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Sunday, 3 November, 2024
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पाकिस्तान से ज्यादा खतरनाक है चीन- क्या लोहिया, जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सिंह की ये चेतावनी भूल गई है भारत सरकार

सीमावर्ती इलाकों में चीन की मौजूदा हरकतें देश के रक्षा मंत्री रहे दिवंगत समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस की उस चेतावनी की याद दिलाता है, जिसमें उन्होंने चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था.

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इन दिनों लद्दाख और सिक्किम से सटी भारत-चीन सीमा पर सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. इन इलाकों में चीन ने न सिर्फ अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी है बल्कि उसकी वायु सेना के हेलीकॉप्टर भी लगातार आसमान में मंडरा रहे हैं. उधर नेपाल ने भी तिब्बत और चीन से सटी सीमा पर भारत के लिपुलेख, कालापानी और लिम्पियाधूरा इलाके को अपने नए राजनीतिक नक्शे में शामिल कर एक नए विवाद को जन्म दे दिया है. माना जा रहा है कि नेपाल ने भी यह दुस्साहस चीन की शह पर ही किया है.

नेपाल की यह कार्रवाई और चीनी सैनिकों की ओर से उकसाने वाली गतिविधियों में अचानक आई तेजी बता रही है कि चीनी नेतृत्व सीमा पर बेवजह तनाव पैदा कर भारत को बड़ी परेशानी में डालना चाह रहा है. उसे लग रहा है कि भारत इन दिनों कोरोना महामारी से निपटने में लगा है इसलिए ऐसे में फिर से मोर्चा खोलकर उसे सीमाओं पर उलझाया जा सकता है और इसकी आड़ में अपने हितों के लिए दबाव बनाया जा सकता है.

चीन को लेकर जॉर्ज फर्नांडीस की चेतावनी

चीन का यह रवैया देश के रक्षा मंत्री रहे दिवंगत समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस की उस चेतावनी की याद दिलाता है, जिसमें उन्होंने चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था. बात करीब दो दशक पुरानी है. तब भी केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी उसका नेतृत्व कर रहे थे.

मई 1998 में वाजपेयी सरकार ने पोखरन टू परमाणु परीक्षण किया था, जिसकी वजह से अमेरिका ने भारत को ब्लैक लिस्ट में डाल दिया था. उस विस्फोट के बाद ही एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस ने अपने एक चौंकाने वाले बयान में सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था. जार्ज का यह बयान निश्चित ही किन्हीं ठोस सूचनाओं पर आधारित रहा होगा, जो रक्षा मंत्री होने के नाते उन्हें हासिल हुई होगी. लेकिन यह बयान कई लोगों को रास नहीं आया था. उनके ही कई साथी मंत्रियों ने उनके इस बयान पर नाक-भौं सिकोड़ी थी. आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे ही नहीं, बल्कि एनडीए की नेतृत्वकारी भारतीय जनता पार्टी और उसके पितृ संगठन राष्टीय स्वयंसेवक संघ को भी जार्ज का यह बयान नागवार गुजरा था. वामपंथी दलों को तो स्वाभाविक रूप से जार्ज की यह साफगोई नहीं ही सुहा सकती थी, सो नहीं सुहाई थी.


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आरएसएस और वामपंथियों का समान रुख

यह दिलचस्प था कि संघ और वामपंथियों के रूप में दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाली ताकतें इस मुद्दे पर एक सुर में बोल रही थीं, ठीक वैसे ही जैसे दोनों ने अलग-अलग कारणों से 1942 में ‘भारत छोडो’ आंदोलन का विरोध किया था. जार्ज के इस बयान के विरोध के पीछे भी दोनों की प्रेरणाएं अलग-अलग थीं. संघ परिवार जहां अपनी चिर-परिचित मुस्लिम विरोधी ग्रंथी के चलते पाकिस्तान के अलावा किसी और देश को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं मान सकता था, वहीं वामपंथी दल चीन के साथ अपने वैचारिक बिरादराना रिश्तों के चलते जार्ज के बयान को खारिज कर रहे थे. कई तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों और विश्लेषकों समेत मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी इसके लिए जार्ज की काफी आलोचना की थी.

जार्ज अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन चीन को लेकर उनका आकलन समय की कसौटी पर बीते दो दशकों के दौरान कई बार सही साबित हुआ है. इस समय भी चीन का रवैया जॉर्ज के कहे की तसदीक कर रहा है.

रक्षा मंत्री मुलायम सिंह ने किया था आगाह

वैसे न तो चीनी खतरा भारत के लिए नया है और न ही उससे आगाह करने वाले जार्ज अकेले राजनेता रहे. 2017 में चीन की सेना जब डोकलाम में कई किलोमीटर अंदर तक घुस आई थी, तब संयुक्त मोर्चा सरकार में रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भी अपने पुराने अनुभव के आधार पर चीनी खतरे के प्रति सरकार को आगाह किया था. इस मसले पर लोकसभा में बहस के दौरान मुलायम सिंह ने दो टूक कहा था कि भारत की सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा चीन से ही है और सरकार उसे हल्के में न लें.

दरअसल, चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब से ही वह भारत के लिए खतरा बना हुआ है. देश को सबसे पहले इस खतरे की चेतावनी डॉ. राममनोहर लोहिया ने दी थी. तिब्बत पर चीनी हमले को उन्होंने ‘शिशु हत्या’ करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वे तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता न दें, लेकिन नेहरू ने लोहिया की सलाह मानने के बजाय चीनी नेता चाऊ एन लाई से अपनी दोस्ती को तरजीह देते हुए तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मानने में जरा भी देरी नहीं की.

नेहरू का जमाना और चीन

यह वह समय था जब भारत को आजाद हुए महज 11 वर्ष हुए थे और माओ की सरपरस्ती में चीन की लाल क्रांति भी नौ साल पुरानी ही थी. हमारे पहले प्रधानमंत्री नेहरू तब समाजवादी भारत का सपना देख रहे थे, जिसमें चीन से युद्ध की कोई जगह नहीं थी. उधर, माओ को पूरी दुनिया के सामने जाहिर करना था कि साम्यवादी कट्टरता के मामले में वे लेनिन और स्टालिन से भी आगे हैं. तिब्बत पर कब्जा उनके इसी मंसूबे का नतीजा था.

इतना सब होने के बावजूद लगभग एक दशक तक भारत-चीन के बीच राजनयिक रिश्ते अच्छे रहे. दोनों देशों के शीर्ष नेताओं ने एक-दूसरे के यहां की कई यात्राएं कीं. लेकिन 1960 का दशक शुरू होते-होते चीनी नेतृत्व के विस्तारवादी इरादों ने अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी और भारत के साथ उसके रिश्ते शीतकाल में प्रवेश कर गए. तिब्बत जब तक आजाद देश था, तब तक चीन और भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं था, क्योंकि तब भारतीय सीमाएं सिर्फ तिब्बत से मिलती थीं. लेकिन चीन द्बारा तिब्बत को हथिया लिए जाने के बाद वहां तैनात चीनी सेना भारतीय सीमा का अतिक्रमण करने लगी.


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उन्हीं दिनों चीन द्बारा जारी किए गए नक्शों से भारत को पहली बार झटका लगा. उन नक्शों में भारत के सीमावर्ती इलाकों के साथ ही भूटान के भी कुछ हिस्से को चीन का भू-भाग बताया गया था. चूंकि इसी दौरान भारत यात्रा पर आए तत्कालीन चीनी नेता चाऊ एन-लाई नई दिल्ली में पंडित नेहरू के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए शांति के कबूतर उडा चुके थे, लिहाजा भावुक भारतीय नेतृत्व को भरोसा था कि सीमा विवाद बातचीत के जरिए निपट जाएगा. मगर, 1962 का अक्टूबर महीना भारतीय नेतृत्व के भावुक सपनों के ध्वस्त होने का रहा, जब चीन की सेना ने पूरी तैयारी के साथ भारत पर हमला बोल दिया. हमारी सेना के पास सैन्य साजो-सामान का अभाव था, लिहाजा भारत को पराजय का कड़वा घूंट पीना पड़ा और चीन ने अपने विस्तारवादी नापाक मंसूबों के तहत हमारी हजारों वर्ग मील जमीन हथिया ली. इस तरह तिब्बत पर चीनी कब्जे के वक्त लोहिया द्वारा जताई गई आशंका सही साबित हुई.

चीन से मिले इस गहरे जख्म के बाद दोनों देशों के रिश्तों में लगभग डेढ़ दशक तक बर्फ जमी रही, जो 1970 के दशक के उत्तरार्ध में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनने पर कुछ हद तक हटी. दोनों देशों के बीच एक बार फिर राजनयिक रिश्तों की बहाली हुई. तब से लेकर अब तक दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते भी बने हुए हैं और पिछले दो दशकों के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार में भी 24 गुना इजाफा हो गया है. लेकिन इस सबके बावजूद चीन के विस्तारवादी इरादों में कोई तब्दीली नहीं आई है. कभी उसकी सेना हमारे यहां लद्दाख में घुस आती है, तो कभी सिक्किम में और कभी अरुणाचल में. अपने नक्शों में भी वह जब-तब इन इलाकों को अपना बता देता है. इस समय भी वह यही कर रहा है.

भारत सरकार को ये याद रखना चाहिए कि लोहिया, जॉर्ज फर्नांडीस और मुलायम सिंह जैसे समाजवादी नेताओं ने इस बारे में क्या कहा था.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

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2 टिप्पणी

  1. LAC पर भारत और चीन की करीब 3, 488 लम्बी सीमाएं हैं जो कभी भी स्प्ष्ट रूप से चिन्हित नहीं हुई हैं।इसी हजारों किमी में यहाँ – वहां चीन और भारत के सैनिक अतिक्रमण करते रहते हैं कभी जानबूझकर तो कभी अनजाने में। जब तक इस अचिन्हित सीमा का विवाद नहीं सुलझेगा तब तक दोनों तरफ के सैनिकों की आपस में हाथापाई या जबानी लड़ाई चलती रहेगी ।

  2. व्यंग …..आठवांन साल से देश के नेता चुनावी सतरंज खेलते रहे और पांडवो कि तरह देश की सुरक्षा को भी दाव पर लगा दिया . चीन ने अपने आप भारत की सीमा की सीमा में गुश्पैठ नहीं की है , देश के नेताओ ने देश की सुरक्षा को जानबूझ कर नजरअंदाज किया था /है .

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