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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतक्या राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा कोई मौलिक बदलाव ला सकती है?

क्या राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा कोई मौलिक बदलाव ला सकती है?

अयोध्या की घटनाएं नई दिल्ली की सत्तावादी, सांप्रदायिक, पुरुषवादी शक्ति के एकीकरण का प्रतीक हैं.

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इन दिनों अयोध्या में राम मंदिर की चर्चा से दूर, देश-दुनिया में एक और घटना सुर्खियां बटोर रही है. और वह है 14 जनवरी से शुरू हुई भारत जोड़ो न्याय यात्रा, जिसके शीर्ष पर राहुल गांधी हैं. भारत को पूर्व से पश्चिम तक (पिछले साल उनकी दक्षिण-उत्तर यात्रा के पूरक के रूप में) पार कर रही है. 6,713 किमी की यह यात्रा, जो ज्यादातर बस द्वारा की जा रही है, 16 राज्यों से होकर गुजरेगी, जिसमें सभी के लिए न्याय का संदेश होगा.

अयोध्या की घटनाएं नई दिल्ली की सत्तावादी, सांप्रदायिक, पुरुषवादी शक्ति के एकीकरण का प्रतीक हैं. क्या न्याय की दृष्टि को बढ़ावा देकर भारत जोड़ो न्याय यात्रा इसका प्रतिकार कर सकती है, जिसमें लोकतंत्र की गहरी धारणाएं और जमीनी धारणाएं शामिल हैं? यह सवाल आगामी चुनावों पर पड़ने वाले तत्काल प्रभाव से कहीं आगे जाता है, न केवल भाजपा के दिमाग घुमा देने वाले संचार और वित्तीय दबदबे के कारण, बल्कि इसलिए भी कि हमें इस धारणा से परे जाने की जरूरत है कि लोकतंत्र केवल चुनावों और राजनीतिक दलों तक सीमित है.

भारत जोड़ो न्याय यात्रा के क्या हैं उद्देश्य

इस भारत जोड़ो न्याय यात्रा के तीन उद्देश्य हैं: आर्थिक न्याय (प्रत्येक भारतीय युवा के लिए नौकरी, और असमानता को समाप्त करना); सामाजिक न्याय (निर्णय लेने, एकता और सद्भाव में हाशिए पर रहने वाले भारतीयों की भागीदारी); और राजनीतिक न्याय (आंबेडकर के दृष्टिकोण, सभी भारतीयों के लिए गरिमा और सम्मान के संवैधानिक मूल्यों को बढ़ावा देना).

वर्तमान भारतीय संदर्भ में, ये महत्वपूर्ण उद्देश्य हैं. आजीविका का गंभीर संकट है (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, बेरोजगारी वर्ष 2000 के दशक की शुरुआत में 5.5 फीसदी से बढ़कर वर्ष 2023 में 9 फीसदी हो गई है), बढ़ती धार्मिक-जातीय नफरत और संघर्ष, शांतिपूर्ण लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर बेशर्म राज्य हमले, सत्ता और धन के दुरुपयोग को रोकने के लिए बनाए गए स्वतंत्र संस्थानों ( संवैधानिक निकाय, मीडिया, विश्वविद्यालय) में सरकारी घुसपैठ या दमन, श्रम और पर्यावरण कानूनों को कमजोर करने से सहायता प्राप्त पूंजीवाद, पारिस्थितिकी पतन और लाखों लोगों को प्रभावित करने वाला जलवायु बदलाव का संकट, और जहरीली मर्दानगी और पितृसत्ता को घृणित राज्य समर्थन (बिलकिस बानो मामला कई उदाहरणों में से एक है).

यह प्रतीकात्मक रूप से उचित है कि भारत जोड़ो न्याय यात्रा की शुरुआत मणिपुर में चल रहे जातीय संघर्ष और केंद्र सरकार द्वारा इसकी चौंकाने वाली उपेक्षा को देखते हुए हुई. ऐसा प्रतीत होता है कि यात्रा ने उत्तर-पूर्व भारत में एक राग छेड़ दिया है, जिससे मानवाधिकारों और पारिस्थितिकी उल्लंघनों से परेशान लोगों को अपने मुद्दों को उठाने का अवसर मिला है. उम्मीद है, इस यात्रा में जनसाधारण से संवाद के ऐसे मौके मिलते रहेंगे और मुंबई तक अपने पूरे रास्ते में लोगों की आवाज़ सुनी जाएगी.

लेकिन अगर वास्तव में भारत जोड़ो न्याय यात्रा को गहरे परिवर्तन को उत्प्रेरित करना है, तो उसे तात्कालिक चुनावी लाभ के विचारों से परे जाना होगा और जमीनी लोकतंत्र को मजबूत करने के दीर्घकालिक लक्ष्यों के बारे में सोचना होगा. उसका नेतृत्व इस बात का संकेत देता दिख रहा है. लेकिन इसे सार्थक रूप से करने के लिए, इसे देश भर में फैले असंख्य लोगों के बदलाव के कार्यों से जुड़ने और उनका समर्थन करने की आवश्यकता है. कृषि, शिल्प, वानिकी और मत्स्य पालन, छोटे विनिर्माण, समुदाय के नेतृत्व वाले पर्यटन, ओपन सोर्स प्रौद्योगिकियों, पर्यावरण-अनुकूल निर्माण और कई अन्य क्षेत्रों में सम्मानजनक आजीविका बनाने के लिए कई पहलें हैं. आजीविका बढ़ाने के लिए इस आधार का उपयोग करते हुए भारत के पारिस्थितिकी आधार को पुनर्जीवित करने और संरक्षित करने, प्रकृति और वन्य जीवन का सम्मान करने के प्रेरक उदाहरण हैं.

भारत में कई ऐसी भी पहल हैः लैंगिक समानता हासिल करने, यौन अल्पसंख्यकों के लिए सम्मान हासिल करने, विकलांग लोगों के लिए हर स्थान की पहुंच, पारंपरिक और आधुनिक दोनों चिकित्सा प्रणालियों के आधार पर सामुदायिक स्वास्थ्य को मजबूत करने, और ऐसी शिक्षा व्यवस्था, जो युवाओं को रचनात्मक तरीके से जिम्मेदार नागरिक बनने का मौका दे, बजाय चूहे-दौड़ वाली नौकरियों की आकांक्षा करने के, जो केवल पूंजीवादी मुनाफे और राज्य शक्ति को बनाए रखती हैं. ये सभी संकेत देते हैं कि लोकतंत्र नई दिल्ली में सत्ता पर कब्ज़ा करने के बारे में कम और उनके जीवन को प्रभावित करने वाले सभी निर्णयों में सबसे अधिक हाशिए पर मौजूद लोगों की आवाज़ को सक्षम करने के बारे में अधिक है.

कांग्रेस ने मौलिक रूप से विरोधाभासी नीतियों को बढ़ावा दिया

हाल ही में न्याययुक्त, समतामूलक और सतत भारत के लिए जारी जन घोषणापत्र ‘में 85 राष्ट्रीय आंदोलनों और संगठनों ने एक एजेंडा पेश किया है, जो इस तरह की जमीनी पहल पर आधारित है. यह व्यावहारिक और नीतिगत स्तर पर ऐसी कार्रवाइयां प्रस्तुत करता है, जो भारत को उन लक्ष्यों की ओर ले जा सकती हैं, जिन्हें भारत जोड़ो न्याय यात्रा ने सूचीबद्ध किया है, साथ ही पारिस्थितिकी और सांस्कृतिक न्याय के लक्ष्य भी इसमें शामिल हैं.

सच कहूं तो, मुझे इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि कोई भी राजनीतिक दल इस तरह के दीर्घकालिक दृष्टिकोण को अपनाएगा, सत्ता में आने पर भी इसे हासिल करने की कोशिश करना तो दूर की बात है. सरकार में रहते हुए कांग्रेस ने मौलिक रूप से विरोधाभासी नीतियों को बढ़ावा दिया है. एक ओर, 1991 में आर्थिक ‘सुधारों’ ने भारत को पारिस्थितिकी पतन और संस्थागत श्रमिक असुरक्षा (असंगठित या अनौपचारिक शेष 90 फीसदी से अधिक कार्यबल को बनाए रखना या बढ़ाना) के मार्ग पर तेजी से नीचे गिरा दिया. दूसरी ओर, वर्ष 2000 के दशक की शुरुआत में प्रबुद्ध नीति-निर्माण के कुछ वर्षों में, यही पार्टी कई अधिकार-आधारित कानूनों की एक श्रृंखला लेकर आई.

1990 के दशक में इसके द्वारा ग्रामीण और शहरी स्वशासन की दिशा में कुछ प्रगतिशील संवैधानिक संशोधन लाए गए थे, यद्यपि इसकी अपनी सरकारों ने उन्हें लागू करने के लिए कुछ नहीं किया. भारत की धर्मनिरपेक्षता की अनूठी दृष्टि को बनाए रखने, सभी धर्मों और आस्थाओं का समान रूप से सम्मान करने में इसका रवैया भी मिश्रित है (इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख विरोधी दंगों को कौन भूल सकता है?). भाजपा का अनूठा योगदान यह है कि वह कांग्रेस की विरासत के सभी प्रगतिशील तत्वों को त्याग रही है, जबकि प्रतिगामी तत्वों को तेज कर रही है (और अपने कुछ ऐसे तत्वों को इसमें शामिल कर रही है).

यदि भारत जोड़ो न्याय यात्रा के कुछ नेता नवउदारवादी अर्थशास्त्र और अल्पकालिक चुनावी लाभ से परे सोच रहे हैं, तो वे अभी भी दीर्घकालिक सकारात्मक परिवर्तन में योगदान दे सकते हैं, जिसमें प्रगतिशील नीतियां भी शामिल हैं, जहां वे सरकार में हैं. लेकिन इसके लिए, उन्हें ऊपर वर्णित प्रकार के जन आंदोलनों और सामुदायिक पहलों के साथ एक सतत, सम्मानजनक संबंध बनाने की आवश्यकता है. उन्हें गढ़चिरौली (महाराष्ट्र) के आदिवासी गांवों से निकलने वाले नारे को अपनाने और उसे हासिल करने में मदद करने की जरूरत है: “हम दिल्ली में सरकार चुनते हैं, लेकिन हमारे गांव में, हम ही सरकार हैं”. या जहीराबाद (तेलंगाना) की दलित महिला किसानों का संदेश: “बीज और ज़मीन हमारी है, भोजन हमारा संप्रभु अधिकार है, बहुराष्ट्रीय निगमों और सरकारों द्वारा लाभ कमाने के लिए नहीं”. या कच्छ में युवा बुनकर क्या कह रहे हैं: “हम पहले से ही भारत में बनाते हैं, बहुराष्ट्रीय निगमों के आने की जरूरत क्यों है, वे केवल हमें विस्थापित करते हैं?”

भारत जोड़ो न्याय यात्रा का गीत कहता है, “हम पहुंचाएंगे हर घर तक, न्याय का हक, मिलने तक (हम हर घर तक पहुंचेंगे, जब तक न्याय का अधिकार हासिल नहीं हो जाता)”. इसे प्राप्त करने के लिए राजनीति में सच्चे जन-आधारित स्वराज की दिशा में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है, ऐसा अर्थशास्त्र जो जीवन को उसके सभी रूपों में केंद्रित करता है, और एक ऐसा समाज जहां हर कोई बिना किसी भेदभाव के फल-फूल सके. चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने पर आमादा राजनीतिक दल, इन्हें हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध नहीं हैं, न ही लोकतंत्र शत्रुतापूर्ण चुनावों और निर्वाचित प्रतिनिधियों की शक्ति के आसपास केंद्रित है. लेकिन स्वराज की गहरी दृष्टि वाले राजनेता, पांच साल के चुनावी चक्र से परे के दृष्टिकोण और रणनीतियों को शामिल करते हुए, जमीनी स्तर पर समुदायों को ऐसा स्वराज हासिल करने में मदद कर सकते हैं.

अपनी हत्या से पहले, गांधीजी ने कांग्रेस पार्टी के संगठन से आग्रह किया था कि वे केवल नई दिल्ली से शासन करने की लालसा रखने के बजाय, जमीनी स्वराज हासिल करने के लिए पूरे देश में फैलें. यदि भारत जोड़ो न्याय यात्रा इसी दृष्टिकोण को बढ़ावा दे सकता है, तो यह अपने समग्र अर्थ में न्याय में योगदान करने में सक्षम हो सकता है. हम केवल इसकी आशा ही कर सकते हैं, क्योंकि भारत की वर्तमान दलगत राजनीति में ऐसा अन्य कुछ भी नहीं है, जो इस उद्देश्य के करीब दिखता हो.

(अशीष, कल्पवृक्ष संगठन के सदस्य हैं. लेख में अभिप्राय उनके निजी हैं.)


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