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Sunday, 30 March, 2025
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केंद्र सरकार को J&K की पार्टियों से बातचीत करना जरूरी है, भले ही यह मोदी के लिए मुश्किल हो

कश्मीर ने 2019 में अपना विशेष दर्जा खो दिया, उसके बाद से अब तक अवामी एक्शन कमिटी और इत्तिहादुल मुसलमीन प्रतिबंध से बचा हुआ था क्योंकि नई दिल्ली इस उम्मीद में थी कि इसके नेता अपने समर्थकों को लोकतांत्रिक राजनीति की ओर मोड़ लेंगे.

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सन 1893 की गर्मियों में एक बार कश्मीर में 52 घंटे तक लगातार बारिश होती रही. एक भालू और एक चीता झेलम नदी में साथ-साथ डूबे हुए पाए गए थे, मानो वे अपनी पुरानी आपसी नफरत भूल गए थे; खच्चर और मवेशी नदी के दाहिने किनारे पर बने आलीशान मकानों के बरामदों पर चढ़ आए थे. वहां तैनात अंग्रेजी राज के अधिकारी वाल्टर रोपर लॉरेंस ने लिखा है कि तुल्लमुल्ला के ग्रामीणों ने अपने पूजास्थलों पर लगे पताकों को उखाड़कर बाढ़ के चढ़ते पानी को रोकने के टोटके के रूप में उन्हें डूबती जमीन पर गाड़ दिया था. उन्हें विश्वास था कि प्रकृति प्राचीन संतों का तो अपमान नहीं ही करेगी.

अगर इसे टोटका कहें तो हर कोई इस लोक आस्था को लेकर खुश नहीं था. तभी, कश्मीर में मसीहाई दावों के बीच धार्मिक भावनाओं के उभार का एक नया दौर शुरू हो गया था. लोग मानने लगे थे कि वह बाढ़ भी ‘नूह की बाढ़’ की तरह (जिसने मूर्तिपूजकों को नष्ट कर दिया था) लोगों के पापों का फल थी.

अलीगढ़ और लाहौर से इस तरह के विचारों लैस, श्रीनगर की जामिया मस्जिद के प्रमुख मौलवी मीरवाइज़ रसूल शाह ने लोक इस्लाम के साथ जुड़ी लोकप्रथा ‘बिदह’ या बिद्दत को मिटाना शुरू कर दिया था. 1889 में, रसूल शाह ने रजौरी कदल में नुस्रतुल इस्लाम नामक मदरसे की स्थापना की. यह पहला मदरसा था जिसने कश्मीर के मुसलमानों को सेकुलर और मजहबी, दोनों तरह की औपचारिक तालीम देनी शुरू की. आज इस मदरसे को इस्लामिया स्कूल के नाम से जाना जाता है और यह एक अंजुमन-ए-नुस्रतुल नाम के शैक्षिक संगठन के रूप में विकसित हो गया है.

लेकिन इस्लामिया स्कूल के एक छात्र ने कहा कि “इस्लाम एक बीमार बच्चे के जैसा है जिसे मां के दुलार और सहानुभूति की जरूरत है.” मीरवाइज़ रसूल शाह अपनी तकरीरों में साफ कर दिया था कि संतों को देवता का दर्जा देना और पवित्र ग्रंथों की पूजा हिंदुओं की प्रथा है, जिसने इस्लाम को कमजोर किया.

एक शोधार्थी योगिंदर सिकंद ने लिखा है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से नव-रूढ़िवादी अह्ल-ए-हदीथ ने शरिया पर आधारित एक नये और अधिक कठोर पंथ की शुरुआत की. कश्मीर की बाढ़ प्रभावित जमीन में एक इस्लामी तहरीक का बीज बो दिया गया था.

कश्मीर के बाहर कम ही लोगों को मालूम हुआ होगा कि इस महीने केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अंजुमन-ए-नुस्रतुल इस्लाम और कभी अलगावादी गठबंधन के मजबूत संगठन ‘ऑल पार्टीज़ हुर्रियत कनफरेंस’ के साझा राजनीतिक मंच अवामी एक्शन कमिटी पर प्रतिबंध लगा दिया. और शिया जम्मू-कश्मीर इत्तिहादुल मुसलमीन पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया.

कश्मीर ने 2019 में अपना विशेष संवैधानिक दरजा खो दिया, उसके बाद से अब तक अवामी एक्शन कमिटी और इत्तिहादुल मुसलमीन प्रतिबंध से बचा हुआ था क्योंकि नयी दिल्ली इस उम्मीद में थी कि इसके नेता अपने समर्थकों को लोकतांत्रिक राजनीति की ओर मोड़ लेंगे. केंद्रीय गृह मंत्रालय के सूत्रों ने ‘दप्रिंट’ को बताया कि भारतीय जनता पार्टी में कुछ लोगों को लगता था कि इन गुटों का इस्तेमाल नेशनल कनफरेंस के प्रभाव को कमजोर करने में किया जा सकता है.

इन प्रतिबंधों के खिलाफ कानूनी अपील तो की ही जाएगी लेकिन ऐसा लगता है कि कश्मीर की सियासत में जो एक अहम रास्ता बन सकता था उसे हमेशा के लिए बंद कर दिया गया है.

बादशाह बनने को उत्सुक मौलवी

दो दशक पहले, तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ के बीच शांति वार्ता के दौरान मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ यह कल्पना किए बैठे थे कि अब तो वे ही गद्दी पर बैठेंगे. मीरवाइज़ रसूल शाह के वंशज ने एक इंटरव्यू में कहा कि “एजेंडा लगभग तय हो चुका है. भारत और पाकिस्तान सितंबर 2007 में कश्मीर पर कोई घोषणा करने की सोच रहे हैं.” 2006 में, मुजफ्फराबाद में एक भाषण में उन्होंने कहा कि “हम अपनी-अपनी खामखयालियों से बाहर निकलें. सियासी, कूटनीतिक और फौजी मोर्चों पर हमारी लड़ाई ने हमें कब्रों की तादाद में बढ़ोतरी के सिवा और कुछ नहीं दिया है.”

हुर्रियत का अध्यक्ष होने के नाते मीरवाइज़ को यह उम्मीद थी कि आतंकवाद के खात्मे, सीमाओं को खोले जाने, एलओसी के दोनों तरफ स्वायत्त क्षेत्रों के गठन पर केंद्रित शांति समझौता उन्हें श्रीनगर में सत्ता की कुर्सी पर बैठा देगा. लेकिन उम्मीद पूरी न हो सकी.

जैसा कि कई चीजों का ताल्लुक औपनिवेशिक भारत से जुड़ा था, उसी तरह अंजुमन का उभार भी आधुनिकता की चुनौती का जवाब था. शोधकर्ता आसिफ अहमद भट ने लिखा है कि अंग्रेजी मिशनरियों की बढ़ती सक्रियता ने मीरवाइज़ रसूल शाह को डरा दिया कि उनके समर्थकों का क्या होगा. अंग्रेजों को लेकर उनके मन में जो चिंता थी वह महाराजा प्रताप सिंह के भी मन में थी, जिन्हें 1889 में गद्दी से हटा दिया गया था और फिर से उन्हें एक काउंसिल के अधीन गद्दी दी गई.

इतिहासकार मृदु राय ने लिखा है कि मीरवाइज़ की संस्था कुलीन कश्मीरी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करती थी, जिसके हित डोगरा राजशाही के साथ गहराई से जुड़े थे. शेख मुहम्मद अब्दुल्ला और उनकी पार्टी ‘ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कनफरेंस’ के उभार ने इस व्यवस्था को बड़ी राजनीतिक चुनौती पेश कर दी. अब्दुल्ला श्रीनगर के दूसरे मीरवाइज़, अधिक परंपरावादी ख़ानक़ाह-ए-मुयाला या शाह-ए-हमदान के प्रमुख से जुड़ गए थे.

कश्मीर के प्रतिद्वंद्वी मीरवाइज़ और उनकी नयी सियासी पार्टियों के बीच का सत्ता संघर्ष अक्सर सड़कों पर उतर आता था. देश की आज़ादी के बाद उन्हें मजबूरन सहयोगी दलों के रूप में साथ आना पड़ा.

दो फ़ारूक़

1953 में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से संबंध टूटने के, जो कि आज़ादी के लिए नई कोशिशों का नतीजा था, बाद शेख अब्दुल्ला ने मीरवाइज़ की ओर हाथ बढ़ाया. 1963 में हजरतबल मस्जिद से पवित्र धार्मिक निशानी के गायब हो जाने के बाद दोनों पक्ष ने मिलकर नई दिल्ली पर दबाव बढ़ाया. राजनीतिशास्त्री नवनीता चड्ढा बेहेरा ने लिखा है कि भीड़ जब मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद के परिवार की संपत्तियों पर हमले कर रही थी, मीरवाइज़ और अब्दुल्ला “अवैध समानांतर सरकार चला रहे थे, ट्रैफिक कंट्रोल करवा रहे थे, कीमतों और व्यापार का नियंत्रण करवा रहे थे”. इसने अवामी एक्शन पार्टी को जन्म दिया.

मीरवाइज़ मोहम्मद फ़ारूक ने 1965 की लड़ाई से पहले अपनी गद्दी से पाकिस्तान की जीत की दुआएं कीं और अब्दुल्ला के प्लेबिसाइट फ्रंट के ऐसे ही आह्वानों का समर्थन किया. दोनों के समर्थकों ने काँग्रेस पार्टी के मुस्लिम सदस्यों के यहां शादी-विवाह, मैयत, और धार्मिक आयोजनों के निमंत्रणों का बायकॉट करवाना शुरू कर दिया.

बाद में, 1983 में पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने चुनाव अभियान में मीरवाइज़ मोहम्मद फ़ारूक़ से हाथ मिला लिया लेकिन इस अभियान में काफी सांप्रदायिक नफरत फैलाई गई. हालांकि इस गठजोड़ ने अब्दुल्ला को कश्मीर में जमात-ए-इस्लामी की चुनौती से लड़ने में मदद की, और कांग्रेस ने जम्मू में भाजपा को परास्त किया, लेकिन राज्य में जातीय-धार्मिक खाई और चौड़ी हो गईं.

कश्मीरी सांप्रदायिक पहचान की मजबूती जिहाद के लंबे सफर का प्रमुख मुकाम बनी. हालांकि मुख्यमंत्री फ़ारूक़ 1987 के चुनाव में कॉंग्रेसी छतरी के नीचे चले गए, लेकिन ऐसी ताक़तों को खेलने का मौका दे दिया गया जिन्हें कोई सियासी नेता काबू में नहीं कर सकता था.

भयभीत  शांतिवादी

मीरवाइज़ मोहम्मद फ़ारूक़ ने पूर्व मुख्यमंत्री मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद का अपहरण करने के लिए जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट की खुली निंदा की. लेखक बलराज पुरी ने खुलासा किया कि बाद में उन्होंने पूर्व रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस समेत नयी दिल्ली स्थित मध्यस्थों से खुला राजनीतिक संवाद शुरू करने की कोशिश शुरू की. इस कोशिश के कारण 1990 की गर्मियों में मीरवाइज़ फारूक की हत्या कर दी गई. उनके कथित हत्यारों पर मुकदमा चल रहा है.

जिस जिहादी मोहम्मद अब्दुल्लाह बांगरू ने उनकी हत्या की थी, उसे हत्या के चार दिन बाद पुलिस ने गोली मार दी. उसकी लाश को श्रीनगर में कथित शहीदों की कब्रगाह ‘मज़ार-ए-शुहादा’ में दफनाने के लिए एक जुलूस में जमा हो गया. उसे मीरवाइज़ की कब्र के बगल में दफनाया गया. मारा गया शख्स और उसका हत्यारा, दोनों उनके समर्थकों की नज़र में शहीद थे, जो एक ही लक्ष्य के लिए शहीद हुए.

नये मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ ऑल पार्टीज़ हुर्रियत कनफरेंस के नेता बन गए. हुर्रियत के दूसरे सदस्यों की तरह अवामी एक्शन कमिटी ने भी एक हथियारबंद गुट, अल-उमर को जन्म दे दिया लेकिन उसका काम  दूसरे जिहादियों को पुराने श्रीनगर में मीरवाइज़ के इलाके से दूर रखने तक सीमित था.

2006 की शांति वार्ताओं के बाद मीरवाइज़ ने खुद को काफी नाराज सैयद अली शाह गिलानी के मुक़ाबले में खड़ा पाया. गिलानी जम्मू-कश्मीर में इस्लामी तहरीक के रहनुमा माने जाते थे. उस साल भारत के खिलाफ गलियों में हिंसक विरोध शुरू हुए, और माना जाता है कि नये युवा मीरवाइज़ की मम्मी को अपने बेटे की जान को खतरा महसूस हुआ तो उन्होंने उन्हें अपने कदम खींच लेने की सलाह दी. सरकार के साथ में उनकी ओर से वार्ता कर रहे वार्ताकार इससे काफी निराश हुए. मीरवाइज़ उमर ने चुनाव लड़ने या नयी दिल्ली से सीधा संवाद करने से मना कर दिया.

कश्मीर के पिछले चुनाव में, कभी अलगाववादी रहे लोगों—जिनमें अब्दुल रशीद शेख, या इंजीनियर रशीद और सज्जाद गनी लोन भी शामिल हैं— की विफलता ने शायद भारत सरकार को स्पष्ट कर दिया है कि उसे नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी जैसी मुख्यधारा की पार्टियों से संवाद करना पड़ेगा. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मुश्किल लग सकता है, आखिर वे इन दोनों पार्टियों के नेताओं को भ्रष्ट परिवारवादी कहकर उनकी निंदा कर चुके हैं. लेकिन इस बारे में किए जाने वाले फैसले पर ही यह निर्भर करेगा कि कश्मीर के राजनीतिक वर्तमान पर उसके हिंसक अतीत का साया हमेशा के लिए हटाया जा सकता है या नहीं.

प्रवीण स्वामी दिप्रिंट में कॉन्ट्रीब्यूटर एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @praveenswami है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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