यह दावा तो कोई नहीं कर सकता कि लड़ाकू विमान या हेलोकॉप्टर जैसे जटिल सैन्य साजोसामान की खरीद कोई आसान कारोबार है. वायुसेना की खरीद पर सीएजी की रिपोर्ट मझोले किस्म के लड़ाकू विमानों के ऑर्डर में 660, और रडार सिस्टम में 42 विशेष ब्योरों का वर्णन करती है. इस तरह की खरीद को पका-पकाया भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि ऐसे में अधिकतर करारों के लिए बोली लगाने वाले शुरू में ही खारिज हो जाएंगे. इसके अलावा अलग-अलग ब्योरों या उत्पादों की विशेषताओं पर तुलनात्मक ज़ोर देने पर यह फैसला करना मुश्किल हो सकता है कि सर्वोत्तम पेशकश कौन-सी है. हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि ये प्रायः फैसला करने की बातें होती हैं. वास्तविक दुनिया में, यूजर की भी अपनी प्राथमिकताएं होंगी, जैसा कि वायुसेना के मामले में हुआ, जो शुरू के चरण में मिराज के लिए ज़ोर दे रही थी क्योंकि करगिल युद्ध में उसका प्रदर्शन वह देख चुकी थी. क्या 2012 में राफेल (मिराज के उत्तराधिकारी) का चयन वायुसेना के इसी तरह के दबाव में किया गया, हालांकि इस विमान को योग्य नहीं माना जा रहा था?
चुनाव नागनाथ और सांपनाथ के बीच का हो सकता है. यूरोफाइटर राफेल जितना ही अच्छा होगा, क्योंकि इसे भी पसंद में शामिल किया गया था. इसी तरह, इससे पहले फ्रेंच विकल्प स्वीडन की बोफोर्स तोप जितना ही अच्छा रहा होगा. लेकिन क्या यूरोफाइटर का चयन ‘खासकर भारत के लिए किए गए सुधारों’ और उन पर 1.4 अरब डॉलर के उस खर्च को टाल देता, जो राफेल को अपेक्षित विशेषताओं के अनुरूप बनाने में हुआ है? इससे भी बढ़कर, राजनयिक समीकरणों ने भी फैसले को प्रभावित किया होगा. वरना इसका क्या जवाब है कि भारी वजन ढोने वाले हेलीकॉप्टरों की मूल कीमतों में फेरबदल तब क्यों किया जब वित्तीय बोली लगाने की शुरुआत हो गई थी? इसलिए अंततः, ऑडिट की आपत्तियों को गंभीरता से जरूर लिया जाए लेकिन वास्तविक परिप्रेक्ष्य भी तस्वीर में आ ही जाते हैं.
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ऑडिट रिपोर्ट का काम भी हथियारों की खरीद के जटिल कारोबार से बहुत बेहतर नहीं है. उदाहरण के लिए, ये यह एहसास दिलाती हैं कि सीएजी ने राफेल के मामले में वित्तीय गोपनीयता के रक्षा मंत्रालय के आग्रह को क्यों मान लिया, जबकि उसी सीएजी रिपोर्ट में दूसरे हथियारों की खरीद से संबन्धित सभी वित्तीय आंकड़े खोल कर रखे गए हैं. इसके अलावा, यह भी साफ दिख रहा है कि राफेल को वित्तीय गारंटी की शर्त से बारी करके दरअसल कितनी रकम बचत कर लेने दिया गया है, यह न बताकर सीएजी ने सरकार को फ्री पास दे दिया है. यह तो हाल है औडिटरों का!
हथियारों की खरीद की विस्तृत प्रक्रियाएं और नियम क्या सिर्फ इसलिए उत्कृष्ट से कमतर होते हैं क्योंकि वे विस्तृत होते हैं? इस समीकरण में समय वाले पहलू को भी शामिल कर लें, क्योंकि चयन प्रक्रिया में आठ-दस साल तक लग जाते हैं जबकि सेना इंतज़ार करती रहती है. वास्तव में अंततः खरीद का कोई मतलब नहीं रह जाता (जैसा कि अगस्ता वेस्टलैंड के मामले में हुआ) क्योंकि इस बीच टेक्नोलॉजी बदल जाती है. क्या प्रतियोगी बोलियों के बीच चयन की कोई सरल, संक्षिप्त प्रक्रिया संभव हो सकती है? आखिर, हाल में जो-जो खरीद की गई हैं उनमें कोई प्रतिस्पर्धी बोली नहीं लगाई गई. जहां तक कमीशन भुगतान का शाश्वत प्रश्न है, कोई नादान ही होगा जो यह सोचेगा कि इतने बड़े-बड़े सौदे में ऐसा कोई भुगतान नहीं होता है. आखिर, इतने बड़े सौदे वेंडरों की तक़दीर बना या मिटा सकते हैं, जिन पर फैसला कई स्तरों पर तथा कई वर्षों में हो पाता है, और विकल्प इतने जटिल होते हैं कि मीनमेख निकालना और दखल देना निरंतर जारी रहता है (वायुसेना के एक अध्यक्ष ऐसे ही दखल का आरोप झेल रहे हैं).
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बहरहाल, बड़े सवालों के वास्तविक जवाब नहीं मिल रहे हैं. उदाहरण के लिए, इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला है कि वायुसेना को जबकि 126 विमानों की जरूरत थी, तो 36 विमानों के लिए ही ऑर्डर क्यों दिए गए? अब इसी तरह के विमान के लिए दूसरी बार बोली लगवानी पड़ेगी और बाकी विमानों को हासिल करने में और कई साल लग सकते हैं. इस मामले (सीएजी रिपोर्ट) में रक्षा मंत्रालय का जवाब यह है कि हल्के लड़ाकू विमानों के लिए भी साथ ही साथ ऑर्डर दिया जा रहा है. इसका अर्थ यह कि मझोले तथा हल्के विमानों में अदलाबदली की जा सकती है. जबकि ‘तेजस’ का काम भी धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है, वायुसेना ज्यादा सुखोई-30 विमानों को हासिल करने की कोशिश कर रही है, जो कि भारी विमान है. बेड़े के गठन में इस तरह के घालमेल के अलावा, वायुसेना की नापसंदगी है जो उसे घरेलू विमान उत्पादन का समर्थन करने से रोकती है (जैसा कि नौसेना ने पोत निर्माण के मामले में किया है). इसलिए देश आयात पर इस तरह स्थायी रूप से निर्भर हो गया है जिस तरह दुनिया का ऐसा कोई भी देश (सऊदी अरब को छोडकर) निर्भर नहीं है, जिसका रक्षा बजट इतना बड़ा हो. डेनमार्क के साथ जरूर ही कोई भारी गड़बड़ी है.
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