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Friday, 8 November, 2024
होममत-विमतक्या मोदी अपने तानाशाही रवैये को छोड़कर कोविड काल में सर्वसम्मति की राह पकड़ सकते हैं

क्या मोदी अपने तानाशाही रवैये को छोड़कर कोविड काल में सर्वसम्मति की राह पकड़ सकते हैं

कंसेंसेस और आपसी सलाह इन दो चीज़ों का प्रदर्शन पिछले छह सालों में सत्तासीन रहते हुए मोदी ने नहीं किया. क्या मुख्यमंत्रियों के साथ मैराथन बैठकें कोविड से डील करने में प्रभावी साबित होंगी और क्या ये नया संकेत बनेंगी.

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ एक मैराथन बैठक का दृश्य आंखों में संजोने वाला था. शांत और तन्मयता से मुख्यमंत्रियों की बात सुनते मोदी को देखकर खुद को चूंटी कांटनी पड़ी की वाकई ये हो रहा है या कोई सपना है, क्योंकि जिस सत्तासीन मोदी को हमने देखा है उन्हें किसी से सलाह मशविरे की जरूरत महसूस नहीं होती.

आपको ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं- यही कोई 40 दिन पहले ही मोदी ने लॉकडाउन 1 की घोषणा से पहले किसी भी राज्य से इस बारे में कोई बातचीत नहीं की जिन्हें इसपर अमली जामा पहनाना था.

राष्ट्र के नाम संबोधन के वक्त या वैसी भी जब कभी मोदी ने बड़ी घोषनाएं की उसमें किसी से व्यापक सलाह मशविरा लेते वे नज़र नहीं आए. चाहे बात नोटबंदी की हो या अनुच्छेद 370 को हटाने की या फिर हालिया लॉकडाउन की ही बात हो.

पर कोविड-19 महामारी एक किस्म का बदलाव लाई है. राज्य के मुख्यमंत्रियों के साथ कई बैठकें वीडियो कांन्फ्रेंस के जरिए हुई हैं. पर शुरुआती बातचीत चंद मुख्यमंत्रियों तक सीमित थी. बैठकों में एक तिहाई मुख्यमंत्रियों की शिरकत होती जिनमें से तो कई छोटे प्रदेशों के थे और इनमें किसी को भाषा की दिक्कत आ जाती तो किसी को बोलने नहीं दिया जाता था इसलिए वे इसमें शामिल नहीं होते.

11 मई की बैठक- आगे के संकेत

पर 11 मई की बैठक उस मायने में अलग थी- ये न केवल व्यापक थी पर मुख्यमंत्रियों ने इसमें अपने मन की बात भी कही. ममता बनर्जी ने कोविड के नाम पर हो रही ‘राजनीति’ पर गुस्सा दिखाया तो कई मुख्यमंत्रियों ने उस समस्या की बात की जो उन सबको झेलनी थी- प्रवासी मज़दूरों की समस्या.

प्रधानमंत्री ने राज्य के सभी मुख्यमंत्रियों से मौजूदा लॉकडाउन के 17 मई को खत्म होने के बाद आगे क्या करना है इसके लिए आईडिया मांगे. सभी राज्यों से कहा गया है कि व्यापक रणनीति पर विचार करें और 15 मई तक उसे केंद्र को दें. यहा तक तो सब चंगा है.


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तो क्या इसे आने वाले समय का संकेत माने. एक संकेत कि मोदी की आने वाले दिनों की कार्यशैली उससे काफी अलग होगी जोकि पिछले 6 सालों में दिखी है. क्या कोविड-19 भारत को संघीय राज्य बनाएगा जैसा उसकी परिकल्पना है या फिर वन मैन शो जो कि मोदी राज में अब तक देखने को मिला है. ये शासन अपने नेता की दृष्टि और उसके सरप्राइज देने की फितरत पर चलता है जिसका मतलब साफ है कि इसमें सलाह मशविरे की कोई खास जगह नहीं बचती.

अपने कार्यकाल में मोदी ने योजना आयोग को खत्म कर दिया, फिर फैसला आया राष्ट्र के नाम 8 नवंबर 2016 को संदेश के जरिए कि देश में नोटबंदी लागू हो रही है. फिर मोदी के दूसरे कार्यकाल मे ताबड़तोड़ फैसले लिये गए जिनकी रफ्तार और जिनकी घोषणा ने सभी को हैरत में डाल दिया. ज्यादातर फैसलों में किसी व्यापक सलाह मशविरा किया गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता. चाहे वो तीन तलाक हो, संविधान के अनुच्छेद 370 को हटाने का मामला हो जो जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देता है या फिर नागरिकता संशोधन कानून हो.

राष्ट्रव्यापी विरोध और आक्रामक विपक्ष के स्वरों से भी मोदी के कानों में जूं नहीं रेंगी. बल्कि इसने उनकी तानाशाह होने की रेप्युटेशन को और पुख्ता कर दिया. कहा जाता है कि उनके अपने मंत्रियों से भी सलाह लेने की आदत नहीं तो विपक्ष तो फिर दूर की कौड़ी है. ऐसा प्रतीत होता है कि मोदी परंपरा और सही दिखने की किसी स्पर्धा में नहीं हैं.

क्या मोदी अपने तानाशाही व्यवहार को छोड़ेंगे

सबसे पहले जब कोविड का खतरा वास्तिवक हो गया तो उन्होंने राष्ट्र को संबोधित करने की राह अपनाई और 22 मार्च को एक दिन के जनता कर्फ्यू का आह्वान कर दिया. ये लगभग बॉलीवुड में किसी नई फिल्म के आगामी ट्रेलर सा था. वे एक बार फिर 24 मार्च को 21 दिन के लॉकडाउन का फरमान लेकर राष्ट्र के समक्ष आए- चार घंटे का समय दिया और लॉकडाउन लागू हो गया. मोदी ने कोविड का ‘इलाज’ सुझाया जिसे सभी को मानना था.

अब सोमवार 11 मई की बैठक में राज्यों से कहा गया है कि वो अपनी-अपनी योजना बनाएं. कोविड 19 पर कैसे नियंत्रण पायें, कितना, कैसे लॉकडाउनक करना चाहते हैं और क्या आगे की रणनीति होगी. पर राज्य भी बैठक में केंद्र पर दिशानिर्देशों के लिए आश्रित दिखे और हां वित्तीय मदद के लिए भी.

ये मोदी का अभी तक का सबसे लोकतांत्रिक चेहरा था. टीवी पर धैर्य से मोदी सभी मुख्यमंत्रियों की बात सुन रहे हैं, घंटों बैठक चल रही है, इसने सोशल मीडिया में लोगों की बांछे खिला दी. कांग्रेस ने ऐसी बैठकें हर माह करने का सुझाव दिया.


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तो सवाल ये है कि क्या ये आपदा मोदी के कामकाज के तरीके में व्यापक परिवर्तन कर पायेगा और क्या वे राज्यों के महासंघ के मुखिया के रूप में काम कर पायेंगे. क्या मोदी अपने तानाशाही व्यवहार को छोड देंगे और क्या उपर से आदेश देने की बजाय मिल बैठ कर आपसी सलाह से निर्णय लेना शुरू कर देंगे. ताकि सभी की सामूहिक सूझबूझ से देश इस गंभीर आपदा का सामना कर पाये? एक ऐसी आपदा जिसकी तुलना हम अपने जीवन काल की किसी आपदा से नहीं कर सकते.

संयुक्त सरकार- एक विचार

या इस बात की आशा करना कि भेड़िया अपनी चाल बदल लेगा- कुछ ज़्यादा ही आशा करना तो नहीं. अब देखिए मोदी ने मुख्यमंत्रियों से कोविड से लड़ने के लिए व्यापक योजना देने को कहा और उसके अगले दिन ही राष्ट्र को संबोधित कर 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा कर दी. वे 15 मई तक रूक सकते थे जब मुख्यमंत्री अपनी योजनाएं उन्हें पहुंचाते. और ऐसा कर उन्होंने फिर सुर्खियां और तालियां बंटोर लीं. क्या राष्ट्र उन्हें सुनने के लिए रुक नहीं सकता था. रुक सकता था न!

ऐसे रवैये में क्या कभी आप सोच भी सकते हैं कि एक आपसी सहमति की सरकार गठित की जा सकती है जिसमें सत्ताधारी दल और विपक्षी पार्टी पॉलिटिक्स के ऊपर उठ कर देश को संकट से उबारेगी. शायद कुछ वैसे, जैसे विन्सटन चर्चिल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इंग्लैंड में गठित की थी– एक नैशनल गॉवरन्मेंट या यूं कहे कि सभी राजनीतिक दलों की साथ मिलकर सरकार. कुछ ऐसे ही विचार सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जस्टिस मार्कंडेय काट्जू ने भी दिए हैं.

या फिर कुछ उस तरह की कोशिशें जो चंद्रशेखर राव का 2019 चुनावों के पहले सपना थी- सभी गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी विपक्षी दलों का गठजोड़.


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क्या हम सोच सकते हैं कि कोविड काल में सरकार अपने सभी फैसले सभी प्रमुख विपक्षी दलों का साथ लेकर लें? या फिर ऐसा सोचना भी नामुमकिन है क्योंकि भाजपा को पूर्ण बहुमत प्राप्त है और विपक्ष की हालत भी पतली ही है. पिछले चुनाव के पहले सोनिया गांधी के घर समूचे विपक्ष को एकजुट करने के लिए महाभोज की कवायद हो या कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड की महारैली– विपक्ष की दरारें तब भी स्प्ष्ट थी और इसने किसी बड़ी विपक्षी एका का भी संकेत नहीं दिया था.

तो सौ टके का सवाल ये है कि क्या मोदी अब कंसेंसस बनाने वाले बनेंगे– क्या उनका आगे का कार्यकाल एक ऐसे नेता बनते हुए बीतेगा जो देश को इस आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य आपदा से उबारेगा– वो भी एक राजनेता की तरह और एक विनम्र जनता के नेता के रूप में. ये बात समय ही बतायेगा.

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