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रविवार, 27 अप्रैल, 2025
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आतंकवाद को बढ़ावा देकर पाकिस्तान मुस्लिम जगत में खुद को ही अलग-थलग कर रहा है    

खाड़ी के कुछ देशों की विदेश नीति आज रणनीति, सुरक्षा, और वैश्विक प्राथमिकताओं के आधार पर तय हो रही है, न कि मजहबी और सैद्धांतिक रुझानों के आधार पर.

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पहलगाम में 22 अप्रैल को भीषण आतंकी हमले के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सऊदी अरब के अपने सरकारी दौरे के बीच उसी शाम नई दिल्ली लौटना पड़ा. लेकिन उस संक्षिप्त कूटनीतिक यात्रा के दौरान भी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के साथ उनकी मुलाकातों में शिष्टाचार से संबंधित गतिविधियों के अलावा भी अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई जिनमें भारत-सऊदी अरब रणनीतिक सहयोग को बड़ी मजबूती मिली. अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की सबसे कड़े और स्पष्ट शब्दों में निंदा की गई.

व्यक्तिगत संवेदना व्यक्त करने से लेकर सोशल मीडिया पर इसे पोस्ट करने तक, भारत के प्रति सऊदी अरब का समर्थन केवल प्रतीकात्मक नहीं था. कई मोर्चों पर साफ संकेत दिया गया कि मुस्लिम जगत का एक प्रमुख मुल्क आतंकवाद से लड़ाई के मामले में पुराने नारो से हट कर अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के साथ मजबूती से जुड़ रहा है.

सऊदी-अरब-भारत के संयुक्त बयान में दर्ज 30वें मुद्दे में कहा गया है कि “दोनों पक्षों ने आतंकवाद और उसकी फंडिंग से लड़ाई के मामले में सुरक्षा सहयोग को मजबूत करने के महत्व पर ज़ोर दिया. दोनों पक्षों ने इस बात पर ज़ोर दिया कि आतंकवाद अपने सभी रूपों में मानवता के लिए सबसे गंभीर खतरा है. वे इस बात पर सहमत हैं कि किसी भी कारण से किसी आतंकवादी गतिविधि को उचित नहीं माना जा सकता.” किसी बड़े मुस्लिम मुल्क द्वारा आतंकवाद की यह सबसे कड़ी निंदा है.

साथ ही उल्लेखनीय बात यह है कि पाकिस्तान के मामले में मुस्लिम जगत की कसौटी बदल रही है. खाड़ी के कुछ देशों की विदेश नीति आज रणनीति, सुरक्षा, और वैश्विक प्राथमिकताओं के आधार पर तय हो रही है, न कि मजहबी और सैद्धांतिक रुझानों के आधार पर. सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस नयी पीढ़ी के सुधारवादी हैं, जो कट्टरपंथी विचारधारा के सख्त खिलाफ रहे हैं.

यह पाकिस्तान के लिए खतरे की घंटी है, जो कश्मीर जैसे मसले पर अपने तर्कों की गूंज मजहबी नारों में सुनता रहा है. 

बदलता मुस्लिम जगत

1990 और 2000 के दशकों में पाकिस्तान में जब आतंकवाद अपने चरम पर था तब इस्लामाबाद कश्मीर को एक ऐसे मसले के रूप में पेश करता था जिस पर उसे मुस्लिम जगत का व्यापक समर्थन हासिल था. यह समर्थन चाहे राजनीतिक रहा हो या महज लफ्फाजी, पाकिस्तान का सत्तातंत्र इसका इस्तेमाल नागरिकता विहीन तत्वों की गतिविधियों को उचित और वैध ठहराने के लिए किया करता था.

इस बीच, इस तरह के मसलों पर अधिकांश मुस्लिम मुल्कों का रुख तो बदला है और वे सुधार करते हुए खुद को उग्रवादी तर्कों से अलग कर रहे हैं लेकिन पाकिस्तान इन बदलावों को कबूल करने से पिछड़ रहा है.

अभी कुछ दिनों पहले पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल आसिम मुनीर ने एक आक्रामक भाषण में भारत को निशाना बनाते हुए कश्मीर को पाकिस्तान के “गले की नस” बताया और भारत से बदला लेने की बात दोहराई. पाकिस्तान के तमाम नेता अपनी तकरीरों में इस तरह की उपमाओं का प्रयोग करते रहे हैं.

अपने इसी भाषण में जनरल मुनीर ने दावा किया कि “मानवता के पूरे इतिहास में केवल दो मुल्क कलमा के आधार पर बने. पहला मुल्क रियासत-ए-तय्यबा था, जिसे आज मदीना (सऊदी अरब) के नाम से जाना जाता है. इसके 1300 साल बाद अल्लाह ने कलमा पर आधारित दूसरा मुल्क (पाकिस्तान) खास आप लोगों के लिए बनाया.”

मुश्किल है यह मान लेना कि पाकिस्तान की स्थापना के इस बयान पर मुस्लिम जगत के के कितने देश इस बात से राब्ता रखते हैं. लेकिन अब यह समय है जहां सवाल उठता है की  पाकिस्तान अपने इस तर्क से मुस्लिम जगत को कब तक कायल करता रह पाएगा.

मलेशिया, तुर्किए और अजरबैजान जैसे कुछ मुट्ठी भर देश ही  कश्मीर मसले पर शायद अभी भी पाकिस्तान का समर्थन करें, लेकिन बस ये ही. भारत और मुस्लिम बहुल देशों के बीच लोगों के बढ़ते आपसी संपर्क, व्यापार, सुरक्षा, विज्ञान तथा टेक्नोलॉजी के क्षेत्रों में बढ़ते सहयोग ने पाकिस्तान के प्रति उनके समर्थन को कमजोर किया है, जो सिर्फ एक मुस्लिम मुल्क होने के नाते उसे पहले कभी हासिल था.

गौरतलब है कि 2020 में पाकिस्तान सऊदी अरब के नेतृत्व वाले इस्लामी सहयोग संगठन (ओआईसी) से इसलिए नाराज हो गया था क्योंकि उसने कश्मीर मसले पर बैठक बुलाने के प्रति अनिच्छा दिखाई थी. इसके जवाब में तत्कालीन विदेश मंत्री शाह महमूद कुरेसी ने कहा था: “मैं एक बार फिर पूरे अदब के साथ ‘ओआइसी’ से कहूंगा कि हमें उम्मीद है कि वह विदेश मंत्रियों की काउंसिल की बैठक बुलाएगा. अगर आप बैठक नहीं बुलाते तो मुझे वजीरे आजम इमरान खान से मजबूरन कहना पड़ेगा कि वे उन इस्लामी मुल्कों की बैठक बुलाएं जो कश्मीर मसले पर हमारा साथ देने और दबाए गए कश्मीरियों का समर्थन करने को तैयार हैं.”

चीन के बेहद करीब

पाकिस्तान इस इस मुगालते में रह सकता है कि कश्मीर मसला पूरे मुस्लिम जगत, खासकर खाड़ी देशों को भावनात्मक रूप से प्रभावित करता है, लेकिन ऐसा लगता है कि भू-राजनीतिक समीकरणों में जो नाटकीय बदलाव आया है उसे पाकिस्तान समझना नहीं चाहता. आज खाड़ी क्षेत्र आर्थिक और कूटनीतिक मामलों में न केवल अमेरिका और पश्चिमी देशों के जुड़ गया है, बल्कि तेजी के साथ भारत के भी करीब आ रहा है.

इसका सबसे ताजा और शायद सबसे साथ ठोस उदाहरण यह है कि भारत-मध्यपूर्व-यूरोप आर्थिक कॉरीडोर (आइएमईसी) में खाड़ी देश प्रमुख हिस्सेदार हैं. यह इन्फ्रास्ट्रक्चर और व्यापार से संबंधित एक महत्वाकांक्षी योजना है जिसका ज़ोर सैद्धांतिक गठजोड़ से ज्यादा, संपर्क बनाने, स्थिरता कायम करने, और आर्थिक गतिविधियों में विविधता लाने पर है क्योंकि अब ये ही नयी प्राथमिकताएं हैं.

खाड़ी देशों से पाकिस्तान में निवेश आए भी तो वहां राजनीतिक अस्थिरता और बलूचिस्तान में बगावत निवेशकों में लाभ को लेकर संदेह पैदा करती है.

इसी के साथ, पाकिस्तान ने चीन के साथ अपनी नज़दीकियां बढ़ाकर और इस क्षेत्र में चीन-रूस गठजोड़ के साथ जुड़कर अपनी स्थिति और जटिल बना ली है. खासकर अमेरिका के साथ जबकि उसका रिश्ता बिगड़ता जा रहा है, ऐसा लगता है कि पाकिस्तान चीन को रणनीतिक पेशकश के एवज में किसी तरह की सुरक्षा गारंटी हासिल करने की कोशिश में है.

लेकिन चीन पर बढ़ती निर्भरता के साथ अपनी शर्तें जुड़ी हैं, मुख्य शर्त यह है कि पाकिस्तान अपने यहां, खासकर बलूचिस्तान में चीनी हितों को सुरक्षा प्रदान करे. चीनी लोगों और परियोजनाओं पर वहां बार-बार हमले हुए हैं. लेकिन चीन कारोबार करना चाहता है और वह कोई रेवड़ी नहीं बांटता है. इसके अलावा, मुस्लिम जगत में पाकिस्तान के पारंपरिक सहयोगी भी अब बिना शर्त समर्थन नहीं दे रहे हैं.

केवल खाड़ी देशों या पश्चिम एशिया ने ही नहीं, बल्कि ‘वर्ल्ड मुस्लिम लीग’ समेत व्यापक मुस्लिम जगत और पाकिस्तान के करीबी मुस्लिम पड़ोसी ईरान और तालिबानी अफगानिस्तान तक ने भारत की कश्मीर घाटी में बर्बर हमले की निंदा की है.

अब भारत जबकि पाकिस्तान को जवाब देने वाले कदम उठा रहा है, उसने 1960 की सिंधु जल संधि को स्थगित कर दिया है, और मांग कर रहा है कि पाकिस्तान सीमा पार आतंकवाद को समर्थन देने से बाज आए, पाकिस्तान के ‘डीप स्टेट’ (नेपथ्य से सरकार को नियंत्रित करने वालों) को कभी मुस्लिम जगत से मिल रहे समर्थन की विश्वसनीयता पर पुनर्विचार करना चाहिए. उसे इस सवाल पर भी विचार करना चाहिए कि उसने जो नई रणनीतिक दोस्ती बनाई है उससे क्या वह हमेशा बिनाशर्त समर्थन पाने का भरोसा कर सकता है?

ऋषि गुप्ता एशिया सोसाइटी पॉलिसी इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली में असिस्टेंट डायरेक्टर हैं. वह एशिया-पैसिफिक, रणनीतिक हिमालय और साउथ एशिया जियोपॉलिटिक्स पर लिखते हैं. वह @RishiGupta_JNU पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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