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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतCAA, CDS, OBCs- बड़ी घोषणाएं करने और फिर उन्हें खटाई में डालने में महारत हासिल कर ली है मोदी सरकार ने

CAA, CDS, OBCs- बड़ी घोषणाएं करने और फिर उन्हें खटाई में डालने में महारत हासिल कर ली है मोदी सरकार ने

नरेंद्र मोदी बेशक सबसे लोकप्रिय नेता हैं लेकिन सुधारों की जो घोषणाएं उनकी सरकार ने की हैं उनमें कोई प्रगति होती नहीं दिख रही, चाहे वह सीएए हो या सीडीएस हो या ओबीसी में वर्गीकरण.

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सेनाध्यक्ष जनरल एम.एम. नरवणे शनिवार को सेवानिवृत्त हो गए और इसके साथ ही उन्हें चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) नियुक्त किए जाने की अटकलें भी समाप्त हो गईं. सीडीएस जनरल बिपिन रावत को हेलिकॉप्टर हादसे में गुजरे पांच महीने होने जा रहे हैं. सरकार अब तक उनके उत्तराधिकारी को नियुक्त नहीं कर पाई है. सरकार के मुंह से सीडीएस का जिक्र अंतिम बार तब सुना गया था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फरवरी में उत्तराखंड में एक चुनावी सभा में कांग्रेस पर हमला करते हुए यह कहा था कि वह वोटों की खातिर दिवंगत रावत के कट-आउट का इस्तेमाल कर रही है. सीडीएस के पद का सृजन मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का पहला बड़ा निर्णय था. इसकी घोषणा उन्होंने 2019 में स्वतंत्रता दिवस पर लाल किला के प्राचीर से दिए अपने भाषण में की थी. इसके तीन मात्र तीन साल बाद सीडीएस की नियुक्ति अटकलों का मामला बन गई है.

यह कोई मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी वाली सरकार नहीं है जो अपने दूसरे कार्यकाल में नीतिगत फैसले करने के मामले में पंगु हो गई थी. निर्णायक कदम उठाना क्या मोदी की ताकत नहीं है? हो सकता है कि सीडीएस को लेकर उनके दिमाग में कुछ खास चल रहा हो, जिसे सरकार फिलहाल जाहिर नहीं करना चाहती. चलिए, इस मामले को यहीं छोड़ देते हैं. लेकिन यह हमें यह सोचने का मसाला जुटा रहा है कि मोदी सरकार जिन मसलों को लेकर भारी शोर-शराबा मचा चुकी उन पर आगे कदम बढ़ाने में अपने दूसरे कार्यकाल में किस तरह लड़खड़ाती दिख रही है.

यूपीए के दौर के भूमि अधिग्रहण कानून में मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में जो संशोधन प्रस्तावित किए थे और जिन्हें वह अध्यादेश के जरिए लागू करने पर विचार कर रही थी उनका काफी प्रचार किया था. उसने तीन बार अध्यादेश लागू किए लेकिन अंततः मोदी ने अपने ‘मन की बात’ कार्यक्रम में घोषणा कर दी कि उसे फिर जारी नहीं किया जाएगा. यह तब की बात है जब 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के दो महीने बाकी रह गए थे. मोदी सरकार के वे प्रारंभिक दिन थे. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि अपने दूसरे कार्यकाल में भी वह अपने महत्वाकांक्षी कदमों को आगे बढ़ाने में कमजोर पड़ती दिख रही है. यहां तीन विवादास्पद कृषि कानूनों की बात नहीं हो रही, जिन्हें उसने विधानसभाओं, खासकर उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले वापस ले लिया था. कुछ दूसरे उदाहरण देखें—


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नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) : इसे संसद ने दिसंबर 2019 में ही मंजूरी दे दी थी. मोदी और गृह मंत्री अमित शाह इस कानून की हमेशा तारीफ करते रहते हैं. इसके बावजूद यह कानून लागू नहीं हो पाया है क्योंकि गृह मंत्रालय ने इसके नियम नहीं बनाए हैं, जो कि जून 2020 तक ही बना दिए जाने थे. इस बीच, अधीनस्थ कानून की संसदीय समिति से गृह मंत्रालय को इस मामले में पांच विस्तार दिए जा चुके हैं. अगर सीएए की जरूरत को लेकर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री इतने आश्वस्त हैं तो इसके नियमों को अधिसूचित करने से गृह मंत्रालय को कौन रोक रहा है?

ओबीसी में उप-वर्गीकरण : अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) में उप-वर्गीकरण के लिए मोदी सरकार ने जस्टिस रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन अक्टूबर 2017 में किया था. उसे 2 जनवरी 2018 तक अपनी रिपोर्ट सौंप देनी थी. लेकिन इस आयोग का कार्यकाल अब तक 12 बार बढ़ाया जा चुका है. इस बीच इसकी कार्य शर्तों को भी बदला गया ताकि इसे विस्तार देने को उचित ठहराया जा सके. मई 2022 आ गया है, और आयोग ने अभी तक अपनी रिपोर्ट तैयार नहीं की है. अगर ओबीसी में कुछ दबंग समुदाय आरक्षण का लाभ हड़प ले रहे हैं तो इस गड़बड़ी को दुरुस्त करना ही चाहिए. तो फिर मोदी सरकार आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपने की अंतिम तारीख न देकर ‘तारीख पर तारीख’ क्यों दिए जा रही है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि ये दबंग समुदाय भाजपा के चुनावी गणित में अहम हो गए हैं?

श्रम संबंधी नियम : श्रमिकों के वेतन, औद्योगिक संबंधों, सामाजिक सुरक्षा और कार्यस्थल पर सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्य शर्तों से संबंधित चार नियमों को संसद ने 2019 और 2020 में मंजूरी दे दी. सरकार ने उन्हें ‘ऐतिहासिक’ बताया. लेकिन इन नियमों को इसलिए लागू नहीं किया गया क्योंकि केंद्र ने नियमों को अधिसूचित नहीं किया. जून 2021 में ‘दप्रिंट’ को दिए इंटरव्यू में तत्कालीन श्रम व रोजगार मंत्री संतोष गंगवार ने कहा कि सरकार नियमों को 1 जुलाई से अधिसूचित करना चाहती है मगर इसे इस साल के 1 अक्टूबर तक के लिए आगे बढ़ाया जा सकता है. श्रम चूंकि समवर्ती सूची का विषय है इसलिए केंद्र और राज्यों की सरकारों को अपने-अपने दायरे में अधिसूचित करना होता है. गंगवार ने बताया कि कई राज्यों ने अभी नियमों को अंतिम रूप नहीं दिया है.

मंत्री ने नयी अंतिम तारीख तय की उसके बाद सात महीने में भी श्रम नियम लागू नहीं हुए हैं, और केंद्र सरकार के अधिकारी वही वजह बता रहे हैं. क्या केंद्र को यह नहीं मालूम है कि इन सुधारों के प्रति राज्य सरकारों की प्रतिबद्धता क्या है? अगर सभी राज्य साथ नहीं दें तो क्या केंद्र सरकार ऐतिहासिक सुधारों को हमेशा के लिए टाल देगी?

नदियों को जोड़ने का योजना : वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले साल अपने बजट भाषण में कहा था कि नदियों को जोड़ने की पांच परियोजनाओं की विस्तृत मसौदा रिपोर्ट (डीपीआर) को अंतिम रूप दे दिया गया है और इनसे लाभान्वित होने वाले राज्यों की सहमति का इंतजार किया जा रहा है. जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने एक ट्वीट करके बताया कि ये परियोजनाएं देश के दूरदराज़ और सूखग्रस्त हिस्सों में पानी की समस्या को दूर करने में मददगार होंगी. एक साल बाद, मार्च 2022 में केंद्र ने इनमें से एक, पार-तापी-नर्मदा नदियों को जोड़ने की परियोजना को स्थगित कर दिया. गुजरात के मंत्री हृषिकेश पटेल ने राज्य विधानसभा को बताया कि उनकी सरकर ने केंद्र से इस परियोजना को आगे न बढ़ाने का अनुरोध किया है. केंद्र ने डीपीआर को अंतिम रूप देने से पहले राज्यों की सहमति ले ली थी. इसलिए, राज्य अगर लोगों के एक वर्ग के विरोध पर कदम खींच लेता है तो ऐसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं का क्या भविष्य होगा?

बड़े सुधार ठंडे बस्ते में

आखिर, क्या गड़बड़ हुई? यह तो रिमोट कंट्रोल से चलने वाली सरकार नहीं है, जिसकी पहल को 10 जनपथ या 7, रेसकोर्स रोड (अब लोक कल्याण मार्ग) में बैठा कोई शख्स रोक रहा हो. न ही यह नरसिंह राव वाली सरकार है जिसने निर्णय न लेने का निर्णय कर रखा था. और यह बीते दिनों की कोई गठबंधन सरकार भी नहीं है जिसके हाथ अपना वजूद बचाते रहने के लिए बंधे थे. यह देश के सबसे लोकप्रिय नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार है, जो अचानक एक शाम नोटबंदी की घोषणा कर सकते हैं तो दूसरी शाम को देशभर में लॉकडाउन लगा सकते हैं, और लोग इन कदमों के असर की परवाह किए बिना समर्थन में ताली बाजा सकते हैं. इसलिए कोई यह सवाल नहीं उठा सकता कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जिहाद छेड़ने वाले नेता की सरकार ने लोकपाल के अधीन न्यायिक सदस्यों, और जांच तथा मुकदमा चलाने वाले निदेशकों के पद खाली रखकर उसे दंतहीन क्यों बना दिया है? इस सवाल का किसी के पास जवाब नहीं है कि जब चीन और अमेरिका जैसे देश कोविड की महामारी के बीच जनगणना करवा सकते हैं तब भारत इसेक कारण जनगणना क्यों टाले हुए है?

आखिर, फैसले करने में यह ऊहापोह क्यों? कानूनों को संसद से मंजूरी दिलाने के लिए इतनी मेहनत करने वाली सरकार नियमों के अभाव में इन कानूनों को खटाई में क्यों डाल रही है? कोई सरका शानदार परियोजनाओं की घोषणा करके उन्हें ठंडे बस्ते में क्यों डाल देती है?

‘क्यों’ बहुत सारे हैं जिनके कोई निश्चित जवाब नहीं उपलब्ध हैं. बात जब सरकारी मामलों की आती है तब उनका पता केवल मोदी या शाह को होता है. और जब आप उनके बारे में बात करते हैं तब उनमें राजनीति को लाना सुरक्षित है, सीडीएस की नियुक्ति जैसे मामले को छोड़कर. शानदार घोषणाओं पर आगे भले कोई कार्रवाई न हो, वे अपना मकसद तो पूरा कर ही देती हैं. उनके कारण जो सुर्खियां मिलती हैं उन पर गौर कीजिए. और घोषणाओं को लागू करने में जितनी देर होगी राजनीति में उन्हें याद करते रहने का उतना ज्यादा समय और फायदा मिलेगा. अब आप इसे राजकाज चलाने की राजनीति कह लीजिए, या राजनीति करने का राज कह लीजिए. यह मोदी और भाजपा के लिए अब तक कारगर साबित हुआ है. आमीन!

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(डीके सिंह दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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