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Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतसमस्या दिवाली पर पटाखे फोड़ने की नहीं, बल्कि इसे एक राष्ट्रीय और नैतिक मुद्दा बनाने की है

समस्या दिवाली पर पटाखे फोड़ने की नहीं, बल्कि इसे एक राष्ट्रीय और नैतिक मुद्दा बनाने की है

लागू नहीं किए जा सकने वाले आदेश, पटाखों पर पूर्ण प्रतिबंध और एक मॉडल के रूप में दिल्ली का इस्तेमाल, ये उपाय न तो दिवाली के समय, न उससे पहले और न उसके बाद कारगर साबित होते हैं.

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जब मैं ये लिख रहा हूं, बेंगलुरू में मेरे अपार्टमेंट की खिड़की से सतत आतिशबाज़ी के दृश्य दिख रहे हैं: मेरे मोहल्ले में गत वर्षों के मुकाबले यों तो कम पटाखे छोड़े जा रहे हैं, लेकिन फिर भी पूरा जोश दिख रहा है. ये अच्छा ही हुआ कि बीएस येदियुरप्पा की कर्नाटक सरकार ने पटाखों पर प्रतिबंध का अपना फैसला पलट दिया — हालांकि सिर्फ ‘ग्रीन’ पटाखों की ही अनुमति दी गई — क्योंकि कम ही संभावना है कि लोग सामान्य तरीके से दिवाली मनाने से परहेज करते, और पहले से ही काम के बोझ तले दबी पुलिस को एक बेहद अलोकप्रिय आदेश को लागू करने का दायित्व निभाना पड़ता.

कोई संदेह नहीं कि ग्रीन हो या नहीं, पटाखे वायुमंडल में प्रदूषण को बढ़ाते हैं. उनसे आग का खतरा भी होता है. वे जानवरों को भयभीत करते हैं, और एक कुत्ते का पालक होने के कारण मुझे पूरा एहसास है कि उनके लिए ये कितना कष्टकारी अनुभव होता है. ये सब सच होने के बावजूद पटाखों पर देशव्यापी प्रतिबंध इसका जवाब नहीं है. वास्तव में संपूर्ण भारत में पटाखे पर पूर्ण पाबंदी कई तरह से विपरीत परिणामों वाली साबित सकती है, क्योंकि इस नीति की अलोकप्रियता के कारण सामाजिक रूप से रूढ़िवादी और प्रतिक्रियावादी राजनीति को बढ़ावा मिलेगा, परिणामत: आज़ादी और कानून के शासन का दायरा और कम होगा.

पटाखों पर विवाद से भारत में नीति निर्माण से संबंधित चार बुरी आदतें उजागर होती हैं: नीतियों को राष्ट्रव्यापी बनाना, उनका न्यायीकरण करना, उनमें नैतिकता घुसेड़ना और उनको हड़बड़ी में लागू करना.


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नई दिल्ली ही भारत नहीं है

केंद्र सरकार में राजनीतिक सत्ता का अतिकेंद्रीकरण, सार्वजनिक विमर्श पर नई दिल्ली का अत्यधिक प्रभाव और सोशल मीडिया की व्यापक पहुंच के कारण आजकल लगभग हर मुद्दा राष्ट्रीय हो जाता है. मीडियाकर्मियों, नीति निर्माताओं, नेताओं और जजों के दिमाग में राजधानी की प्रदूषित हवा की बात लगातार मौजूद रहने के कारण उनके लिए पटाखों पर अनिवार्य रूप से प्रतिबंध लगाने की दलील से सहमत होना आसान हो जाता है. वे आसानी से इस बात को भूल जाते हैं कि भारत एक विशाल देश है और अनेकों ऐसे इलाके हैं जहां की हवा उतनी प्रदूषित नहीं है और जहां आतिशबाज़ी का चलन राष्ट्रीय राजधानी के मुकाबले कम है. वे इस तथ्य को भी भूल जाते हैं कि पटाखा उद्योग पर बड़ी संख्या में लोग आश्रित हैं, तथा उनके हित और उनकी आजीविका के सवाल भी वैध हैं. भारत जैसे विविधता और विभिन्नताओं वाले देश में सब पर एकसमान फैसला थोपने का विचार आमतौर पर सही नहीं कहा जा सकता, खासकर जब फैसले का आधार नई दिल्ली को बनाया जाता हो.

इसलिए ये अच्छा है कि इस बारे में राज्य सरकारें अपने स्तर पर फैसले कर रही हैं. और भी अच्छा होगा यदि ये फैसले नगरपालिका और पंचायत स्तर पर किए जाएं.

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फैसलों से जुड़े सवाल

पटाखों के मुद्दे को राष्ट्रव्यापी बनाने में नरेंद्र मोदी सरकार की भूमिका नहीं रही हो तो भी, एक राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) और फिर उसी कड़ी में आगे सुप्रीम कोर्ट तो है ही. इससे मामले का न्यायीकरण होता है. न्यायीकरण क्यों ठीक नहीं है? क्योंकि ये ऊपर से थोपा जाता है और इसे पलटना आसान नहीं होता.

जज अपने फैसलों के आर्थिक परिणाम की शायद ही कभी परवाह करते हैं, और राजनीतिक नेताओं और नौकरशाहों के विपरीत वे सार्वजनिक रूप से उनके लिए जवाबदेह भी नहीं होते. इससे अनिश्चितता की स्थिति बनती है, तथा फैसले के दायरे में स्पष्ट रूप से नहीं आने वाले क्षेत्रों में भ्रष्टाचार को बल मिलता है और बेईमान लाभांवित होते हैं. कहां पटाखों की अनुमति है और कहां नहीं, ये एनजीटी तय करता है. सुप्रीम कोर्ट इस पर अंतिम निर्णय देता है. कुछेक जज मिलकर ऐसे फैसले देते हैं जो कि हज़ारों सरपंचों, सैकड़ों मेयरों और 32 मुख्यमंत्रयों को करने चाहिए. इससे भी बुरी बात ये है कि एक बार अदालत का फैसला आ जाने के बाद, निर्वाचित प्रतिनिधि अपने खुद के नीतिगत फैसलों को लागू नहीं कर सकते हैं.

बात नैतिकता की नहीं है

तीसरी बुरी आदत है नीतिगत फैसलों पर नैतिकता थोपने की प्रवृत्ति. पटाखे चलाना कोई अनैतिक काम नहीं है, कार चलाने या हवाई यात्रा करने की तुलना में अधिक तो नहीं ही. प्रदूषण से एक व्यावहारिक समस्या के तौर पर निपटना सबसे अच्छा तरीका है. प्रदूषण इसलिए अवांछनीय है क्योंकि वायु की गुणवत्ता और हमारी आबो-हवा पर इसका नकारात्मक असर पड़ता है. सार्वजनिक नीति की भूमिका प्रदूषण को कम करने की होनी चाहिए. इसका सबसे अच्छा तरीका है प्रदूषकों के लिए प्रोत्साहनों को कम करना, न कि उनको नैतिकता की कसौटी पर कसना. लेकिन दिवाली पर आतिशबाज़ी के विरोध में मुझे उत्तरोत्तर यही बात दिखती है, यानि पटाखे बनाने, बेचने और फोड़ने वाले लोगों को नैतिकता की दृष्टि से आंका जाना.

नीति संबंधी किसी बहस को नैतिकता की बहस में तब्दील करने से मामला अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष का हो जाता है. इस प्रक्रिया में बीच का रास्ता खत्म हो जाता है और नीति विशेष से संबंधित पूरी राजनीति बदल जाती है.

दिवाली से पहले पाबंदी

नीति संबंधी चौथी बुरी आदत सर्वाधिक स्पष्ट है: अचानक लिए गए कठोर फैसले जो तत्काल प्रभाव से लागू किए जाते हैं. दिवाली से कुछ दिन पहले पटाखों पर रोक की घोषणा करना स्पष्टतया अलोकतांत्रिक और अन्यायपूर्ण है. किसी को सामंजस्य का मौका नहीं मिल पाता है— पटाखों के निर्माताओं और व्यापारियों को भारी घाटा उठाना पड़ता है, जबकि त्यौहार का इंतजार कर रहे बच्चों को निराशा हाथ लगती है. सरकारी अधिकारियों द्वारा अक्सर इस तरह अचानक, और लगभग सनक भरे फैसले लिए जाते हैं. फैसलों से असहमत लोगों को अदालतों का दरवाजा खटखटाना पड़ता है और इस तरह मामले का न्यायीकरण हो जाता है. समय रहते स्पष्ट फैसले लेना, उसके कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त समय देना और बिना कसूर फैसले का दुष्प्रभाव झेलने के लिए बाध्य लोगों की मदद करना बिल्कुल संभव है.

एक उचित पटाखा नीति कैसी होगी? सबसे पहले तो इस संबंध में फैसले लेने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों पर छोड़ दें. दूसरे, कम प्रदूषणकारी पटाखों को अपनाने के लिए दो से तीन वर्षों का संक्रमण काल छोड़ें; और पटाखा उद्योग का केंद्र बने तमिलनाडु जैसे राज्यों को इस बदलाव के लिए पटाखा उद्योग की मदद करनी होगी. तीसरे, जागरूकता अभियान, कराधान और पाबंदियों के ज़रिए पटाखों के संयमित और जिम्मेदारीपूर्ण उपयोग को बढ़ावा दें. यदि हम नीति संबंधी अपनी बुरी आदतों से छुटकारा पा लें, तो भारत में अधिकतर जगह दोनों बातें संभव हैं: पटाखों के साथ दिवाली मनाना और पर्यावरण के प्रति ज़िम्मेदार होना.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(नितिन पई तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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