“चंद्रबाबू नायडू मेरे खून के प्यासे हैं” — यह बात भारत के पूर्व वित्त सचिव सुभाष चंद्र गर्ग ने अपनी नई किताब No, Minister में एक उपशीर्षक के तौर पर लिखी है. इस हिस्से में वे बताते हैं कि कैसे 1999–2000 में चंद्रबाबू नायडू की अगुआई वाली आंध्र प्रदेश सरकार ने वर्ल्ड बैंक से मंजूर किए गए कुल प्रोजेक्ट पोर्टफोलियो का 40% से ज्यादा हिस्सा अपने नाम कर लिया था.
गर्ग लिखते हैं, “ऐसा लग रहा था जैसे भारत सरकार और वर्ल्ड बैंक सिर्फ आंध्र प्रदेश के लिए ही बने हों.”
यह बात साल 2000 की है. उस समय तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को अहम समर्थन दे रही थी. गर्ग उस वक्त वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों के विभाग (DEA) में निदेशक थे. वे लिखते हैं कि संसाधनों का ऐसा जमावड़ा “स्पष्ट रूप से पक्षपातपूर्ण और असमान” था. वर्ल्ड बैंक की मदद, खासकर इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी (आईडीए) से मिलने वाला सस्ता कर्ज, असल में गरीब और कम आय वाले राज्यों के लिए होता है, गर्ग ने लिखा, “लेकिन चंद्रबाबू नायडू ने अपनी प्रशासनिक दक्षता और राजनीतिक पहुंच के बल पर दिल्ली में सिस्टम को, यहां तक कि DEA को भी, इस तरह प्रभावित किया कि भारत सरकार के बजट और बाहरी मदद का बड़ा हिस्सा आंध्र प्रदेश की ओर मोड़ दिया गया.”
गर्ग ने एक और उदाहरण भी दिया है, साल 2001 में, आंध्र प्रदेश के लिए वर्ल्ड बैंक से 250 मिलियन डॉलर का स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट लोन तय किया जा रहा था. पैकेज में ब्रिटेन की संस्था Department for International Development (DFID) की ओर से 100 मिलियन डॉलर की ग्रांट भी शामिल थी. यह ग्रांट और लोन आमतौर पर 70:30 के अनुपात में तय होता है — यानी 70% लोन और 30% अनुदान, लेकिन नायडू सरकार ने DFID के साथ DEA की मंजूरी के बिना यह तय कर लिया कि पूरी रकम 100% ग्रांट के रूप में दी जाए. गर्ग ने इस पर सहमति नहीं दी. आंध्र के अधिकारियों ने नायडू जो उस वक्त आयरलैंड में थे उनसे संपर्क किया. नायडू ने उन्हें DEA की बात मान लेने को कहा, लेकिन दो दिन बाद, DEA सचिव ने गर्ग से कहा कि वे आंध्र की फाइल फिर से उन्हें दें. फाइल वापस आई — उस पर वित्त मंत्री की मंजूरी थी और उसमें लिखा था कि इस मामले में अपवाद रखते हुए DFID की पूरी ग्रांट (100%) आंध्र प्रदेश को दी जाए.
गर्ग लिखते हैं, “यह साफ था कि भारत लौटने के बाद चंद्रबाबू नायडू ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया और सरकार के शीर्ष स्तर पर दबाव डालकर अपनी पूरी तरह से अनुचित मांग को मनवा लिया.”
उन्होंने आगे लिखा, “केंद्र सरकार के संसाधनों के निष्पक्ष वितरण की पूरी तरह अनदेखी और आंध्र प्रदेश के लिए हर संसाधन हथियाने की उनकी ज़िद और जुनून बेहद परेशान करने वाला था.”
पूर्व वित्त मंत्री जसवंत सिंह के निजी सचिव वी. श्रीनिवास ने बाद में गर्ग को बताया कि आंध्र प्रदेश के तत्कालीन वित्त सचिव वी.एस. संपत — जो बाद में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त बने — उन्होंने उनसे कहा था कि “कोई तरीका निकालो जिससे सुभाष को ठीक किया जा सके”.
पूर्व IAS अधिकारी गर्ग के इस बयान से शायद ही कोई हैरान होगा कि किस तरह चंद्रबाबू नायडू ने वाजपेयी सरकार में अपनी पकड़ का इस्तेमाल करके केंद्र से अपने राज्य के लिए सब कुछ हासिल किया. गर्ग जैसे कई और अधिकारी होंगे, जिनके पास भी ऐसी ही कहानियां होंगी.
एक और उदाहरण देखिए — सितंबर 2001 से अप्रैल 2002 के बीच “फूड फॉर वर्क” योजना के तहत केंद्र सरकार ने कुल 40 लाख टन चावल मंजूर किया था. इसमें से 21.5 लाख टन (यानी 53%) सिर्फ आंध्र प्रदेश को मिला. बाद में उसे एक लाख टन और दे दिया गया.
अब आते हैं साल 2025 पर. चंद्रबाबू नायडू आज भी वैसे ही हैं — फर्क बस इतना है कि अब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार उन्हें खुश करने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है.
केंद्र सरकार ने अमरावती की राजधानी परियोजना के पहले चरण के लिए 15,000 करोड़ रुपये की मंजूरी दी है. वहीं पोलावरम सिंचाई परियोजना के पहले चरण के लिए 12,157 करोड़ रुपये आंध्र प्रदेश को मिल चुके हैं.
मई महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंध्र में 5,000 करोड़ रुपये के केंद्रीय परियोजनाओं की नींव रखी — जिनमें मिसाइल टेस्टिंग सेंटर, यूनिटी मॉल, रेलवे ओवरब्रिज और छह नेशनल हाईवे प्रोजेक्ट शामिल हैं. और ये तो सिर्फ शुरुआत है — मोदी सरकार का तीसरा कार्यकाल अभी शुरू ही हुआ है, चार साल बाकी हैं और इन चार वर्षों तक नायडू की भूमिका सरकार के लिए बेहद अहम बनी रहेगी.
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राजनीतिक मौका परस्ती या ‘आंध्र फर्स्ट’ नीति?
भारत के पूर्व वित्त सचिव ने सिर्फ एक पुराने बहस को दोबारा ज़िंदा किया है. चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक विरोधियों और आलोचकों के पास उनके ‘धोखों’ की लंबी लिस्ट है — एनटी रामाराव की बेटी से शादी कर कांग्रेस छोड़ टीडीपी में शामिल होना, फिर खुद एनटीआर को हटाकर मुख्यमंत्री बनना; यूनाइटेड फ्रंट छोड़कर 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को समर्थन देना; टीडीपी के लोकसभा स्पीकर जीएमसी बालायोगी का ओडिशा के मुख्यमंत्री गिरिधर गोमांग को (जो उस वक्त तक सांसद थे) विश्वास मत में वोट डालने देना, जिससे वाजपेयी सरकार 1999 में गिर गई; कारगिल युद्ध के बाद मिली लोकप्रियता के फायदे के लिए 1999 के लोकसभा चुनाव में एनडीए से जुड़ना; 2002 दंगों के बाद नरेंद्र मोदी के इस्तीफे की मांग करना, लेकिन 2014 से पहले उन्हीं से हाथ मिला लेना; फिर 2019 में मोदी से नाता तोड़ कांग्रेस के साथ जाना, और 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव से पहले फिर से मोदी का दामन थाम लेना.
ये वाकई एक लंबी लिस्ट है. नायडू के आलोचक इन सबको राजनीतिक अवसरवादिता का उदाहरण मानते हैं. वहीं उनके समर्थक इन्हें उनकी धारदार राजनीतिक समझ और चतुर रणनीति का प्रमाण मानते हैं जिसमें वो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को भी अपने राज्य के फायदे के लिए मोड़ लेते हैं. पूर्व IAS अधिकारी सुभाष गर्ग, एक निष्पक्ष पर्यवेक्षक के तौर पर, अब यह साफ तौर पर कह रहे हैं कि नायडू की इन्हीं उठापटक भरी राजनीति से आंध्र प्रदेश को सबसे ज़्यादा लाभ मिला. इसे मैं उनकी ‘आंध्र फर्स्ट’ राजनीति कहता हूं.
एक उदाहरण देखिए — इंडिया टुडे की मई 2002 की रिपोर्ट कहती है: “पिछले पांच सालों में, नायडू ने केंद्र सरकार के मंत्रालयों से 40,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा की राशि आंध्र प्रदेश के लिए मंजूर करवाई. केंद्र से मिलने वाले कर्ज पांच साल में 1,575.6 करोड़ से बढ़कर 3,189.9 करोड़ हो गए. अनुदान (ग्रांट) 1,528 करोड़ से बढ़कर 3,424.1 करोड़ हो गया और बाहरी सहायता 1,118 करोड़ से तीन गुना होकर 3,640 करोड़ हो गई. सबसे बड़ा सबूत एक आंकड़ा है — 2000–01 और 2001–02 के बीच केंद्र द्वारा राज्यों को दिए गए कुल अनुदान में बढ़ोतरी सिर्फ 2.6% थी, लेकिन अकेले आंध्र प्रदेश के हिस्से में 34% की बढ़ोतरी दर्ज हुई.”
इस रिपोर्ट में कांग्रेस सांसद रेणुका चौधरी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि नायडू की यह कामयाबी इसलिए थी क्योंकि “केंद्र कमजोर था और राजनीतिक दबाव में था.” आज जब मोदी सरकार खुले दिल से आंध्र प्रदेश पर मेहरबान है और नायडू को बार-बार फायदा मिल रहा है, तो कांग्रेस सांसद आज भी वही बात दोहराते हैं, लेकिन अगर आप आंध्र प्रदेश के आम लोगों से बात करेंगे, तो वे आपको वही पुराना Onida TV का विज्ञापन याद दिला देंगे: “Neighbour’s envy, owner’s pride”.
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बाकी मुख्यमंत्रियों के लिए नायडू से सबक
चंद्रबाबू नायडू 75 साल की उम्र में, आज भारत के तीसरे सबसे उम्रदराज़ मुख्यमंत्री हैं — उनके पहले हैं केरल के पिनराई विजयन (80) और कर्नाटक के सिद्धारमैया (76). आंध्र प्रदेश में लोग उन्हें सीबीएन के नाम से जानते हैं. वे चाहें तो अब तक के अपने कामों पर आराम से संतोष कर सकते थे. हैदराबाद में साइबराबाद और जीनोम वैली जैसा कुछ बनाना ही किसी भी मुख्यमंत्री के लिए आजीवन उपलब्धि मानी जाती.
लेकिन नायडू रुकने वाले नहीं हैं — वे खुद के लिए नए लक्ष्य तय कर रहे हैं. पिछले महीने एक इंटरव्यू में उन्होंने मुझसे कहा, “साइबराबाद जैसी चीज़ें दोबारा नहीं बनाई जा सकतीं, लेकिन उनके बेहतर वर्ज़न ज़रूर लाए जा सकते हैं.”
यह केवल अमरावती जैसी नई राजधानी बनाने तक सीमित नहीं है. अब वे भारत की पहली “क्वांटम कंप्यूटिंग वैली” बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं. उन्होंने आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा की रणनीतिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए स्पेस पॉलिसी शुरू की है, जिससे अंतरिक्ष से जुड़ी इंडस्ट्री में 25,000 करोड़ रुपये का निवेश लाने का लक्ष्य है.
वे अपने शून्य गरीबी-P4 (Public-Private-People Partnership) प्रोग्राम को लेकर बहुत उत्साहित हैं. जब वे मुझे P4 के बारे में बता रहे थे, तो उनकी आवाज़ में अलग उत्सुकता थी. आज जहां ज्यादातर विपक्षी नेता मानते हैं कि गरीबी तभी हट सकती है जब अमीरों को गरीब बना दिया जाए, नायडू का P4 एक अलग सोच दिखाता है. इसमें शामिल होने के लिए न तो अडाणी होना ज़रूरी है, न अंबानी. अगर आपके पास अधिक पैसे हैं, तो आप किसी एक परिवार की मदद कर सकते हैं, उन्हें मार्गदर्शन दे सकते हैं. यह काम सामूहिक स्तर पर भी किया जा सकता है.
बाकी मुख्यमंत्रियों से सीबीएन को जो अलग बनाता है, वह हैं उनके विचार — मौलिक, कल्पनाशील और नवाचारी. बाकी राज्यों के अधिकतर मुख्यमंत्री एक जैसे ही काम कर रहे हैं — अक्सर एक-दूसरे की नकल करते हुए, लेकिन 75 की उम्र में भी नायडू अलग नज़र आते हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के वरिष्ठ नेता राम माधव ने द इंडियन एक्सप्रेस में वॉल्ट डिज़्नी को उद्धृत करते हुए लिखा था, “कल्पना की कोई उम्र नहीं होती”.
उन्होंने यह तर्क प्रधानमंत्री मोदी और संघ प्रमुख मोहन भागवत के लिए लिखा था कि 75 साल की अनौपचारिक उम्र सीमा को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है. राम माधव ने लिखा — “उम्र मायने नहीं रखती, जब तक आप चीज़ (cheese) न हों”. यह बात बिल्कुल सही है.
जैसा कि मैंने कहा, देश के कई युवा मुख्यमंत्री भी आज नीतियों में मौलिकता, नए विचार और कल्पना के मामले में थके-थके और पुराने लगने लगे हैं.
क्या मोदी 3.0 इससे अलग है? यह सोचने का विषय है — किसी अगले कॉलम के लिए.
(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)
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