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Tuesday, 23 April, 2024
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भारतीयों के परोपकारी होने का जश्न तो मनाएं लेकिन पारंपरिक दान को भी कम न आंकें

आम बोलचाल की भाषा में हम अक्सर 'दान' और 'परोपकार' जैसे शब्दों का उपयोग परस्पर समान रूप से करते हैं. परंतु वास्तव में, इतिहासकारों, विद्वानों और विकासविदों की कल्पना में 'दान' हमेशा 'परोपकार' की तुलना में अपेक्षाकृत हीन स्थिति में पाया गया है.

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‘बिल गेट्स नहीं, बल्कि जमशेदजी टाटा हैं, इस सदी के सबसे परोपकारी व्यक्ति’ पिछले महीने यह शीर्षक / हेडलाइन हुरुन रिसर्च एंड एडेल गिव फाउंडेशन द्वारा दुनिया के 50 सबसे उदार व्यक्तियों की सूची के घोषित किए जाने के बाद कई भारतीय प्रकाशनों में देखा गया था. इस सहस्राब्दी में जन्मे अधिकांश लोगों के लिए, जो जमशेदजी की विरासत से बिल्कुल अपरिचित से हैं, यह अत्यंत आश्चर्य की बात थी क्योंकि परोपकार/ लोकोपकार (फिलैन्थ्रपी) के क्षेत्र में उनके योगदान को बिल गेट्स की तुलना में कहीं आगे आंका गया था. इस प्रतिष्ठित सूची में शामिल होने वालों में एक अन्य भारतीय नाम अजीम प्रेमजी का था जिन्होंने ‘सबसे उदार भारतीय’ होने का खिताब भी हासिल किया और पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत के परोपकारी लोगों की सूची में सबसे ऊपर थे. जो बात इन दो उद्योगपतियों को अन्य भारतीय परोपकारी लोगों से अलग करती है, वह न केवल उनके द्वारा दान की गई संपत्ति की कीमत अथवा मात्रा है, बल्कि यह ‘दान देने के कर्म’ को लोगों की सशक्त करने और इस कर्म को एक प्रगतिशील विचार बनाने के सन्दर्भ में उनके योगदान से भी संबंधित है. हालांकि, भारतीय फिलैन्थ्रपी में अब परिपक्वता आ गई है, परंतु आवेग मे आकर तुरंत दान देने के कृत्यों को कम कर के आंकने से जुड़ी हुई एक प्रवृत्ति भी पिछले एक दशक में उभरी है.

‘दान’ को ग़लत आधारों पर कलंकित रूप से देखा जा रहा है

आम बोलचाल की भाषा में हम अक्सर ‘दान’ और ‘परोपकार’ जैसे शब्दों का उपयोग परस्पर समान रूप से करते हैं. परंतु वास्तव में, इतिहासकारों, विद्वानों और विकासविदों की कल्पना में ‘दान’ हमेशा ‘परोपकार’ की तुलना में अपेक्षाकृत हीन स्थिति में पाया गया है. पुरातन काल से हीं भारत ने दान देने के विभिन्न स्वरूपों को देखा है जो अक्सर व्यक्तिगत, परिवार-केंद्रित, औपचारिक, अनौपचारिक, धार्मिक अथवा धर्मनिरपेक्ष प्रकृति के होते हैं. समाज में बढ़ती धर्मनिरपेक्षता की भावना और एक उदार आधुनिकतावादी कल्पना – जो विकास के अधिकार-आधारित दृष्टिकोण का समर्थन करती है- के ताकतवर होने के साथ हीं दान के पवित्र और स्वतःस्फूर्त स्वरूपों को परोपकार के लोकप्रिय होते विचार की तुलना में हाशिए पर डाल दिया गया है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘सीएसआर वाली मानसिकता’ , जो दान देने के कर्म से उत्पन्न ठोस परिणामों’ को प्राथमिकता देती है, के हावी होने से धर्मार्थ दान को ‘तर्कहीन’ और ‘विचारहीन’ कृत्य के रूप में कलंकित कर दिया गया है.

एक विकासवादी तरीके से देखें तो ‘परोपकार’ अथवा फिलोन्थ्रोपि को स्पष्ट रूप से दान देने के अधिक व्यक्तिगत स्वरूपों के प्रगतिशील विकास के रूप में देखा जाता है. उदाहरण के लिए, भारत के औपनिवेशिक शासन की स्थायी विशेषताओं में से एक, उनके द्वारा परिभाषित की गई ‘हिंदू दान’ की लगातार आलोचना करना भी शामिल थी. यहां ‘हिंदू’ शब्द भारतीय उपमहाद्वीप में पूर्व-आधुनिक काल से हीं चले आ रहे दान के सभी स्वदेशी स्वरूपों के लिए एक रूपक के अर्थ में था और जो ब्रिटिश लोगों की नज़र में ‘तर्कहीन’ और अंधविश्वास में डूबा हुआ था. 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में रहने वाले अंग्रेजों द्वारा प्रकाशित कई रिपोर्ट और संस्मरणों मे यही भावना प्रमुखता के साथ झलकती हैं. उपयोगितावाद (यूटिलिटेरीअनिज़म) के सिद्धांतों से प्रेरित होने के कारण अंग्रेजों के मन में दान के उन स्वरूपों प्रति बहुत कम सम्मान था जो संस्थागत दान के अनुरूप नहीं थे.

भारतीय परोपकार को किसी भी प्रकार के स्वदेशी उद्भव के विचार से वंचित करते हुए, इसके जन्म को अक्सर ईसाई मिशनरी की सेवा-संबंधित गतिविधियों का अनुकरण करने वाली एक प्रतिक्रियावादी पहल के रूप में देखा जाता है या फिर इसे स्थानीय रूप से प्रतिष्ठित लोगों द्वारा शाही अधिकारियों के साथ बेहतर संबंध बनाने के क्रम में अपने सम्मान में और वृद्धि करने के एक प्रयास के रूप में आंका जाता है.

उदाहरण के तौर पर, भारत में प्रतिनियुक्त एक स्कॉटिश मिशनरी जेएन फ़ार्कुहार ने सुझाव दिया है कि ‘भारतीय परोपकारी आंदोलन मुख्य रूप से ईसाई मिशनरियों की सेवा-संबंधित गतिविधियों के कारण शुरू हुआ था.‘.

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औपनिवेशिक काल में सूरत शहर के उपहार देने और परोपकार पर आधारित एक दिलचस्प अध्ययन में, लेखक डगलस हेन्स (1987) लिखते हैं कि कैसे हिंदू और जैन व्यापारियों ने, जो उस समय तक धार्मिक दान प्रति अधिक अभ्यस्त थे, अपनी धर्मार्थ गतिविधियों को कई जन कल्याणकारी गतिविधियों – जैसे कि स्कूलों, अस्पतालों और पुस्तकालयों के लिए दान- के रूप में बदलना शुरू कर दिया, क्योंकि यह ब्रिटिश लोगों के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए आवश्यक ‘सामाजिक कल्याण’ और ‘प्रगति’ से संबंधित विक्टोरियन वॅल्यूस (मूल्यों) को ‘समायोजित’ करने के अनुरूप था. हालांकि, क्रिस्टोफर बेली और केरी वाट जैसे अन्य इतिहासकारों ने यह भी दर्शाया है कि कैसे 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में भारतीय समूहों की सामाजिक सेवा और उससे जुड़ी अन्य पहलों की गहरी जड़ें हिंदू धर्म की ‘जीवित परंपराओं’ जैसे कि दान (भेंट चढ़ाना), कर्म योग (बिना किसी लगाव के कर्तव्य) संन्यास (तप) और ब्रह्मचर्य के साथ-साथ शारीरिक/भौतिक संस्कृति, स्वास्थ्य और पुरुषार्थ से संबंधित सामान्य भारतीय धारणाओं और प्रथाओं से जुड़ी हुई थी.

दोनों के अपने-अपने गुण हैं

हालांकि, यह सत्य है कि ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभावों का गहरा असर भारत में उन विचारों पर पड़ा जिनके तहत सार्वजनिक रूप से परोपकार की कल्पना की गई थी, फिर भी समकालीन परोपकार के धार्मिक और बौद्धिक पूर्व-वृत्तांत (ऐन्टेसडन्ट्स) पूर्व-आधुनिक भारत में भी स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं. ‘दान’ के हिंदू विचार के तहत व्यक्तिगत रूप से उपहार देने के साथ-साथ सामुदायिक कल्याण के कार्य जैसे अधिक धर्मनिरपेक्ष स्वरूप भी शामिल हैं. महाभारत के अनुशासन पर्व में दो अलग-अलग प्रकार के दानों का उल्लेख है, ‘इष्टा’ वह दान है जो देवताओं को अर्पित किया जाता है, ‘पुरता’ लोक कल्याण के लिए, जैसे कि कुएं, तालाब खोदना, मंदिर बनाना, भोजन का वितरण आदि, किए जाने वाला दान है. इसी तरह, वक्फ की इस्लामी अवधारणा चंदा इकट्ठा करने के आधुनिक विचार का एक स्पष्ट रूप से पूर्ववर्ती संस्करण है. इस्लाम में ज़कात और सिख धर्म में दसवंध जैसी परंपराएं, जिनके तहत मुसलमानों और सिखों को अपनी आय का एक निश्चित हिस्सा दान में देने की आवश्यकता होती है, संस्थागत दान के अन्य ऐसे उदाहरण हैं जो आधुनिक परोपकार के सिद्धांत का सार कहे जा सकते हैं. जब प्रेमजी जैसे समकालीन परोपकारी लोग महात्मा गांधी का उद्धरण देते हुए कहते हैं कि वे ‘केवल अपने धन के ट्रस्टी हैं,’ तो धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष के दान के बीच की निरंतरता / समानता और भी स्पष्ट हो जाती है.


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ऐसा प्रतीत होता है कि भारत में दान और परोपकार की संस्थाएं अनादि काल से शांतिपूर्वक एक साथ अस्तित्व में रहीं हैं. एक ओर, जमशेदजी टाटा और अजीम प्रेमजी जैसी सार्वजनिक हस्तियों ने शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं पर अपना ध्यान केंद्रित करते हुए समाज में व्याप्त असमानताओं में बदलाव/ कमी लाने के लिए संगठित, नियोजित और लक्षित परोपकार का रास्ता अपनाया हैं, वहीं दूसरी ओर यहां रोज़मर्रा की ज़िंदगी में दान के अधिक आवेगी स्वरूपों जैसे क़ि भिखारियों को भिक्षा देना, मंदिर की हुंडी में पैसा दान करना या रमज़ान के दौरान सदक़ा देना, त्योहारों के दौरान भोजन करवाना और पैसा वितरित करना अथवा वृद्ध आश्रम में स्वेच्छा से समय देना आदि के लिए भी स्थान है.

यहाँ एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि भारत में व्यक्तिगत दान में वृद्धि निरंतर जारी है. इसका संकेत 2014 वर्ल्ड गिविंग इंडेक्स और इंडिया फिलैंथ्रॉपी रिपोर्ट 2021 से मिलता है, जिनमें कहा गया है कि पिछले वर्ष की तुलना में 2020 में निजी क्षेत्र द्वारा चन्दा उगाही में 23 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.

जो चीज़ इन दो स्पष्ट रूप से भिन्न स्वरूपों को आपस में बांधती है वह है परोपकार और करुणा की भावना जो दान देने के कृत्य की नींव में है.

जैसा कि हाल ही में फैली कोविड -19 महामारी के दौरान देखा गया था इन दोनों स्वरूपों के अपने- अपने गुण है. यह एक ऐसे तेज़ी से बदलते हुए (कलाइडस्कापिक) सामाजिक आंदोलन को प्रोत्साहित करता है जहां आवश्यकता की घड़ी में दान और परोपकार का आपस मे मेल होता है और फिर वे एक दूसरे मे पूरी तरह घुल-मिल जाते हैं.

क्योंकि ईसप हमें याद दिलाते है, ‘दया का कोई भी कर्म, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, कभी भी व्यर्थ नहीं जाता.’

(लेखिका अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं और अशोका यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर सोशल इम्पैक्ट एंड फिलैंथ्रोपी में फेलो हैं. वह @MaliniBhattach6 से ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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