जब हम बौद्ध धर्म के विस्तार और प्रसार के बारे में सोचते हैं, तो पहली छवि जो दिमाग में आती है वह बहादुर भारतीयों की है जो रेगिस्तान और पहाड़ों को पार करके अपने धर्म को पूरे एशिया में शिष्यों तक पहुंचाते हैं. हम कल्पना कर सकते हैं कि उन्हें महान भारतीय राजाओं द्वारा भेजा गया था, और हम कल्पना करना चाहेंगे कि “भारतीय” संस्कृति इतनी सम्मोहक थी कि यह अपरिहार्य था कि शेष एशिया इसके तत्वों को अपनाएगा. लेकिन उन आरामदायक धारणाओं में से कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य से पैदा नहीं हुई है.
जैसा कि हम उन वास्तविकताओं पर विचार करते हैं जिनके द्वारा बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ – जिसमें सदी-दर-सदी प्रवास, सांस्कृतिक मंथन, और धार्मिक-राजनीतिक इनोवेशन शामिल हैं – हम देखेंगे कि इसका विस्तार हमारी इस धारणा को चुनौती देता है कि प्राचीन भारत दुनिया का केंद्र था.
ग्रेको-इंडियन, इंडियन-ग्रीक या कुछ और?
दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में, मौर्य सम्राट अशोक की मृत्यु के लगभग एक शताब्दी के बाद- साम्राज्य के पतन के कुछ दशकों बाद- एक व्यापारी ने कंधार में एक शिलालेख लगाया, इतिहासकार जॉर्जेस रूजमोंट ने अपनी 2005 की पुस्तक नोवेल्स इंस्क्रिप्शन ग्रेक्यूज़ डे ल’असी सेंट्रेल में लिखा था.
कंधार एक संपन्न शहर था, और व्यापारी लोगों का जीवन काफी जोखिमों और लाभों से भरा था. उसके मुताबिक, उसका नाम, नाराटोस का बेटा सोफिटोस था और उसके पास एक व्यापक हेलेनिस्टिक एजुकेशन था, हालांकि उसका परिवार कठिन समय से गुजर रहा था. उन्होंने “बुद्धिमत्ता से तीरंदाज अपोलो और म्यूसेस (ग्रीक देवियां) की कलाओं को साथ-साथ विकसित किया”, और फैसला किया कि सबसे बेहतरीन तरीका है एक बड़ा ऋण लेना और कई शहरों में अपने भाग्य आजमाना. अपने जीर्ण-शीर्ण पुश्तैनी घर में विजयी होकर लौटते हुए, उन्होंने इसका पुनर्निर्माण किया और अपने परिवार के मकबरे का जीर्णोद्धार कराया. यह सब विशेष रूप से आश्चर्यजनक नहीं लग सकता है – आखिरकार, 330 ईसा पूर्व में मैसेडोन के अलेक्जेंडर III (कभी-कभी “महान” के रूप में जाना जाता है) की विजय के बाद से ग्रीक मूल के लोगों की इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपस्थिति थी. नाराटोस के पुत्र सोफिटोस को छोड़कर वास्तव में नारद के पुत्र सुभूति का यूनानी अनुवाद है. “भारतीय” जैसा कि यह हमें लगता है, सुभूति / सोफिटोस / सोफाइट्स एक ऐसा नाम था जिसका उपयोग इस विषम क्षेत्र में कई लोगों द्वारा किया जाता था, जिनमें ईरानी मूल के लोग भी शामिल थे.
हालांकि यह निश्चित रूप से सच है कि दक्षिण एशियाई संस्कृति के कई रूप मध्य एशिया में फैले, जैसा कि सुभूति बताते हैं, यह किसी भी तरह से एकतरफा प्रक्रिया नहीं थी. जिन तंत्रों के माध्यम से यह घटित हुआ, वे काफी जटिल थे. 20वीं और 21वीं सदी के परिप्रेक्ष्य से, “भारत” की हमारी आधुनिक राजनीतिक सीमाओं को दूर के अतीत में प्रोजेक्ट करना स्वाभाविक है, लेकिन सुभूति की दुनिया – वास्तव में, अधिकांश इतिहास के लिए दुनिया – एक बहुकेंद्रित और सीमाहीन थी एक. यहां तक कि उनके नाम को भी विशेष रूप से “भारतीय” नहीं माना जाता.
दूर के गंगा के मैदानों के राजाओं के बजाय जो कि आने वाले हजारों सालों बाद ‘भारतीय’ राष्ट्रवादी प्रतीकों में बदल जाने वाले थे, उस समय दक्षिण और मध्य एशिया की सीमा के पास, “स्थानीय” सांस्कृतिक संकुलों से सम्राटों की ओर निष्ठा प्रतिस्थापित हो जानी थी. उनका नाम और उनका जीवन हमें जो बताता है वह यह है कि इस क्षेत्र के मध्यकालीन लोगों की तरह (जिन्हें हमने थिंकिंग मेडिवल के पहले के संस्करणों में देखा था), प्राचीन दुनिया में कई पहचान साथ-साथ अस्तित्व में थीं. और लोग, जटिल होने के कारण, उनके बीच काफी सहजता से बदलाव कर सकते थे.
यही तर्क उपमहाद्वीप की सीमाओं के भीतर यूनानी शासकों पर भी लागू होता है. इतिहासकार जेसन नीलिस ने अर्ली बुद्धिस्ट ट्रांसमिशन एंड ट्रेड नेटवर्क्स में कहा कि इंडो-ग्रीक राजा मेनेंडर सोटर (155-130 ईसा पूर्व) को अक्सर पालि में लिखी पुस्तक मिलिंद-पन्हों की वजह से बौद्ध माना जाता था, जहां उन्हें बौद्ध भिक्षु नागसेन से शिक्षा लेते हुए दिखाया गया है. हालांकि, पुरातात्विक खुदाई से पता चलता है कि बौद्ध उन कई समूहों में से एक थे जिनको मिनांडर का संरक्षण प्राप्त था.
मिनांडर ने निश्चित रूप से खुद को इस रूप में चित्रित करने की कोशिश की कि उनके “भारतीय” नागरिक समझ सकें, उदाहरण के लिए अपने सिक्कों पर पहिए का प्रतीक दिखाने का उद्देश्य उसे कहीं न कहीं उस समय उभर रहे चक्रवर्तिन या घूमते चक्र के जरिए सार्वभौमिक सम्राट के रूप मे दिखाना था. इसी तरह की रणनीति का पालन क्षेत्र के मध्यकालीन तुर्क शासकों द्वारा भी किया गया, जिन्होंने हिंदू देवताओं के चित्रण के साथ संस्कृत लिखे हुए सिक्के जारी किए थे.
लेकिन साथ ही, मिनांडर ने देवी एथेना के सिक्के भी जारी किए, जो सुभूति जैसे विविध पृष्ठभूमि के शहरी-निवासियों के द्वारा भी पहचानने योग्य होते थे.
वासुदेव और संकर्षण जैसे उभरते देवताओं वाले इंडो-ग्रीक सिक्कों पर भी यही बात लागू होती है, जिन्हें आज कृष्ण और बलराम के नाम से जाना जाता है. इनसे पता चलता है कि ये नायक-देवता मथुरा में पूजा के अपने मूल केंद्र से उत्तर-पश्चिम क्षेत्रों में नए उपासकों तक फैल गए थे. इन सिक्कों का जारी होना, जो कि नायक-देवताओं की सबसे पुरानी बचे हुए चित्र हैं, उनके विकास की एक प्रक्रिया को दिखाता है. साथ ही इस बात का भी प्रमाण है कि इन्हें इंडो-ग्रीक संरक्षण मिल रहा था और इनकी प्रसिद्धि लगातार बढ़ रही थी.
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बौद्ध हॉर्स लॉर्ड्स
पूरे इतिहास में, महान मध्य एशियाई स्टेपी, हर कुछ शताब्दियों में प्रवास करते रहे हैं. एक बड़ी लहर दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से पहली शताब्दी ईसापूर्व तक दक्षिण और पश्चिम एशिया में प्रवेश कर गई, जिसमें सीथियन, पार्थियन और कुषाण सहित कई समूह शामिल थे. एक बार फिर, मध्यकालीन प्रवास की तरह जिसके कारण 10वीं से 13वीं शताब्दी सीई तक तुर्क और मंगोल एक ही क्षेत्र में फैल गए थे, वैसा प्रवास देखने को मिल सकता है.
मिनांडर द्वारा अपने सिक्के जारी करने के दशकों बाद, इंडो-ग्रीक साम्राज्य खत्म हो गया था, इसकी जगह जंगी मध्य एशियाई लोगों ने ले ली थी जिन्हें शक या इंडो-सीथियन कहा जाता था.
जैसा कि धर्म और संस्कृति के एक प्रोफेसर जेसन नीलिस कहते हैं, शकों ने “क्षेत्रीय शासकों के एक संघ के माध्यम से क्षेत्र को नियंत्रित किया, जिन्होंने गांधार को मथुरा से जोड़ने वाले प्रमुख मार्गों पर नियंत्रण स्थापित किया”. दो अलग-अलग, लेकिन संबंधित, परिवारों ने वर्तमान पाकिस्तान के गांधार क्षेत्र और साथ ही वर्तमान भारत के मथुरा क्षेत्र में शासन किया.
कुछ अस्पष्ट कारणों से, शक, बौद्ध धर्म के जबरदस्त संरक्षक थे, जैसा कि 1869 में मथुरा में खुदाई से मिले एक शेर के स्तंभ शीर्ष से पता चला है. खरोष्ठी शिलालेखों में लिखित, यह शक रानी आयसिया द्वारा एक सर्वस्तिवाद बौद्ध मठ के पास एक अवशेष की पूजागृह स्थापित करने के लिए दिए गए उपहारों के बारे में वर्णन करता है. सर्वास्तिवाद संप्रदाय मूलसर्वास्तिवाद से जुड़ा हुआ था, जिसे पिछले सप्ताह के थिंकिंग मेडीवल में शामिल किया गया था. अयासिया इच्छा व्यक्त करती है कि दान की योग्यता सभी शकस्तान तक पहुंचनी चाहिए, इसका निहितार्थ उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिम भाग से था. इससे पता चलता है कि उनकी नज़र में, इस क्षेत्र को “भारत” नहीं माना जाता था, बल्कि एक शक मातृभूमि माना जाता था.
इस तरह के दान ने इस क्षेत्र को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने में मदद की. यह प्रक्रिया तब शुरू हो चुकी थी जब इंडो-यूनानियों ने शासन किया था, जैसा कि हमने ऊपर देखा, लेकिन शकों की स्थिरता और संरक्षण ने व्यापार मार्गों के साथ-साथ कई और बौद्ध (और प्रारंभिक शैव) मठों की स्थापना की, जिससे शहरी केंद्रों से कश्मीर और स्वात घाटियों के लिए इसके प्रसार को बढ़ावा मिला. इस प्रक्रिया के अभिन्न अंग स्थानीय लोग थे जिन्हें ओडिस कहा जाता था, और जिन्होंने बाद में शकों के साथ विवाह किया और जिन्होंने अंततः कई सदियों बाद ‘हिंदू शाही’ राज्य की स्थापना की.
दक्षिण एशियाई इतिहास को आकार देने में शक अत्यधिक महत्वपूर्ण थे, और इसे बेहतर ढंग से स्वीकार किया जाना चाहिए. उन्होंने दो डेटिंग सिस्टम की शुरुआत की, जो सदियों बाद भी इस्तेमाल की जाती रहीं, जिसमें विक्रम काल और शक काल दोनों शामिल हैं. विक्रम काल का संबंध सम्राटों-के-सम्राट एज़ेस (50-25 ईसा पूर्व) के शासनकाल से है जबकि शक काल का उपयोग अभी भी भारतीय गणराज्य द्वारा किया जाता है. जैसा कि संस्कृत के विद्वान शेल्डन पोलक ने द लैंग्वेज ऑफ द गॉड्स इन द वर्ल्ड ऑफ मेन में लिखा है कि शक शासकों ने ही शाही प्रशस्तियों में संस्कृत के उपयोग की शुरुआत की थी – एक प्रवृत्ति जो दूर-दूर तक फैल गई मध्ययुगीन काल (600-1100 CE) में आत्म-प्रस्तुति के और शाही मुख्य तरीकों में से एक बन गई.
यह तथ्य 21वीं सदी में सांस्कृतिक कट्टरता की निरर्थकता पर जोर देता है. ऐतिहासिक परिवर्तन की प्रकृति आपस में इतनी गुंथी हुई है कि हम दुनिया पर भारत के प्रभाव का उत्सव इस बात को स्वीकार किए बिना नहीं मना सकते कि जो कुछ “भारतीय” है, वह उन लोगों की भागीदारी के माध्यम से विकसित हुआ जिन्हें हम आज भारतीय नहीं मानते हैं.
(अनिरुद्ध कणिसेट्टी इतिहासकार हैं. वे मध्यकालीन दक्षिण भारत के एक नया इतिहास लॉर्ड्स ऑफ द डेक्कन के लेखक हैं, और इकोज ऑफ इंडिया और युद्ध पॉडकास्ट की मेजबानी करते हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AKanisetti है. व्यक्त विचार निजी है.)
यह लेख ‘थिंकिंग मेडिवल’ सीरीज का एक हिस्सा है जो भारत की मध्यकालीन संस्कृति, राजनीति और इतिहास में गहरा गोता लगाता है.
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