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शनिवार, 31 मई, 2025
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जातिगत असंतुलन से डगमगाता हिंदुत्व प्रोजेक्ट, यूपी में बीजेपी के सामने खड़ी होती नई चुनौती

आखिर क्षेत्रीय या राज्य स्तर पर ऐसा क्या घटा था जिसके कारण चुनावी राजनीति का पूरा चरित्र ही बदल गया? जबकि राजनीतिक तौर पर उत्तर प्रदेश पिछड़ों और दलित राजनीतिक चेतना को अभिव्यक्त करने वाले राजनीतिक दलों का मज़बूत उदाहरण पेश करता रहा है.

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कैसे उत्तर प्रदेश में हिंदुत्व का जनाधार बना था? कैसे एक साथ दलितों और पिछड़ों को साध ले जाती है भाजपा? क्या यह सवाल उत्तर प्रदेश के आगामी 2027 विधानसभा चुनाव में प्रासांगिक रह जाएंगे? 2024 में लोकसभा चुनाव के जातिगत समीकरण यह बताते हैं कि पिछड़ी जातियों में कुर्मी और कोयरी जो उत्तर प्रदेश में यादव के बाद या कुछ हद तक उसके बराबर एक मज़बूत जाति है. इन जातियों ने 61 प्रतिशत वोट एनडीए को दिया था जो इंडिया गठबंधन के मुकाबले 27 प्रतिशत ज्यादा है. वही गैर-जाटव के 29 प्रतिशत वोट भाजपा को मिले और 56 प्रतिशत वोट इंडिया गठबंधन के हाथ लगे. ये वे जातिगत समीकरण है जो उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है.

दलितों और पिछड़ों कि लामबंदी अब भारतीय राजनीति के क्षेत्रीयकरण तक समिति नहीं रह गई है, बल्कि इसका असर राष्ट्रीय राजनीति पर भी पड़ता है. जबकि 2014 से पहले ख़ासकर उत्तर प्रदेश में क्षेत्रीय दलों के उभार के कारण भारत में गठजोड़ की एक ऐसी राजनीति का विकास हुआ था जिसमें कोई भी राष्ट्रीय पार्टी पिछड़ी जातियों की क्षेत्रीय पार्टियों का सहयोग लिए बिना केंद्र में सरकार नहीं बना सकती थी.

ज़ाहिर है कि पिछड़ी राजनीति का यह अभूतपूर्व उभार हमें इस सवाल की ओर ले जाता है कि आख़िर क्षेत्रीय या राज्य स्तर पर ऐसा क्या घटा था जिसके कारण चुनावी राजनीति का पूरा चरित्र ही बदल गया? जबकि राजनीतिक तौर पर उत्तर प्रदेश पिछड़ों और दलित राजनीतिक चेतना को अभिव्यक्त करने वाले राजनीतिक दलों का मज़बूत उदाहरण पेश करता रहा है.

बीएसपी का ब्राह्मण प्रेम और कमजोर गढ़

सपा और बसपा दोनों न केवल राजनीतिक लामबंदी से पिछड़ों और दलितों की राजनीतिक चेतना को सत्ता का आकार दिया बल्कि सूबे के मुख्यमंत्री रह कर नए कृतिमान भी गढ़े. गौरतलब है कि दोनों पार्टीयों की लामबंदी ने पिछड़ी और दलित जातियों को एक समरूप समूह मानती रही. जबकि इन जातियों के बीच सामाजिक और आर्थिक हैसियत को लेकर बढ़ते आपसी तनाव को इन दोनों क्षेत्रीय दलों ने कभी प्राथमिकता नहीं दी.

इस बात को भी कभी राजनीति सुधार के आवरण में नहीं लाया गया कि रामजन्मभूमि आंदोलन के समय जिन समूहों ने नेतृत्व और कारसेवा कि थी उनमें पिछड़ों और गैर जाटव की संख्या सबसे ज़्यादा थी. जिन साध्वियों ने इस गोलबंदी में सबसे प्रमुख भूमिका निभाई, उनमें एक उमा भारती थी जो मध्यप्रदेश के लोधी समुदाय से आती थी. इस आंदोलन की सबसे जुझारू भूमिका निभाने वाले संगठन बजरंग दल की कमान संभालने वाले विनय कटियार कुर्मी जाति से आते थे.

साध्वी ऋतम्भरा पंजाब के हलवाई समुदाय से आती थी. उस समय के गोरखनाथ पीठ के महंत अवैधनाथ राजपूत होते हुए भी पिछड़ी जातियों में उनका प्रभाव ज्यादा था. यही वजह थी कि 1990 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत भाजपा को मिला. कल्याण सिंह इस सरकार के अगुवा बने जो खुद पिछड़ी जतियों में लोधी समाज से आते थे. कल्याण सिंह के मुख्यमंत्री बनने के बाद मानों भारतीय राजनीति का केंद्र अयोध्या हो गया हो. यहीं से हिंदूत्व ने एक क्षेत्रीय आधार भी तैयार करना शुरू कर दिया था.

इसका एक कारण यह भी था कि इन दोनों दलों (सपा और बसपा) ने क्षेत्रीय प्राथमिकताओं को नज़रअंदाज़ करते हुए सत्ता कि महत्वाकांक्षा को प्राथमिकता देने लगी थी. मसलन, पार्टी ने उन नेताओं को स्वीकार करना शुरू कर दिया जिनका संबंध पार्टी की विचारधारा से कोई सरोकार नहीं था. खासकर बसपा, 2000 के दशक में पार्टी के पास जो एक मुश्त दलित वोट थे जिनके दम पर बसपा राजनीति हुंकार भरती थी.

उनके सशक्तिकरण का आकलन भी जग ज़ाहिर होता गया. 2007 की बसपा सरकार में बढ़ते ब्राह्मणों के वर्चस्व ने दलितों कि समरूपता को बिखेर दिया. चमार समुदाय जो बसपा के पारंपरिक वोटर थे इन्हे भी कभी कभी बसपा से मिलने वाले संरक्षण और लाभ से वंचित किया जाने लगा. इन भूमिधारी जतियों से आए विधायकों द्वारा अपने ही समुदाय के लोगों को दिया गया संरक्षण इस हद तक प्रभावी होता गया कि चमार खेतिहर मजदूरों और बसपा के कार्यकर्ताओं के लिए ऊंची जातियों और ओबीसी किसानों द्वारा किए गए उत्पीड़न और शोषण कि घटनाओं कि रिपोर्ट करना भी कठिन हो गया था.

दूसरी तरफ, राजनेता पैसा खर्च करके पार्टी की तरफ से चुनाव लड़ने के लिए तैयार रहते थे. यह प्रक्रिया पार्टी को संगठनात्मक रूप से कमज़ोर करती गई क्योंकि पार्टी के अंदर ऐसे नेताओं की भरमार हो गई जो किसी न किसी पार्टी को छोड़कर आए थे.

तीसरा, अधिक नुक़सानदेह बात यह थी कि बसपा प्रमुख मायावती ने पार्टी संगठन में अन्य नेताओं को उभरने नहीं दिया. उन्हें इस बात का डर हमेशा से था कि पार्टी में उनके खिलाफ वैकल्पिक सत्ता या नेता उभर सकता है. मायावती के इस मनमानेपन से पार्टी के कई नेता पार्टी छोड़ कर चले गए. इनमें कई नेता ऐसे थे जो मायावती को दलित जनाधार के साथ साथ पिछड़ों और सवर्णों को भी बसपा के जनाधार से मिला देने की कुव्वत रखते थे. इसी के साथ बहुत से बामसेफ नेताओं को भी किनारे कर दिया गया.

मायावती के इस रवैए ने उन्हें अपने गढ़ में भी कमज़ोर कर दिया. कांशीराम के बाद बसपा की हालत उत्तर प्रदेश के बाहर टूटी हुई नाव की तरह होती गई जिसे धीरे धीरे नदी अपने आगोश में लेकर डूबा देती है. उत्तर प्रदेश में बसपा की सोशल इंजीनियरिंग का खामियाज़ा पिछड़ी जातियों को भरना पड़ा.

अकेली पड़ी बीएसपी

ओबीसी कांशीराम के बहुजन विचार के मज़बूत आधार थे. 1995 के आस पास सोनेलाल पटेल, राम लखन वर्मा, जंग बहादुर पटेल और कुर्मी नेताओं के पार्टी छोड़ देने के बाद पिछले दशकों के दौरान अन्य पिछड़ी जातियां पाल, निषाद, राजभर, कोयरी, सैनी आदि को पार्टी में हाशिये पर रखा गया. और जब मायावती ने उत्तर प्रदेश में सत्ता पर क़ाबिज़ होने के लिए ब्राह्मणों के साथ गठबंधन किया. जिसकी कमियां 2009 से ही समाने आने लगी थीं.

पार्टी ने इस पक्ष पर कभी भी विचार नहीं किया कि जाटव या चमारों के साथ अन्य दलित जातियां बसपा का साथ क्यों छोड़ती चली जा रही हैं? उच्च जातियों के प्रत्याशियों को पार्टी में अधिक सीटें देना और पिछड़े नेताओं को पार्टी मीटिंग में बोलने न देना. जिसका एक उदहारण वर्तमान में भाजपा के सहयोगी संगठन की भूमिका निभा रहे ओमप्रकाश राजभर भी थे. यही कारण है बसपा आज उत्तर प्रदेश में तीसरे नंबर की पार्टी बन चुकी है.

सोहनलाल पटेल का अपना दल और ओमप्रकाश राजभर की भारतीय समाज पार्टी जिनकी जड़े बसपा में थी वह भाजपा का दामन थाम कर सत्ता तक पहुंचने का आधार बने हुए हैं. इसी तरह चुनाव से कुछ ही महीने पहले बसपा से निष्काषित किए गए स्वामी प्रसाद मौर्य ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में बसपा के कोयरी वोटरों को हिंदुत्व के ध्वज के नीचे लाकर खड़ा कर दिया.

बहुजन और सर्वजन के बिखरते मेल ने 2014 के लोकसभा चुनाव में और 2017 के विधान सभा चुनाव में पिछड़ों और दलितों को हिंदुत्व के राजनीतिक समीकरण के बीच लाकर खड़ा कर दिया. यह भी सच है कि 2014 में भाजपा के प्रति बढ़ते दलित वोटरों में ज्यादा संख्या शहराती, शिक्षित, मध्यवर्गीय और तकनीकी रूप से जानकार वर्ग जो मोबाइल में मीडिया के साथ जुड़ा हुआ ही समूह शामिल था.

लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में हिंदुत्व की गति मंद होती दिखती है. अयोध्या और वाराणसी जिसे बीजेपी हिंदुत्व परियोजना के केंद्र बिंदु के रूप में लंबे समय से प्रस्तुत करती रही वहीं भाजपा ने सबसे पहले जनाधार खोया. सशक्त हिंदुत्व के लिए राम मंदिर का निर्माण, अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट, मंदिर के आस पास की चौड़ी सड़कों के निर्माण भाजपा के घोषणापत्र से मेल तो खाता है लेकिन यह विकास स्थानीय लोगों के लिए विस्थापन और उपेक्षा का कारण बन गया. वहीं वाराणसी में भी भाजपा के प्रदर्शन में गिरावट आई है. 12 लोकसभा सीटों में भाजपा इस बार तीन सीटें ही जीत सकी जिसमें की एक सीट उसके सहयोगी दल (अपना दल) के नेता सोनेलाल ने जीती है. बाकि 9 सीटें जैसे जौनपुर, मछलीशहर, चंदौली, राबर्ट्सगंज, गाजीपुर, घोसी, लालगंज, आजमगढ़ और बलिया की सीटों पर समाजवादी पार्टी ने जीत दर्ज़ की थी.

यह वही क्षेत्र है जहां भाजपा 2014 के लोकसभा चुनाव में और 2017 के विधानसभा चुनाव में यादव बनाम गैर यादव, जाटव बनाम गैर जाटव के समीकरण को बैठाने में क़ामयाब  हुआ करती थी.

2027 के आगामी विधानसभा चुनाव में हिंदुत्व विचारधारा का जनता के साथ रिश्ता दो तरफा होता हुआ नज़र आता है. एक ओर भाजपा ने जिन धार्मिक प्रतीकों, मंदिरों, मूर्तियों और रामराज्य जैसे विमर्शों के ज़रिए एक सांस्कृतिक एकता बनाने की कोशिश की थी उसे आवश्यकतों की राजनीति ने चुनौती देना शुरू कर दिया है.

दूसरी ओर, जातिगत और वर्गीय हितों की बढ़ती प्राथमिकताएं हिंदुत्व परिजयोजना में दरार पैदा कर रही है. अभी तक के हिंदुत्व की परियोजनाओं में जातिगत समीकरण के लिए कोई रणनीति नहीं दिख रही है खास उन जातियों के लिए जो 2022 के चुनाव में सपा और बसपा का साथ छोड़ कर भाजपा के साथ आई थी. हिंदुत्व का अगर जातिगत समीकरणों से तालमेल नहीं बैठ पाया तो उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा के जनाधार में गिरावट आ सकती है.

डॉ. प्रांजल सिंह, दिल्ली यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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