‘ब्रिक्स’ की 16वीं वार्षिक शिखर बैठक रूस के कज़ान में 22 से 24 अक्टूबर 2024 के बीच संपन्न हुई. यह इसकी पहली बैठक थी जिसमें मिस्र, इथोपिया, ईरान, और यूएई को इसका सदस्य बनाया गया. इन देशों को पिछली शिखर बैठक में संगठन से जोड़ा गया था.
बहरहाल, पिछले दिनों इसकी बैठक से पहले कई तरह की अटकलें लगाई जा रही थीं कि बैठक के बीच चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सीधी बैठक से क्या कुछ निकलेगा. भारतीय विदेश मंत्रालय ने 21 अक्टूबर को इस आशय के कई बयान जारी किए कि सीमा पर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर सेनाओं की गश्त को लेकर एक समझौता होने जा रहा है. इन बयानों को जारी करने के लिए जो समय चुना गया उससे यही संकेत मिला कि शी-मोदी बैठक के लिए अनुकूल माहौल तैयार किया जा रहा था. दोनों पक्षों द्वारा पुष्टि किए जाने के बाद दोनों नेताओं की बैठक 23 अक्टूबर को हुई. पिछले पांच वर्षों में यह पहली बैठक थी और ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह थी कि पूर्वी लद्दाख में 2020 में हुए संकट के बाद यह पहली बैठक थी.
इसके लिए माहौल तब बनाया गया जब विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने डेप्सांग और डेमचोक इलाकों में भारतीय सेना को गश्त करने के अधिकार की वापसी के बारे में घोषणा कर दी. ये दो इलाके तब से विवाद के केंद्र बने जब वर्ष 2020 के पूर्वार्द्ध में चीनी सेना ने वहां की स्थिति को बदलने की नाकाम कोशिश की थी. ऐसा लगता है कि विवाद के इन दो मसलों का आपसी समझौते से निबटारा कर लिया गया है. यह स्वागतयोग्य है और यह हमारे संकल्प का परिचय देता है.
इस साल के शुरू में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘न्यूज़वीक’ पत्रिका को दिए इंटरव्यू में कहा था कि “…सकारात्मक तथा रचनात्मक बातचीत के जरिए… हम अपनी सीमाओं पर अमन-चैन की वापसी करेंगे और उसे टिकाऊ बना सकेंगे.” इसी तरह, विदेश मंत्री एस. जयशंकर कई बार कह चुके हैं कि जब तक सीमा विवाद का समाधान नहीं होगा, तब तक सामान्य स्थिति बहाल नहीं होगी. इस तरह यथासंभव साफ संदेश दे दिया गया था कि भारत तैयार तो है और मतभेदों को बातचीत से सुलझाने के लिए हमेशा तैयार रहा है, मगर वह अपने मूल हितों पर समझौता नहीं करेगा.
इस पृष्ठभूमि के साथ, ‘डब्लूएमसीसी’ के तहत सेना के स्तर पर कोर कमांडरों के बीच और कूटनीतिक कई वार्ताएं की गईं. ऐसी हर एक बैठक के बाद नियमित रूप से विज्ञप्ति जारी की जाती रही कि बातचीत सदभावनापूर्ण वातावरण में हुई और दोनों पक्ष साथ मिलकर काम करने को राजी हुए. इन रस्मी विज्ञप्तियों ने यही संकेत दिया कि बात बहुत आगे नहीं बढ़ रही थी, लेकिन जो घटनाएं घटीं उनसे यही साबित हुआ कि बात ऐसी नहीं थी. महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसी बैठकों के कारण हरेक पक्ष एक-दूसरे की चिंताओं को समझ पाता है और कुछ समय बीतने के साथ मतभेद कम होते जाते हैं और दोनों पक्ष के लिए ‘जीत’ वाला समझौता संभव हो पाता है जिसका श्रेय दोनों पक्ष को जाता है.
केवल पहला कदम
गश्त के अधिकार की वापसी स्वागतयोग्य पहला कदम है, लेकिन सीमा के प्रबंधन का सामान्य प्रोटोकॉल लागू होने से पहले सेनाओं की वापसी, तनाव में कमी लाने, और सेना की तैनाती पर रोक लगाने के लिए बहुत कुछ करना ज़रूरी होता है. गश्त के अधिकार की वापसी की व्यवस्था की तफसील अभी सार्वजनिक नहीं की गई है, लेकिन इसमें टकराव से बचने की प्रक्रियाओं की मजबूती तथा नियमितता से संबंधित मानक शर्तें ज़रूर शामिल होंगी. यह टकराव के इलाकों से सेनाओं की वापसी के पहले कदम को आसान बनाएगा.
लेकिन, तनाव में कमी इस बात पर निर्भर होगी कि नये प्रोटोकॉल को कितनी सफलता के साथ लागू किया जाता है. इस तरह के प्रोटोकॉल और विश्वास बहाली के उपाय (सीबीएम) पहले भी किए जाते थे, लेकिन प्रोटोकॉल और सीबीएम की पूर्ण उपेक्षा के कारण न केवल पूर्वी लद्दाख बल्कि पूरी तिब्बत सीमा पर सभी विवादित इलाकों में सेनाओं के बीच टक्कर हुई. इसलिए सेना की तैनाती पर सार्थक रोक, जो कि तीसरा और आखिरी उपाय है, के लिए जिस स्तर का आपसी विश्वास चाहिए यवाह बनाने में काफी समय लगेगा.
चूंकि, इलाके की भौगोलिक बनावट चीन के अनुकूल है, सेना की तैनाती पर रोक पूरी तरह लगाने की जगह आपसी सुरक्षा की ज़रूरत के मद्देनज़र लगाई जाएगी. जो भी हो, हमें सुरक्षा के मुगालते में शांत होकर बैठने की ज़रूरत नहीं है. जब तक पूरी तिब्बत सीमा के मामले में औपचारिक समझौता नहीं कर लिया जाता तब तक हम ढिलाइ नहीं बरत सकते.
शी-मोदी बैठक ने आगे का रास्ता बनाने की राजनीतिक दिशा दिखा दी है. इसमें सीमा विवादों के लिए विशेष प्रतिनिधियों (एसआर) स्तर की वार्ताएं फिर शुरू करना शामिल है, जिसे 2003 में शुरू किया गया था और जिसके कारण कुछ बड़े काम हुए और 2005 में एक ऐतिहासिक समझौता हुआ जिसे ‘भारत-चीन सीमा मसले के निबटारे के लिए राजनीतिक आधार एवं दिशा निर्देशक सिद्धांत’ कहा गया. ‘एसआर’ स्तर की अंतिम वार्ता दिसंबर 2019 में चीनविदेश मंत्री वांग यी और भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के बीच हुई थी. इस स्तर की वार्ता से मौजूदा ढांचे के अंतर्गत दोनों पक्ष को स्वीकार्य समाधान हासिल हो सकता है. इसके अलावा, ‘एसआर’ स्तर की वार्ता फिर से शुरू करने से वार्ता प्रक्रिया के साथ एक और सतह जुड़ जाएगी और यह किसी अप्रिय घटना को घटित होने से रोक सकती है.
शिखर बैठक के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने इस बात पर ज़ोर दिया कि यह “युद्ध का युग नहीं है”, कि कई स्तरों पर बातचीत और विचार-विमर्श इन दो देशों के रिश्ते में, जो कि गलवान में टकराव के बाद गर्त में चले गए थे, नई जान डालने की कुंजी है. ये समझौते सुरक्षा के संकीर्ण नज़रिए से नहीं किए गए हैं बल्कि इनमें दोनों देशों के लिए लाभकारी तमाम मसले और विकास संबंधी चुनौतियां भी शामिल हैं. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि फिलहाल जो कुछ हुआ है वह द्विपक्षीय संबंधों के लिए शुभ संकेत है.
शिखर बैठकें पहले भी हुईं और उनसे काफी उम्मीदें भी जागीं, लेकिन तिब्बत सीमा संबंधी विवादों पर चीन के उग्र तेवरों और हिंद महासागर क्षेत्र में चीन के बढ़ते दखल के कारण तमाम उम्मीदें धराशायी होती रहीं. चीन का यह रुख आपसी सम्मान, विश्वास और संवेदनशीलता के खिलाफ रहा है, जबकि ये तीन बातें ही हमारे संबंधों का आधार रही हैं. फिलहाल जो व्यवस्था बन रही है उनके बारे में दोनों देशों के बयान भी चिंता पैदा करते हैं क्योंकि इनकी अलग-अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं, खासकर इसलिए कि चीनी बयान में ‘समझौता’ शब्द की गैर-मौजूदगी खलती है. इसलिए, ताजा घटनाओं को हमें कथनी और करनी में छत्तीस का आंकड़ा रखने की पुरानी चीनी चाल के मद्देनज़र पूरी सावधानी बरतते हुए ही आंकना होगा, चाहे ये घटनाएं कितनी अच्छी क्यों न दिखती हों.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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