सबसे बड़ा सवाल, बजट में करना क्या है?
इसका ज़वाब आसान है, देश में किसी से भी पूछ लीजिए बता देगा.
विकास को वापस पटरी पर लाना है. ग्रोथ को तेज़ करना है. रोज़गार बढ़ाने हैं. गांवों पर और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर ज़्यादा खर्च करना है. महंगाई और सरकारी घाटे की चिंता कुछ समय के लिए ताक पर भी रखी जा सकती है, लेकिन किसी भी कीमत पर लोगों को बाज़ार में निकलकर खर्च करने के लिए बढ़ावा देना है.
ये अर्थशास्त्र या बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था का पुराना सिद्धांत है. लोग ज्यादा खर्च करेंगे तभी इकोनॉमी में नई जान आएगी. लेकिन इस वक्त एक बड़ा सवाल ये है कि लोग खर्च करेंगे कैसे? खर्च के लिए ज़रूरी है कि जेब में पैसा हो, और उसे खर्च करने की इच्छा भी हो. हालांकि भारतीय परंपरा में अपरिग्रह को बड़ी चीज़ माना गया है और ऐसे दर्ज़नों दृष्टांत मिलते हैं कि क्यों इन्सान को बहुत ज्यादा बचाने के चक्कर में अपना वर्तमान खराब नहीं करना चाहिए. मशहूर कथन है- दाता इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए. यानी आज के खाने का इंतज़ाम हो जाए और अगर कोई मांगने आ जाए तो उसे भी खिला सकूं.
लेकिन ऐसा विचार मन में तभी आता है जब इंसान को ये फिक्र नहीं होती कि अगले दिन रोटी का इंतज़ाम होगा या नहीं. अब जो लोग अगले बीस बरस तक घर की ईएमआई भरने का वादा कर चुके हैं, कार का नया मॉडल देख रहे हैं और घर का फर्नीचर और अपने कपड़े साल में दो बार तो बदलने की सोचते ही हैं, उनसे ये उम्मीद करना व्यर्थ ही है.
ऐसे लोग कम से कम साल भर का खर्च तो बैंक अकाउंट में रखना ही चाहते हैं. मियां बीवी दोनों कमाते हैं तो खर्च का ब्लू प्रिंट भी उसी हिसाब से तैयार है. फ्लैट, गाड़ी और बाकी सारा सामान लगातार अपग्रेड भी होना है. ज़ाहिर है उन्हें पक्का यकीन चाहिए कि अगर आज खर्च कर दें तो कल वो सड़क पर नहीं आ जाएंगे. और इस वक्त की सबसे बड़ी समस्या शायद ये यकीन न होना ही है.
नौकरी बचाने का डर
जिस रफ्तार से नौकरियां जा रही हैं उन्हें देखकर मिडल क्लास डरा हुआ है. सरकार कितने भी आंकड़े दिखा दे, अपने आसपास ऐसे लोग दिखते ही रहते हैं जिन्हें दो साल से इन्क्रीमेंट नहीं मिला. किसी की तनख्वाह कम हो गई है तो किसी की नौकरी चली गई. ऐसे में जिसके पास जो है वो उसे सेंत कर बैठा है. नई चीजें खरीदने के फैसले टाल रहा है और रामधुन गा रहा है कि किसी तरह बुरा वक्त गुज़र जाए.
हालात का अंदाज़ा सबको है, कहें न कहें. इसीलिए सारे विद्वान सरकार को यही सुझाने में लगे हैं कि अब अगर मगर का वक्त नहीं रहा, सीधे लोगों की जेब में पैसा डालना पड़ेगा. अर्थशास्त्र के जानकारों से लेकर उद्योग संगठन तक एक ही स्वर में बोल रहे हैं. इन सबका कहना है कि अब इनकम टैक्स में कटौती करनी ज़रूरी है, खासकर सबसे नीचे के स्लैब वाले कर दाताओं को राहत दी जानी चाहिए. ये वो लोग हैं जो थोड़ा पैसा बचने पर शायद अपनी कुछ ज़रूरतें पूरी करने की हिम्मत जुटा सकते हैं.
दूसरी सलाह है ऐसा खर्च करने की जिससे गांवों में लोगों के हाथ पैसा पहुंचे. यह भी वो बिरादरी है जो बहुत बचत न होते हुए भी खर्च के लिए जल्दी बाजार में निकल पड़ती है. और पिछले करीब दस पंद्रह साल से गांवों के लोगों की शाहखर्ची ने शहरों में बहुत से लोगों की रोजी रोटी का इंतजाम किया है. इसीलिए फिर इनपर भरोसा करने वाले गलत नही सोच रहे हैं.
पैसा आयेगा कहा से
मगर बड़ी समस्या ये है कि सरकार इन सबको राहत देने का इंतज़ाम करेगी कहां से. कमाई के खाते में तो उसे बड़े बड़े लाल निशान ही नज़र आ रहे हैं. चालू वित्त वर्ष के पहले आठ महीनों में ही सरकार का खर्च 18.2 लाख करोड़ पर पहुंच गया था, यानी साल भर के खर्च का करीब दो तिहाई. जबकि इसी दौरान कमाई हुई सिर्फ दस लाख करोड़, जो कि साल के लक्ष्य का आधा भी नहीं था. इसीलिए अब सरकार दबाव में है कि टैक्स की वसूली बढ़ाकर या खर्च घटाकर अब बचे हुए वक्त में ये बिगड़ता हिसाब सुधारा जाए. लेकिन इतने कम समय में कोई कोशिश रंग लाएगी ये आसान नहीं लगता.
तो फिर एक और शॉर्ट कट है. आप ये खबरें देख ही रहे होंगे कि सरकार कभी रिज़र्व बैंक से और पैसा मांग रही है तो कभी सरकारी कंपनियों से मोटे मोटे डिविडेंड की मांग कर रही है. सरकारी कंपनियों में हिस्सा बेचने पर भी ज़ोर लगाया जा रहा है. लेकिन वो सब भी फिलहाल दूर की कौड़ी है.
इसलिए सरकार भारी दबाव में है कि पैसे का इंतज़ाम कहां से करे. दूसरी तरफ ये भी साफ है कि इस वक्त अगर स्टिमुलस या राहत पैकेज जैसा कोई बड़ा कदम नहीं उठाया गया तो इकोनॉमी पर मंडरा रहे मंदी के बादल और गहरा सकते हैं. विकट समय है, लेकिन इतिहास में देखें तो ऐसे विकट समय में ही 1991 का आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरु हुआ था.
हिम्मत में है दम
सवाल ये है कि अब क्या निर्मला सीतारमण वो हिम्मत दिखा पाएंगी? क्या नरेंद्र मोदी सरकार बाकी चीजों को ताक पर रखकर इकोनॉमी को सुधारने के लिए कुछ ऐसे एलान करेगी जिससे अभी भले ही मुश्किल बढ़ती दिखे लेकिन लंबे वक्त में उनका फायदा तय हो.
और हिम्मत से भी ज़्यादा ज़रूरी है भरोसे की. सरकार का देश पर भरोसा और देश का सरकार पर भरोसा. उसके लिए सिर्फ बजट से काम नहीं चलेगा. बजट के बाहर भी सरकार की तरफ से कुछ फैसले, कुछ इशारे आने होंगे कि देश का माहौल ऐसा होगा, ऐसा बनाया जाएगा कि आपको अपने आज और अपने कल की फिक्र में दुबले होते हुए ही वक्त न गुज़ारना पड़े. शायद सबसे कारगर इलाज यही है इस माहौल में.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और यूट्यूब चैनल के संचालक हैं)