वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चीनी अतिक्रमण के खिलाफ भारतीय सेना के सख्त जवाब और फिर विस्तारवाद को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चेतावनी के बाद चीन पीछे हटने की प्रक्रिया शुरू करने पर बाध्य हो गया. भारत की प्रतिक्रिया ने चीन की बड़ी सावधानी से गढ़ी ‘अपराजेयता’ वाली छवि को तोड़ दिया और वह लद्दाख की गलवान घाटी में अपने हताहत सैनिकों की संख्या बताने से भी बच रहा था.
लेकिन भारत की शांति और स्थिरता पर चीनी आक्रमण का खतरा अभी टला नहीं है.
ऐसी संभावना है कि चीनी सैनिक अब मात्र 1,500 मीटर दूर यानि 3 किलोमीटर के अस्थायी बफ़र जोन के दूसरे सिरे पर जमे रहेंगे. साथ ही उनके तोप और टैंक थोड़ा और पीछे तैनात रखे जाएंगे ताकि ज़रूरत पड़ने पर उन्हें आगे लाया जा सके. ये स्थिति जुलाई 1962 में गलवान में हुए संघर्ष के बाद की स्थिति जैसी ही है. तब वे तीन महीने बाद बड़े दलबल के साथ वापस आगे बढ़े थे और भारतीय रक्षा पंक्ति को रौंद दिया था.
भारत को चाहिए कि वह अपने खिलाफ किसी भी सैन्य कार्रवाई और हस्ताक्षरित समझौतों से पीछे हटने की एवज में चीन के लिए दांव काफी बढ़ा दे. महाशक्ति का दर्जा हासिल करने की दिशा में बढ़ते चीन के पीछे हटने की उम्मीद नहीं है क्योंकि ऐसा करने से उसकी इज़्ज़त पर बट्टा लगेगा.
ये तो स्पष्ट है कि चीन ने गलवान घाटी और लद्दाख के अन्य इलाकों में अपनी सेना के ज़ोर पर नियंत्रण करने का फैसला कोई अचानक नहीं किया था, बल्कि उसके लिए पूर्व तैयारी की गई और शी जिंपिंग सरकार के उच्चतम स्तर से उसके लिए हरी झंडी दी गई. चीन ने सीमा से कुछ किलोमीटर ही दूर सेना का बड़ा जमावड़ा किया था और इसके लिए लॉजिस्टिक्स और चिकित्सा संबंधी इंतजाम किए थे. हमें सावधानी से योजना बनानी चाहिए और सख्ती से चीन का प्रतिरोध और मुकाबला करना चाहिए.
यह भी पढ़ें: मोदी ने चीन पर अपने विवेक का इस्तेमाल किया क्योंकि भारत की वास्तविक विफलता रक्षा क्षमताओं में है
भारत चीन का सामना करने में सक्षम है
लद्दाख में मौजूदा गतिरोध में अभी तक चीन ही अपनी चला रहा है और भारत को घुड़की दे रहा है.
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल और चीन के विदेश मंत्री वांग यी की हाल की बातचीत के बाद कोई साझा बयान जारी नहीं किया गया. जहां भारत शीघ्र दोनों सेनाओं के पीछे हटने का हामी था, वहीं चीन ने ‘अपने क्षेत्र’ की हिफाज़त करने के अपने अधिकार पर ज़ोर दिया, जिसमें अब गलवान भी शामिल है. कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है लेकिन इसकी पहलकदमी चीन पर निर्भर करती है. करीब 2,000 किलोमीटर में फैले मोर्चे पर चीनी सेना भारत के खिलाफ कई अभियान छेड़ सकती है.
भारत संख्या बल में चीनी सेना का मुकाबला नहीं कर सकता लेकिन हमारे पास निश्चय ही लद्दाख में चीन द्वारा पेश तमाम चुनौतियों का सामना करने की क्षमता है.
चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी एयरफोर्स (पीएलए एएफ) का व्यापक आधुनिकीकरण किया गया है लेकिन उन्हें अभी तक किसी बड़े अभियान का अनुभव नहीं है. उसकी तुलना में, भारतीय वायुसेना (आईएएफ) की मारक क्षमता 1962 की बराबरी के मुकाबले कहीं अधिक है. आज हमारी तीनों सेनाओं– थल सेना, नौसेना और वायुसेना के बीच ऑपरेशनल योजनाओं को लेकर पहले दिन से ही पूर्ण सामंजस्य होता है. उल्लेखनीय है कि तीनों सेनाओं के प्रमुख नेशनल डिफेंस एकेडमी के एक ही बैच के हैं, जहां परस्पर सामंजस्य को बढ़ावा दिया जाता है.
कोरोनावायरस और आर्थिक सुस्ती से जुड़े व्यवधानों के बावजूद भारत की खुफिया क्षमताएं अच्छी हैं और निश्चय ही एलएसी और उससे परे चीनी गतिविधियों पर नज़र रखी जाएगी. यदि अमेरिका, यूरोप और बाकी देश भारत का समर्थन करना चाहें तो भी एक ठोस कार्य योजना बनाने में महीनों या वर्षों तक का समय लग सकता है.
एक चुनौतीपूर्ण क्षेत्र
लद्दाख पर्वतीय रेगिस्तानों, ग्लेशियरों और तेज बहाव वाली मौसमी नदियों वाला एक ‘बॉक्स’ है. यहां बड़ी सेनाएं नहीं रखी जा सकती हैं और यहां की परिस्थिति बड़ी चुनौतीपूर्ण है.
इस ‘बॉक्स’ में मौसम का अनुमान लगाना मुश्किल हो सकता है, ऊंचे पर्वतीय इलाकों में विमानों की रफ्तार कम हो जाती है, संचार तंत्र प्रभावित होता है, अच्छे हवाई अड्डों की सुविधा यहां से दूर है, संचालन संबंधी गंभीर बाधाएं हैं, इस तरह के इलाके में हथियारों की सटीकता प्रभावित होती है और ऑन-बोर्ड आपात स्थितियों से निपटना चुनौतीपूर्ण हो जाता है. ऐसे में विमानों के चालक दल के तनाव का स्तर काफी बढ़ सकता है.
ऐसे वातावरण में रात में उड़ान भरना सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण होता है. आईएएफ को पता होगा कि पीएलए वायुसेना ‘बॉक्स’ में किन साज़ोसामान की तैनाती कर सकती है. हमारे लड़ाकू विमान, चालक दल और साज़ोसामान उनकी मशीनों का अच्छे से मुकाबला कर सकते हैं. इस ‘बॉक्स’ के भीतर भारत हवा और ज़मीन से एक प्रभावी संयुक्त अभियान चला सकता है– जिनमें ज़ोरदार आक्रामक अभियान भी शामिल है.
लद्दाख की तरह ही एलएसी पर और भी इलाके हैं जो ‘बॉक्स’ कहे जा सकते हैं और हर ‘बॉक्स’ की अपनी अलग विशेषताएं और संबंधित तौर-तरीके होते हैं.
यह भी पढ़ें: उत्तर प्रदेश भारत की कमजोर कड़ी है, इसे चार या पांच राज्यों में बांट देना चाहिए
भारत के लिए अपेक्षित कदम
चीन कभी जल्दबाज़ी नहीं दिखाता है, उसकी रणनीति टुकड़ों-टुकड़ों में और विभिन्न स्तरों पर वार्ताओं के लंबे दौर चलाकर प्रतिद्वंदी को थकाने की होती है, जिसका उद्देश्य होता है संबंधित तनाव और फोकस को कम करना. भारत को याद रखना चाहिए कि 1962 का युद्ध भले ही लगभग छह दशक पहले हुआ था लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दे अभी भी अनसुलझे हैं. हमारी सीमाओं के निर्धारण का काम अभी तक नहीं हुआ है.
चूंकि चीनी खतरे के निकट भविष्य में दूर होने की संभावना नहीं है, इसलिए भारत को व्यापक स्तर पर योजनाएं बनानी चाहिए.
सर्वप्रथम और सबसे महत्वपूर्ण, हमें एलएसी तक पहुंच की सुविधाओं को बेहतर बनाना होगा. हम जिस रफ्तार से सड़क बना रहे हैं उसे दोगुना करने और हिमालयी क्षेत्रों में रेल परियोजनाओं का विस्तार करने की ज़रूरत है. इस पर काम चल रहा है पर बहुत धीमी गति से.
हमें बड़ी संख्या में हवाई पट्टियां भी बनानी होगी जहां कि मालवाहक विमान और हेलीकॉप्टर उतर सकें. ये शीघ्रता से सैनिकों और साज़ोसामान को पहुंचाने के लिए और आधारभूत सुविधाओं के रखरखाव के लिए ज़रूरी हैं. हमारे विमान निर्माताओं को प्राथमिकता के आधार पर ऐसे विमान डिज़ाइन और विकसित करने चाहिए जो कि साज़ोसामान, यात्रियों और अन्य रसद सामग्री को ऊंचाई वाले इलाकों में निर्मित हवाई पट्टियों पर उतार सके.
इसके अलावा नागर विमानन महानिदेशालय (डीजीसीए) के नियमों-प्रावधानों को पूरी तरह बदलने की ज़रूरत है. पहाड़ी इलाकों में हवाई परिवहन की सुविधा बस सेवाओं जैसी सामान्य सुविधा बननी चाहिए. संपूर्ण हिमालयी इलाके में गैस और तेल पाइपलाइनों का जाल बिछना चाहिए. व्यवसाय जगत की प्रतिभाओं को वहां ऐसे आर्थिक क्रियाकलापों पर काम करना चाहिए जो कि हमारे विनिर्माण प्रयासों के लिए आवश्यक हैं. इस संबंध में खनन एक विकल्प हो सकता है.
भारत को इन इलाकों में अस्पतालों और उनसे संबद्ध सुविधाओं का भी निर्माण करना होगा. पर्यटन पर्वतीय क्षेत्रो में हमारे जीवन को बदल कर रख सकता है. हम सैंकड़ो जगहों पर हाइकिंग पार्क बना सकते हैं, ग्रैंड कैनियन जैसे आकर्षण ढूंढे जाने चाहिए जो कि इलाके के प्राकृतिक सौंदर्य को बरकरार रखते हुए हज़ारों की संख्या में एडवेंचर के शौकीनों और पर्यटकों को आकर्षित कर सके. ये सब हासिल करने के लिए हमें खुद पर भरोसा करना होगा.
यह भी पढ़ें: संयुक्त राष्ट्र हो या कोरोना का मामला, नरेंद्र मोदी बार-बार बुद्ध का नाम क्यों लेते हैं
शत्रु को पीछे धकेलने का समय
मैंने 1963 में सेना के साथ कुछ महीने बिताए थे और लद्दाख में तैनात सैनिकों के साथ खूब घूमा था. लेह का इलाका तब एक रेगिस्तान की तरह था– हरियाली का नामोनिशान नहीं. चांगला का मार्ग तैयार नहीं हुआ था. चुशुल का हराभरा और सपाट इलाका फुटबॉल के मैदान जैसा दिखता था, जहां इस्पात की पट्टी पर हमारा सी-119 पैकेट विमान उतरा करता था.
लेकिन लेह और आसपास का इलाका आज पूरी तरह बदल चुका है. यहां की आबादी बहुत बढ़ी है और इमारतों की संख्या में भी काफी इजाफा हुआ है. यहां तक कि यहां खेती भी होने लगी है जिसकी 1963 में कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. हमने खूब विकास किया है और हम कहीं अधिक प्रगति कर सकते हैं. राजनीतिक तकरारों और टेलीविज़न बहसों में हमारी ऊर्जा व्यर्थ जाती है. ये सब बंद होना चाहिए. हमें प्रगति के बारे में, भारत को अधिक समृद्ध बनाने के विषय में नए विचारों और तरीकों पर सोचने और बहस करने की ज़रूरत है. हमें राजनीतिक नारे नहीं चाहिए. ये काम जनता पर छोड़ते हुए यदि हम नए अवसर पैदा करेंगे, तभी भारत निखर सकेगा. चीनी धीरे-धीरे गायब होने लगेंगे, अपने तंबू उखाड़ने लगेंगे.
भारत युद्ध नहीं चाहता है लेकिन हम अपनी ज़मीन एक आक्रामक शत्रु को नहीं सौंप सकते. मुगलों और ब्रितानियों की दासता भोग चुकने के बाद, अब हमें वर्चस्ववाद का सख्त प्रतिकार करना चाहिए. यदि हमने चीन के घृणित इरादों को नाकाम नहीं किया या अपने प्रयासों में पीछे रहे तो भावी पीढ़ियां हमें माफ नहीं करेंगी. हमें दृढ़ता के साथ डटे रहना चाहिए और यदि युद्ध लड़ना पड़ता है तो हम एकजुट होकर लड़ेंगे.
(लेखक सेवानिवृत्त एयर चीफ मार्शल हैं जो 2001-2004 के दौरान भारतीय वायुसेना के प्रमुख थे. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
भारत को अपनी संप्रभुता बरकरार रखने के लिए चीन का मुकाबला जरूर करना चाहिए और खुद को तैयार करने में भी कोई कोर कसर नहीं छोड़नी चाहिए। चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता वह पूर्व में भी भारत के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई कर चुका है इसीलिए हमें अपनी सीमाओं पर ना सिर्फ सैन्य बैल बढ़ाने की जरूरत है बल्कि सीमा पर डटे जवानों का उत्साह बढ़ाने और उन्हें जरूरी साजो सामान मुहैया कराने के लिए भी कदम उठाने की जरूरत है।