‘हम तो ठहरे अजनबी कितनी मुलाकातों के बाद- खून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद.` ये पंक्तियां 10वीं क्लास का विद्यार्थी पढ़ें तो इसमें हर्जा क्या है जो सीबीएसई ने इसे पाठ्यपुस्तक से हटाने का निर्णय लिया ?
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जयकारों से भरे इस बुलडोजरी समय में क्या कविता की इन पंक्तियों को इसलिए आपत्तिजनक मानें कि उनका रचयिता बंटवारे के बाद पाकिस्तान चला गया, वहां तानाशाह हुकूमतों से लड़कर जेल जाता रहा और एशिया के महानतम कवियों में गिना गया ? या आपत्तिजनक यह है कि पंक्तियों का रचयfता दिल से सूफी, दिमाग से कम्युनिस्ट और नाम से मुसलमान था, कि उसकी कविता को मुल्क-मजहब-भाषा के किसी एक कठघरे में बांधना मुश्किल है ? या फिर इन पंक्तियां का उर्दू में होना आपत्तिजनक है जो अब पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा है भले उसकी पैदाइश और परवरिश कभी के हिन्दुस्तान में हुई ?
कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है
सीबीएसई ने कारण नहीं बताया लेकिन फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की दो-दो कविताओं को पाठ्यपुस्तक से हटाने का फैसला लिया. उसने साल 2022-23 के लिए अकादमिक पाठचर्या का जो पीडीएफ अपनी वेबसाइट पर अपलोड किया है उसमें दर्ज है कि एनसीईआरटी की लोकतांत्रिक राजनीति-2 शीर्षक पुस्तक के पृष्ठ 46, 48 और 49 के चित्र पाठ में शामिल नहीं हैं. ये चित्र `धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति` नाम के उप-पाठ का हिस्सा थे. लेख में ऊपर जिस शेर का जिक्र है वह पृष्ठ 48 पर है. पृष्ठ संख्या 46 पर फ़ैज़ साहब की एक और कविता है.
चश्म-ए-नम, जान-ए-शोरिदा, काफी नहीं
तोहमत-ए-इश्क-ए-पोशीदा काफी नहीं
आज बाजार में पा-ब-जौलां चलो.
सीबीएसई अपने को`शिक्षा के क्षेत्र में `समानता और उत्कृष्टता के लिए प्रतिबद्ध` बताती है. उसने समाज-विज्ञान के पाठ्यक्रम के जो उद्देश्य बताये हैं उनमें एक हैः छात्रों को भारतीय संविधान के मान-मूल्यों के महत्व को समझाना और उम्मीद बांधी गई है कि छात्र समकालीन भारत को उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देख-समझ पायेंगे. क्या यह अनुमान लगाना ठीक होगा कि सीबीएसई को फ़ैज़ का शे’र पाठ्यक्रम (समाज-विज्ञान) के उद्देश्य को पूरा करने में बाधक लगा? ना, ऐसा नहीं कह सकते खासकर फ़ैज़ साहब के हटाये गये शे’र के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को देखते हुए.
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खून के धब्बे, बांग्लादेश और `फ़ैज़`
फ़ैज़ साहब की हटायी गई पंक्तियों का एक विशेष ऐतिहासिक संदर्भ है जो यह बताने को काफी है कि अन्याय जहां कहीं हो उसका प्रतिकार ही फ़ैज़ की शायरी का धर्म रहा. दूसरे शब्दों में कहें तो पाकिस्तान का नागरिक होना कभी फ़ैज़ साहब के लिए ऐसी बाधा ना बना कि वे पाकिस्तानी सैनिकों के हाथों बांग्लादेश मुक्ति-संग्राम के दौरान हुए नरसंहार की अनदेखी कर जायें.
फ़ैज़ साहब ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के साथ हो रही नाइंसाफियों के बारे में पाकिस्तान के हुक्मरानों को चेताया था. साल 1970 के 7 दिसंबर को पाकिस्तान में पहली बार स्वतंत्र रीति से आम चुनाव हुए. शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग ने जबर्दस्त जीत हासिल की लेकिन मुजीबुर्रहमान को अविभाजित पाकिस्तान का प्रधान बनाने की जगह जेल में डाल दिया गया. इस वक्त फ़ैज़ लैल-ओ-निहार नाम के साप्ताहिक के संपादक थे. इस साप्ताहिक के जरिए फ़ैज़ साहब ने आगाह किया कि अगर 3 मार्च 1971 को प्रस्तावित नेशनल असेम्बली को रोक दिया जाता है तो फिर पाकिस्तान का इतिहास बदल जायेगा. लैल-ओ-निहार की यह चेतावनी जैसे भविष्यवाणी साबित हुई. साल 1971 के मार्च से शुरु हुए नरसंहार के खून में डूबा पूर्वी पाकिस्तान आखिर को बांग्लादेश बना !
साल 1974 में फ़ैज़ साहब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ पहली और आखिरी बार स्वतंत्र बांग्लादेश के दौरे पर गये. लेकिन उन्हें बांग्लादेशी अवाम के बीच अपने लिए पहले सी गर्मजोशी ना दिखी. फ़ैज़ के बहुत सारे दोस्त उनसे नहीं मिले. कुछ पाकिस्तानी सेना के हाथों मारे गये थे और कुछ ने चुप्पी साध ली थी—उन्हें लग रहा था कि फ़ैज़ ने नरसंहार के प्रतिकार में अपेक्षित भूमिका नहीं निभायी. मुल्क और दोस्ती के दो-फाड़ होने के ऐसे ही उदास वक्त में फ़ैज़ लिखी थी वह मशहूर ग़ज़ल—
हम के ठहरे अजनबी इतने मदारातों के बाद
फिर बनेंगे आश्ना कितनी मुलाक़ातों के बाद
कब नज़र में आयेगी बेदाग़ सब्ज़े की बहार
ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
फ़ैज़ के बारे में बांग्लादेश में अब भी सवाल किया जाता है कि नरसंहार के दिनों में वे चुप क्यों थे? फ़ैज़ के चाहने वाले जवाब में उनकी दो मशहूर कविताएं सुनाते हैं. दोनों ही कविताओं में बांग्लादेश के नरसंहार से फ़ैज़ के दिल में उपजे दुख और क्रोध को पढ़ा जा सकता है. ऐसी पहली कविता की शुरुआती पंक्तियां हैं—
सजे तो कैसे सजे क़त्ल-ए-आम का मेला
किसे लुभाएगा मेरे लहू का वावैला
मिरे नज़ार बदन में लहू ही कितना है
चराग़ हो कोई रौशन न कोई जाम भरे…
और, नरसंहार के प्रतिकार में लिखी ऐसी दूसरी कविता में एक जगह आता हैः
और अब हर शक्लो-सूरत
आलमे-मौजूद की हर एक शै
मेरी आंखों के लहू से इस तरह हमरंग है
ख़ुरशीद का कुन्दन लहू
महताब की चांदी लहू
सुबहों का हंसना भी लहू
रातों का रोना भी लहू
यह कविता एक प्रार्थना पर खत्म होती हैः
चारागर ऐसा न होने दे
कहीं से ला कोई सैलाबे-अश्क
जिससे वज़ू
कर लें तो शायद धुल सके
मेरी आंखों, मेरी ग़रद-आलूद आंखों का लहू
जाहिर है, धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति के आपसी उलझाव को समझाने और नुकसान बताने के उद्देश्य से लिखे गये पाठ में फ़ैज़ साहब के शे’र को रखना छात्रों के लिए पूरे भारतीय उप-महाद्वीप की राजनीति को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने-देखने का एक बुलावा भी है. फिर पाठ्यक्रम के उद्देश्य को पूरा करने वाली कविताओं को क्यों हटाया सीबीएसई ने ?
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
क्या सीबीएसई अकादमिक जरुरतों से नहीं बल्कि सियासत की हवाओं का रुख भांपकर यह तय कर रही है कि छात्रों को क्या पढ़ाया ठीक होगा और क्या नहीं ? जवाब है—हां ! मसलन, सीबीएसई सिर्फ फैज साहब की कविता से ही नहीं बल्कि `भारतीय कृषि पर वैश्वीकरण के प्रभाव` बताते पाठ से भी खफा है. यह एनसीईआरटी की 10 वीं क्लास किताब समकालीन भारत-2 के कृषि नामक अध्याय में है. भारतीय अर्थव्यवस्था में खेती-बाड़ी के महत्व को बताने वाले इस अध्याय में एक जगह लिखा है कि वैश्वीकरण के कारण भारतीय कृषि को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. साथी ही, एक अखबारनुमा पोस्टर दिया गया है जिसमें खेती-बाड़ी की बढ़ती लागत के बीच बढ़ती किसान-आत्महत्या, जीन-संशोधित बीजों के इस्तेमाल के खतरे आदि के बारे में खबरें संकलित हैं. सीबीएसई ने इस पूरे हिस्से को हटाने का फैसला किया है.
बीते साल देश ऐतिहासिक किसान-आंदोलन का साक्षी रहा और सरकार उसका मजाक बनाने पर उतारु रही. ऐसे में समझा जा सकता है कि सीबीएसई कृषि के महत्व को समझाने वाले पाठ से क्योंकर वैश्वीकरण और उसके प्रभावों की चर्चा को हटाना चाहती है. सोचिए, देश के प्रधानमंत्री समय-समय पर छात्रों से संवाद करते हैं, उन्हें इम्तहान के लिए उपयोगी सुझाव देते हैं. ऐसे संवादों में किसी रोज किसी तेजस्वी विद्यार्थी ने पूछ लिया कि किसान मजबूर क्यों है तो `मजबूत नेता-मजबूत भारत`वाली छवि का क्या होगा?
फ़ैज की कविताओं के साथ भी यही बात है. फ़ैज सरकारी नीतियों को रोकने-टोकने वाले नागरिक-संगठनों के प्रिय कवि हैं. फ़ैज़ के जिन कविता-पोस्टरों को हटाने का निर्णय हुआ है वे स्वयंसेवी संगठनों के बनाये हैं. एक पोस्टर सांप्रदायिक सौहार्द्र कायम करने के घोषित उद्देश्य से काम करने वाली संस्था `अनहद` का है. अनहद 2002 के गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि में बना. इसके संस्थापकों में गुजरात दंगों के बाद इस्तीफे देने वाले आईएएस अधिकारी हर्षमंदर का नाम शामिल है.
जाहिर है, सरकार को अगर जन-आंदोलन और आंदोलनकारियों से परहेज है तो फिर शिक्षा का सरकारी बोर्ड अपनी सरकार-भक्ति दिखाते हुए ऐसे पाठ पढ़ाने के जतन करेगा ही कि छात्र आंदोलनकारी ना बन जायें ! फ़ैज़ ने ऐसे ही वक्तों के लिखा थाः निसार मैं तिरी गलियों के ऐ वतन कि जहां / चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले…!
(लेखक जयप्रकाश विश्वविद्यालय, बिहार में असिस्टेंट प्रोफेसर तथा एनसीईआरटी के राजनीति विज्ञान की किताबों के अनुवादक हैं)
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