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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतक्या फर्जी दस्तावेजों के जरिए कोई गैर भारतीय लोकसभा या विधान सभाओं का चुनाव लड़ सकता है?

क्या फर्जी दस्तावेजों के जरिए कोई गैर भारतीय लोकसभा या विधान सभाओं का चुनाव लड़ सकता है?

सीएए-एनआरसी के बाद भी जन्म स्थान और जन्म तिथि के फर्जी प्रमाण पत्र के आधार पर भारतीय नागरिक होने का दावा किया जा सकता है ऐसा हुआ, और असम से कांग्रेस के टिकट पर एक व्यक्ति लगातार तीन बार लोकसभा भी पहुंचा.

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भारत में नागरिकता से संबंधित दस्तावेज जुटाना शायद बहुत मुश्किल नहीं है. इसका प्रमाण कांग्रेस के टिकट पर असम से तीन बार लोकसभा पहुंचे एमके सुब्बा का मामला सबके सामने है. उच्चतम न्यायालय ने अगर इसकी सीबीआई जांच का आदेश नहीं दिया होता तो शायद सुब्बा के जन्म स्थान और जन्म तिथि संबंधी प्रमाण पत्र फर्जी होने का तथ्य सामने नहीं आता.

हमारे देश के संविधान के प्रावधानों के तहत सिर्फ भारतीय नागरिक ही संसद और विधानमंडलों के लिये चुनाव लड़ सकते हैं. लेकिन दूसरे देश के एक नागरिक ने फर्जी दस्तावेजों के सहारे असम से लगातार तीन बार लोकसभा में कांग्रेस सदस्य के रूप में प्रतिनिधित्व किया.

कांग्रेस के सांसद का नाम था मणि कुमार सुब्बा. सुब्बा की नागरिकता का मसला उच्चतम न्यायालय पहुंचा था तो कांग्रेस के ही वरिष्ठ अधिवक्ता ने उनकी वकालत की थी. एमके सुब्बा का जन्म स्थान और जन्म तिथि की जानकारी देने संबंधी हलफनामे में विसंगतियां थीं और केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने उच्चतम न्यायालय को अपनी रिपोर्ट में इस तथ्य से अवगत कराया था.

संविधान के अनुच्छेद 84 (ए) के अनुसार एक व्यक्ति, जो भारत का नागरिक नहीं है वह संसद की सदस्यता के योग्य नहीं होगा. इसी तरह, राज्य विधान सभाओं की सदस्यता के बारे में अनुच्छेद 173 (ए) में भी प्रावधान है.


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मणि कुमार सुब्बा ने लोक सभा चुनाव के दौरान हर बार चुनाव हलफनामे में अपना जन्म स्थान और जन्म तिथि अलग अलग दर्शाई थी. मसलन 12वीं लोकसभा चुनाव के लिये नामांकन पत्र के अनुसार उनका जन्म असम के तेजपुर में 16 मार्च, 1951 को हुआ था लेकिन 14वीं लोकसभा में जन्म स्थान पश्चिम बंगाल का देबग्राम (दार्जिलिंग) हो गया और जन्म तिथि भी 16 मार्च, 1958 हो गयी थी.

मणि कुमार सुब्बा की नागरिकता का मसला 2005 में एक जनहित याचिका के माध्यम से उच्चतम न्यायालय पहुंचा था. यह याचिका बीरेन्द्र नाथ सिंह ने दायर की थी. याचिका में आरोप लगाया गया था कि वास्तव में सुब्बा का असली नाम मणि राज लिम्बो है और 1970 के दशक में नेपाल में एक हत्या करने के बाद वहां से भागकर भारत आए जहां उन्होंने अपना नाम मणि कुमार सुब्बा रख लिया था.

न्यायालय ने जब यह मामला केन्द्रीय जांच ब्यूरो को सौंपा तो उस वक्त इसे लेकर बहुत हंगामा हुआ था. लेकिन सीबीआई ने जब अगस्त 2008 में शीर्ष अदालत को बताया कि सुब्बा के दस्तावेजों की जांच से पता चला कि उसने खुद को भारतीय नागरिक साबित करने के लिये फर्जी तरीके से एक फर्जी जन्म प्रमाण पत्र हासिल किया था.

सीबीआई ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि चुनाव हलफनामे के साथ सुब्बा ने जो जन्म प्रमाण पत्र पेश किया है वह गलत तथ्य देकर छल से प्राप्त किया है क्योंकि इसमें बताया गया जन्म स्थान ना तो अस्तित्व में था और ना ही 1958 से पहले इसका मालिक फणीन्द्रनाथ सरकार थे.

सुब्बा का दावा था कि उसका जन्म असम के सिलीगुड़ी जिले में हुआ था. लेकिन सीबीआई ने उसके दावे की पोल खोलते हुये न्यायालय को बताया कि सुब्बा ने अलग-अलग कार्यों के लिये विभिन्न प्राधिकारों को अपने जन्म स्थान और जन्म तिथि के बारे में अलग-अलग जानकारी दी थी और इसलिए पहली नजर में वह तमाम अपराधों का दोषी है.

सीबीआई की रिपोर्ट में भी यही बताया गया कि सुब्बा नेपाली नागरिक है जिसका असली नाम मणि राज लिम्बो है जो नेपाल की इलाम जेल में हत्या की सजा भुगतने के दौरान भाग निकला था.

हालांकि सुब्बा ने हमेशा यह कहा कि वह लिम्बो नहीं है, जबकि उसके भाई और पिता इस उपनाम का इस्तेमाल करते थे.
सीबीआई की तीन रिपोर्ट के बावजूद उच्चतम न्यायालय ने जांच एजेंसी को एमके सुब्बा के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश देने से इंकार कर रिया था. न्यायालय ने इस मामले को उचित कार्रवाई के लिये सीबीआई के विवेक पर छोड़ दिया था.

कांग्रेस के इस विवादास्पद पूर्व सांसद का पिछले साल मई में राजधानी के एक अस्पताल में निधन हो गया था.

2021 जनगणना को लेकर एनआरसी का नहीं किया गया विरोध

अब जरा एमके सुब्बा प्रकरण की पृष्ठभूमि में सोचिये कि हमारे देश में कोई भी गैर भारतीय अपने संसाधनों के बल पर भारत की नागरिकता के फर्जी दस्तोवज तैयार करा सकता है. कोई नहीं जानता कि देश में इस तरह के फर्जी दस्तावेज कितने लोगों के पास होंगे. ऐसा संभव है कि भारतीय नागरिकता साबित करने के लिये फर्जी दस्तावेज का बंदोबस्त कराने के लिये कोई न कोई तंत्र सक्रिय है जिसका पर्दाफाश होना जरूरी है.

देश में इस समय नागरिकता संशोधन कानून से लेकर राष्ट्रीय नागरिक पंजी, जिसके लिये अभी प्रक्रिया भी शुरू नहीं हुई है, के विरोध और समर्थन में लामबंदी का सिलसिला जारी है. इसका विरोध करने वाले वर्ग का यह दावा है कि संशोधित कानून संविधान के समता के सिद्धांत के खिलाफ है जबकि इसके समर्थक वर्ग का तर्क है कि इसका मकसद सिर्फ तीन पड़ोसी देशों के अल्पसख्यक समुदायों के सताये गये उन सदस्यों को भारत की नागरिकता प्रदान करना है जो 31 दिसंबर, 2014 तक शरणार्थी के रूप में आ चुके थे.

नागरिकता संशोधन कानून के बीच ही सरकार ने 2021 की जनगणना के हिस्से के रूप में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर कार्यक्रम शुरू करने की घोषण की तो उसका भी विरोध शुरू हो गया. दावे किये जा रहे हैं कि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर और राष्ट्रीय नागरिक पंजी एक दूसरे के पूरक हैं.

मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार के कार्यकाल के दौरान 2011 की जनगणना कार्यक्रम से पहले 2010 में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर कार्यक्रम चलाया गया था. इसमें लोगों ने बाकायदा बायोमैट्रिक प्रणाली से अपनी उंगलियों के निशान भी दिये थे.

ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि 2010 में इस कार्यक्रम का विरोध क्यों नहीं किया गया? नागरिकता कानून में 2003 में संशोधन हो जाने के बाद नागरिकों को पहचान पत्र देने के प्रावधान का विरोध क्यों नहीं किया गया? तर्क दिया जा रहा है कि 2020 के जनसंख्या रजिस्टर कार्यक्रम में कुछ नयी जानकारियां मांगी गयीं हैं जिनका उपयोग राष्ट्रीय नागरिक पंजी के लिये होगा.


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इन दलीलों को अगर स्वीकार भी कर लिया जाये तो राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के लिये तैयार किये गये प्रारूप और फार्म में मांगी गयी अतिरिक्ति जानकारियों का मुद्दा भी उच्चतम न्यायालय में रखा जा सकता है जहां पहले से ही नागरिकता संशोधन कानून की संवैधानकि वैधता विचाराधीन है. न्यायालय में इन नयी जानकारियों को लेकर व्यक्त की जा रही शंकाओं पर दोनों पक्ष अपने विचार रख सकते हैं. अगर शीर्ष अदालत महसूस करेगी कि अतिरिक्त जानकारियां निरर्थक और अनुचित है तो निश्चित ही वह इस बारे में कोई न कोई ऐसा आदेश अवश्य देगी जिससे नागरिकों के बीच व्याप्त शंकाओं का निराकरण हो सके.

बेहतर होगा कि नागरिकता संशोधन कानून के प्रावधानों और इसके उद्देश्यों को लेकर अपने-अपने निष्कर्ष निकालने की बजाय उच्चतम न्यायालय की सुविचारित व्यवस्था का इंतजार किया जाये.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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