें
महाराष्ट्र के राजनीतिक प्रकरण में सभी पार्टियों के लिए कई महत्वपूर्ण सबक हैं.
ऐसा लगता है कि भाजपा ने शुरू से ही गलत चाल चली. विधानसभा चुनावों से पहले एक सहकारी बैंक घोटाले के संबंध में शरद पवार को ईडी की नोटिस मिलने पर पार्टी की खुशी छुपाए नहीं छुप रही थी. हालांकि, मीडिया से बातचीत में भाजपा के प्रवक्ताओं ने यही कहा कि ‘ईडी ने प्रक्रियागत नियमों के तहत कार्रवाई की है’
पर मराठा दिग्गज को ये पसंद नहीं आया.
इसके बाद भाजपा ने उनके विश्वस्त सहयोगियों में से एक उदयनराजे भोसले को तोड़ लिया. एनसीपी सांसद का पद छुड़वा कर उन्हें भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा दिया गया. लेकिन पवार ने ये सुनिश्चित किया कि भोसले को हार का स्वाद चखना पड़े.
और फिर, एक बड़ी सियासी कलाबाज़ी दिखाते हुए चुनाव के बाद की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने पवार के भतीजे अजीत को उपमुख्यमंत्री बना दिया. इसकी त्वरित प्रतिक्रिया में पवार ने पहले अपने विधायकों की एकजुटता सुनिश्चित की और 48 घंटों के भीतर पासा पलट दिया. भटका हुआ भतीजा एनसीपी में वापस आ गया, जिसे अंतत: पवार के खेमे में फिर से शामिल कर लिया जाएगा.
भाजपा के लिए सबसे बड़ा सबक ये है कि उसे अपने राजनीतिक विरोधियों की ताकत – प्रत्यक्ष और अप्रकट दोनों ही – को कम नहीं आंकना चाहिए.
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कांग्रेस को तो महाराष्ट्र में लगभग खारिज किया जा चुका था और उसका कोई बड़ा नेता नज़र नहीं आ रहा था. साथ ही, ये भी स्पष्ट था कि कई मुद्दों पर पार्टी के राज्य और राष्ट्रीय नेतृत्वों में सहमति नहीं थी.
फिर भी, एनसीपी के साथ उसके गठबंधन ने अहम मराठा वोटों का विभाजन नहीं होने दिया. परिणामस्वरूप, दोनों ही दलों ने 2014 की तुलना में न सिर्फ अपनी ज़मीन को बचाए रखा, बल्कि सीटों की संख्या में मामूली वृद्धि भी दर्ज की.
भाजपा को नई रणनीति बनानी होगी
मौजूदा नेताओं को अपने पाले में लाने और मामूली नेताओं को आगे बढ़ाने जैसे कदम पवार के गढ़ पर धावा बोलने में भाजपा के काम नहीं आएंगे.
भाजपा के लिए सबक है– सही समय का इंतजार करो, पर विश्वास बढ़ाने के उपायों के जरिए पश्चिमी महाराष्ट्र में अपनी स्थिति मजबूत करते जाओ. साथ ही, पार्टी को पुराने मित्रों को साथ रखते हुए नए मित्र बनाने के गुर भी सीखने पड़ेंगे.
भाजपा शिवसेना और एनसीपी दोनों को साथ लेकर एक नया गठबंधन बना सकती थी. इसके कारण कुछेक अहम पद भले ही हाथ से निकल जाते, पर इस समय भाजपा के लिए सत्ता में बने रहना अहम था, खासकर झारखंड में हो रहे चुनाव को देखते हुए.
भाजपा को आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि अन्य राज्यों में भी उसके कतिपय सहयोगी अपने रुख में बदलाव पर विचार करने लगें. भले ही ऐसा रातोंरात नहीं हो, पर राजनीतिक पुनर्ध्रुवीकरण शीघ्रता से हो सकता है.
सिद्धांत बनाम व्यावहारिकता
भाजपा और शिवसेना ने हमेशा दलबदलुओं के अबाध प्रवेश के लिए अपने दरवाज़े खुले रखे हैं. भाजपा के मौजूदा सदस्यों में आधे ‘बाहरी’ हैं जो गैर-वैचारिक कारणों से 2014 में या उसके बाद पार्टी में शामिल हुए थे.
इन दलबदलुओं के दोबारा अपने मूल दलों में लौटने में किसी तरह की बाधा नहीं है. कैडर आधारित और मजबूत वैचारिक धरातल वाली किसी पार्टी के लिए सुविधा और राजनीतिक लाभ के वास्ते सिद्धांतों से समझौता करना हमेशा मुश्किल होता है. पर भाजपा को इस बात का अहसास होना चाहिए कि राजनीति में सिद्धांत और व्यावहारिकता एक ही सिक्के के दो पहलू नहीं हैं. दोनों एक-दूसरे के समानांतर चलते हैं.
एनसीपी और कांग्रेस के लिए भी आसान फैसला नहीं
कांग्रेस के लिए शिवसेना की अगुआई वाली सरकार का साथ देना अस्तित्व बनाए रखने के लिए गले में बोझ टांगने के समान है.
एनसीपी से गठबंधन के कारण कांग्रेस कार्यकर्ता एनसीपी का गढ़ माने जाने वाली सीटों पर स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकेंगे. पार्टी आगे भी एनसीपी के, और अब शिवसेना के भी, निर्देशानुसार चलेगी जिससे निष्ठावान कार्यकर्ताओं को निराशा होगी.
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कांग्रेस को कांग्रेस-एनसीपी विलय के सपने देखना बंद कर देना चाहिए – पवार महाराष्ट्र में ऐसा नहीं होने देंगे, हालांकि वह जानते हैं कि एनसीपी की अखिल भारतीय पहुंच सीमित है.
लेकिन एनसीपी भी एकल नेतृत्व वाली पार्टी है. पार्टी के पास कोई द्वितीयक नेतृत्व, कैडर आधार या वैचारिक धरातल नहीं है. एनसीपी पवार और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी के बीच अहं के टकराव के चलते अस्तित्व में आई थी. शरद पवार द्वारा स्थापित कृषि-आर्थिक संगठनों, चीनी सहकारी समितियों और ग्रामीण बैंकों का जाल शायद आगे लंबे समय तक राजनीतिक संरक्षण के काम नहीं आ सके.
पवार को अपनी सीमाओं का अहसास है, और उनका खुद का मानना है कि ये कांग्रेस में नई जान फूंकने का अवसर है, लेकिन उन्होंने गांधी परिवार को आगाह किया है कि वह नेतृत्व के मुद्दे को तयशुदा नहीं माने.
महाराष्ट्र की राजनीति ने साबित कर दिया है कि हर पार्टी के तरकश में कई तीर हैं. और, कोई नहीं जानता कि अगला तीर कौन छोड़ेगा.
(लेखक भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारी समिति के सदस्य हैं. पूर्व में वह ऑर्गनाइज़र के संपादक रह चुके हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)
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