मध्य भारत में एक नदी बहती है. नाम है चंबल. यह वही चंबल है जहां के बीहड़ों में डाकुओं की धमक पिछले दशक तक गूंजती रही है. स्थानीय भाषा में इस इलाके को डांग कहा जाता है. आज जब चारों ओर से यह खबरें आ रही हैं कि नदियों का पानी साफ हो गया है तो चंबल की कहानी देश को बता सकती है कि वास्तव में ऐसा हुआ क्यों?
चंबल भारत की सबसे ज्यादा साफ-सुथरी नदी है. आज से नहीं, लॉकडाऊन के पहले या यूं कहिए हमेशा से. प्राचीन कहानियों में चंबल को शापित नदी माना गया है. यहां तक कि इसके किनारे चलते हुए श्रवण कुमार के मन में भी आया कि कंधे पर टंगे मां-बाप एक बोझ हैं.
शापित होने के कारण चंबल को सामाजिक रूप से सम्मान नहीं मिला यही कारण है कि डांग क्षेत्र में तकरीबन सवा चार सौ किलोमीटर के बहाव क्षेत्र में एक भी मंदिर नहीं है. सिवाय इसके अंतिम गंतव्य स्थल बरेह के, जहां यह यमुना से मिलती है. वैसे चंबल की कुल लंबाई उद्गम महु से लेकर इटावा बरेह तक 965 किलोमीटर है.
सामाजिक रूप से सम्मान ना मिलने के कारण नदी तट पर मेले, पर्व भी आकार नहीं ले पाए. लोग चंबल में जरूरत के लिए नहाते जरूर है लेकिन आस्था की डुबकी नहीं लगाते और आस्था की डूबकी नहीं लगती इसलिए पूजा के फूल भी नदी को समर्पित नहीं किए जाते.
भला हो उन डाकूओं का, जिन्हें स्थानीय लोग बागी कहते हैं, जिनकी वजह से चंबल के किनारे इंडस्ट्रीज ही डेवलप नहीं हो पाई. नतीजा नदी औद्योगिक कचरे से साफ बच गई. इन डाकुओं के आतंक से क्षेत्र का विकास नहीं हो पाया और नदी विकास का शिकार नहीं हो पाई. नतीजा प्रकृति यहां फलफूल रही है, सिर्फ चंबल के डांग इलाके में इतने घड़ियाल पाए जाते हैं जितने शायद देश की किसी भी बड़ी नदी में नहीं हैं.
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कुलमिलाकर सदियों से शाप बना सामाजिक लॉकडाउन चंबल के लिए वरदान साबित हुआ. इसके संकेत साफ है कि देश को पर्यावरणीय लॉकडाउन की आवश्यकता है.
इस पर्यावरणीय सकारात्मक बदलाव की एक छोटी झलक पिछले दिनों देश ने देखी, जिसमें मरकरी, सीसा, क्रोमियम और निकल से लबालब नदियां एकाएक साफ होकर बहने लगी. वैसे ही जैसे वे चार–पांच दशक पहले तक बहती थी. इस बदलाव ने सरकार को एक मौका उपलब्ध करवाया है कि वह औद्योगिक कचरे का नदी में वास्तविक हिस्सा जान सके.
अभी के हालात तो यह है कि गंगा में कितने नाले गिरते हैं और उनसे कितना प्रदूषण होता है, इस पर ही केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन और राज्य सरकारें एकमत नहीं है. यानी जितनी एजेंसियां उनके उतने ही अलग आंकड़े. लॉकडाउन के दौर में एजेंसियां इतना तो कर ही सकती हैं कि आंकड़ों पर आमराय बना लें. और जिन्हे आंकड़ों में रूचि नहीं है वे जान ले कि जून 2014 में केंद्र सरकार ने नमामि गंगे परियोजना को शुरू किया था. तब से छह साल हो गए. पिछले एक महीने के लॉकडाउन में गंगा का पानी जितना साफ हुआ है, उसका बीस फीसद भी नमामि गंगे छह साल में नहीं कर पाया. जबकि इस दौरान उसने तकरीबन साढ़े आठ हजार करोड़ की राशि खर्च कर दी.
इस लॉकडाउन से देश और दुनिया की अर्थव्यवस्था को कितना नुकसान पहुंचा इसका आकलन लंबा चलने वाला दुरूह कार्य है लेकिन इस लॉकडाउन ने गंगा को कितना फायदा पहुंचाया यह नज़र आ रहा है. बेशक इस कोरोना कार्य का क्रेडिट लेने को सरकारें स्वतंत्र हैं लेकिन यह भी समझा जाना चाहिए कि जो पैसा गंगा सफाई के नाम पर बहाया जा रहा है उसकी प्रासंगिकता कितनी है. नदियों का सीधा सा संदेश है, उन्हे साफ करने की नहीं, गंदा ना करने की जरूरत है.
नदियों के प्रदूषण में बड़ा हिस्सा तकरीबन 80 फीसद म्यूनिसिपल सीवेज का होता है, इसके बाद चमड़ा शोधन कारखाने और शुगर मिल इत्यादि का नंबर आता है. इसी म्यूनिसिपल सीवेज को उपचारित करने के लिए बड़ी संख्या में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाने की कवायद चल रही है. गंगा-यमुना बेसिन के राज्यों में 152 एसटीपी बनाए जाने हैं जिनमें से पिछले छह साल में मात्र 46 बन पाए हैं. जबकि सीवेज डिस्चार्ज बढ़ता ही जा रहा है.
नमामि गंगे परियोजना की पांच साल के लिए कुल स्वीकृत बजट राशि बीस हजार करोड़ रूपए हैं और गंगा सफाई के कार्य को इसी साल दिसंबर तक पूरा किया जाने का लक्ष्य है. समयसीमा खत्म होने को है और लक्ष्य की मामूली सी प्राप्ती हुई है.
लॉकडाउन ने एनएमसीजी को यह कहने का मौका दे दिया कि गंगा साफ हो गई. लेकिन अपने गाल बजाने में व्यस्त अधिकारी यह भूल गए हैं कि एक दिन लॉकडाउन खत्म होगा और प्रदूषण चौगुनी रफ्तार से बढ़ेगा तब इस स्थिती से कैसे निपटा जाएगा. एनएमसीजी सीधे तौर पर बांध कंपनियों के दबाव में काम करती है. अन्यथा क्या कारण है कि जब बिजली की मांग पच्चीस से तीस फीसद गिर गई है तब भी मूल धारा में ज्यादा पानी नहीं छोड़ा जा रहा. यदि आईआईटी कंसोर्डियम की सलाह मानकर गंगा में पचास फीसद बहाव सुनिश्चित किया जाए तो वह स्व-उपचारित स्थिति में आ जाएगी जिसके सकारात्मक परिणाम आने वाले महीनों में देखने को मिलेंगे.
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जमीनी कोशिशों के बजाए एनएमसीजी नारों और दावों में ही रूचि लेता है. अब तक उसने 58 करोड़ रूपए विज्ञापन के तौर पर यह बताने में खर्च कर दिए कि गंगा सफाई की उसकी कोशिशें क्या हैं और इन विज्ञापनों के बदले में न्यूज चैनल के कैमरों को गंगा अविरल और निर्मल नज़र आती रही हैं.
नदी सफाई के लिए नमामि गंगे जैसी योजना नहीं पर्यावरणीय लॉकडाउन योजना चाहिए. जिसके तहत महीने में कम से कम दो दिन नदियों को पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ दिया जाए. बांध में पानी ना रोका जाए, उपचारित–गैर उपचारित कोई भी सीवेज उसमें ना डाला जाए, गंगा पथ पर बनी औद्योगिक इकाईयों को पूरी तरह बंद रखा जाए और नदियों से सामाजिक दूरी बनाकर रखी जाए. महीने में दो दिन भी पर्यावरणीय लॉकडाउन को लागू किया जाता है तो यह नदी और मानवजाति दोनों के हित में होगा. इसके लिए नमामि गंगे और उसके भारीभरकम बजट दोनों की आवश्यकता नहीं होगी. यह नीति नियंताओं पर है कि वे इस लॉकडाउन से क्या सबक सीखते हैं.
अन्यथा चंबल और लॉकडाउन की कहानी से यह भी शिक्षा मिलती है कि जब सरकारी योजनाएं फेल हो जाती है तो प्रकृति अपनी योजना लागू करती है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)