चल रहे पहलवानों के विरोध की कहानी एक फीकी भविष्यवाणी और राजनीतिक आश्चर्य की कहानी है. रेसलिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष और बीजेपी सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों पर केंद्र ने जिस तरह से प्रतिक्रिया दी है, उससे पता चलता है कि यह सरकार क्या सोचती है. और, यह सुनने में जितना विचित्र लगता है, इसका एक उदाहरण है कि नरेंद्र मोदी को उनके समर्थक एक मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में क्यों मानते हैं.
जो अनुमान था, वह साफ-साफ दिख रहा है. एक नाबालिग सहित सात पहलवानों ने सिंह और डब्ल्यूएफआई के अन्य कोचों पर वर्षों से उनका यौन उत्पीड़न करने का आरोप लगाया है.
बृज भूषण कोई पदक जीतने वाले चैंपियन नहीं हैं, उनकी तरह जो धरने पर बैठे हैं. वह उत्तर प्रदेश के कैसरगंज निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा सांसद हैं. WFI में उनका कार्यकाल प्रतिष्ठित भारतीय खेल परंपरा का एक और उदाहरण प्रस्तुत करता है, जो यह तय करता है कि सभी खेल निकायों को राजनेताओं और उनके परिवारों द्वारा चलाया जाना चाहिए.
न ही बृजभूषण का चरित्र कोई दूध का धुला है. उनके खिलाफ डकैती और हत्या के प्रयास सहित चार मामले दर्ज हैं. 1990 के दशक के मध्य में, उन्होंने दाऊद इब्राहिम गिरोह के सदस्यों को आश्रय देने के आरोप में टाडा के तहत कई महीने जेल में बिताए. जिस किसी ने भी मंच पर पहलवान को थप्पड़ मारते हुए उनका वीडियो देखा होगा, उन्हें थोड़ा बहुत अंदाजा हो गया होगा कि वह कैसे हैं.
जैसा कि दिप्रिंट के राजनीतिक संपादक डीके सिंह ने हाल ही में बताया, सिंह पर हत्या के प्रयास के एक मामले में मुकदमा चलाया गया था, लेकिन सबूत इकट्ठा करने का कोई प्रयास नहीं करने के लिए अदालत ने जांच करने वाली टीमों की जमकर खिंचाई करने के बाद उन्हें बरी कर दिया गया था. बृजभूषण शांतिप्रिय होने का ढोंग भी नहीं करते. उन्होंने पिछले साल कैमरे के सामने स्वीकार किया, ‘मैंने अपने जीवन में एक हत्या की है. लोग कुछ भी कहें, मैंने एक हत्या की है.
एक पूर्वानुमानित आख्यान
यह वह आदमी है जिसका पहलवान विरोध कर रहे हैं. दुर्भाग्य से बीजेपी के लिए, वह चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की शक्ति रखने वाले सांसद भी हैं. यही कारण है कि उनके साथ दूसरे गैर-राजनेताओं से अलग व्यवहार किया जा रहा है, जो यौन उत्पीड़न के ऐसे हाई-प्रोफाइल आरोपों से समाप्त हो जाते.
सरकार समर्थक मीडिया चैनलों ने पहलवानों की मंशा और विश्वसनीयता पर संदेह जताया है. साथ ही देश के प्रमुख खिलाड़ी संकट में पड़े पहलवानों के समर्थन में सामने आने से हिचकते रहे हैं. भारतीय ओलंपिक संघ (IOA) की अध्यक्ष पीटी उषा, शायद उसी राज्य-प्रायोजित ब्रीफ को पढ़ रही हैं, जैसा कि हर शाम टीवी एंकर करते हैं, यहां तक कि पहलवानों पर उनके विरोध के लिए उन्होंने उनपर हमला भी किया.
यह राजनेताओं के लिए दोहरी जीत थी. उषा ने न केवल उनकी एक संख्या का समर्थन किया बल्कि उन्होंने इस तर्क को भी खारिज कर दिया कि खेल निकायों को राजनेताओं के बजाय खिलाड़ियों द्वारा चलाया जाना चाहिए. एक खिलाड़ी को महासंघ का प्रभारी बना दें और वह किसी राजनेता की तरह ही भ्रष्ट हो सकता है, जैसा कि इस उदाहरण से पता चलता है.
यह इस कहानी का अस्पष्ट रूप से अनुमान लगाया जा सकने वाला हिस्सा है: अपने एक नेता पर हमला करें और बीजेपी उस नेता के समर्थन में अपनी सारी संपत्ति जुटा लेगी. और दूसरे जो आम तौर पर बोलते थे या तो कुछ भी कहने से डरते हैं या उषा की तरह उन पीड़ितों पर हमला करते हैं जो कहते हैं कि उनका यौन उत्पीड़न किया गया है.
लेकिन यहां हैरानी की बात है: प्रधानमंत्री मोदी ने हस्तक्षेप क्यों नहीं किया? आखिरकार, मोदी महिलाओं के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बारे में बात करने में बहुत समय लगाते हैं. मन की बात के 100वें संस्करण में (जिसके प्रसारण का पहलवान विरोध कर रहे थे), उन्होंने ‘हमारी सेना या खेल जगत’ में महिलाओं को सशक्त बनाने में अपनी सरकार की भूमिका के बारे में बात कही. वह या तो विडंबना से बेखबर थे या पहलवानों को एक संदेश देना चाहते थे.
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कांग्रेस की गलतियों से सीख
जिस सरकार के नारों में ‘बेटी बचाओ’ (बेटी बचाओ) शामिल है, वह बृजभूषण सिंह का समर्थन कैसे कर सकती है? क्या यह शर्मिंदगी की बात नहीं है कि उनके आलोचक अब यह कह रहे हैं कि नारा बदलकर ‘बेटी को हमारे से बचाओ’ कर दिया जाना चाहिए?
दिल्ली पुलिस (जो केंद्र सरकार के अंदर है) ने सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप करने तक सिंह के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करने से भी इनकार कर दिया. जहां तक राजनीतिक प्रतिष्ठान का संबंध है, इससे यह संदेश जाता है कि पहलवान पीड़ित नहीं, दुश्मन हैं.
पहलवानों के प्रति सरकार के रवैये के लिए कई स्पष्टीकरण पेश किए गए हैं. सबसे ज्यादा फोकस खुद बृजभूषण सिंह पर है. उन्होंने न केवल कई चुनाव जीते हैं, बल्कि कई निर्वाचन क्षेत्रों में उनका प्रभाव भी बताया जाता है. जाहिर है, यही कारण है कि बीजेपी, जो कर्नाटक की महिलाओं को यह आश्वासन देने में व्यस्त है कि वह उनकी रक्षा करेगी, बृजभूषण के खिलाफ कुछ नहीं कर रही है.
यह शायद एक मानी जा चुकी धारणा है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि इसके लिए यही सब कुछ है. मोदी जानते हैं कि यूपीए के खिलाफ लगाए गए भ्रष्टाचार और अनौचित्य के सभी आरोपों का एक कारण यह था कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने मामूली उकसावे पर लोगों को बर्खास्त कर दिया था. मीडिया को केवल एक कहानी पर ध्यान केंद्रित करना था और घोटाले में कथित रूप से शामिल व्यक्ति को तुरंत हटा दिया जाएगा.
कांग्रेस नेतृत्व ने यह इस भोले-भाले विश्वास के कारण किया कि लोग सरकार को शासन को एक अलग तरीके से देखेंगे.
लेकिन सच यह है कि इस बर्खास्तगी का विपरीत प्रभाव पड़ा. लोगों ने यह मानना शुरू कर दिया कि उनपर लगाए गए आरोप सही थे. अगर आरोप सही नहीं थे तो मंत्रियों को बर्खास्त क्यों किया गया? सड़क पर विरोध प्रदर्शन को लेकर भी सरकार ने उसी तरह की गलती की. सरकार ने ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ आंदोलन को वैधता दी, जो वास्तव में, एक दिल्ली-केंद्रित मीडिया की अवधारणा थी. सरकार ने इसमें अरविंद केजरीवाल से बात करने के लिए आधिकारिक प्रतिनिधिमंडलों को नियुक्त किया, जिसके कारण आम आदमी पार्टी (आप) जैसी पार्टी के उत्थान में काफी बल मिला. जब रामदेव दिल्ली आए, तो उन्होंने अपने छह मंत्रियों को हवाईअड्डे पर इस उम्मीद में भेजा कि वे उन्हें अपना आंदोलन वापस लेने के लिए राजी हो जाए.
जैसा कि इससे यह परिणाम निकला कि भ्रष्टाचार के बहुत कम आरोपों के कारण कोई भी सफल मुकदमा चला. चाहे वह यूपीए की हार और मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद की ही हो. और अक्सर, आरोपों में वास्तविक भ्रष्टाचार शामिल भी नहीं होता. शशि थरूर को ललित मोदी के कहने पर बर्खास्त किया गया (यह कैसी विडंबना है?). नटवर सिंह ने अपने मंत्रिस्तरीय करियर को काफी अपमान में देखा, भले ही उनके खिलाफ कुछ भी साबित नहीं हुआ था.
नरेंद्र मोदी जानते हैं कि यह नीति कितनी बेवकूफी भरी और मूर्खतापूर्ण थी. इसने न केवल यूपीए को घोटालों की सरकार के रूप में पेश किया, बल्कि इसने मनमोहन सिंह सरकार को और कमजोर बना दिया. इसने मीडिया को नियमित रूप से सरकार पर निशाना साधने के लिए प्रोत्साहित किया और इसने नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) के कार्यालय पर भी सवाल खड़े किए. इसने ऐसे आरोप लगाकर प्रचार हासिल करना शुरू कर दिया जो कायम नहीं रह सकते थे.
यह सब मोदी के फायदे के लिए काम किया. इस स्थिति को देखते हुए मतदाता एक मजबूत नेता की खोच करने लगे, जिसकी छवि ऐसी हो जो अपने लिए पैसा बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं रखता हो.
अब मोदी सरकार वही गलती नहीं करने के लिए संकल्पित है. वह तब तक कोई कदम नहीं उठाएगी जबतक आरोप वास्तविक हों, न कि ‘मीडिया उन्माद’ का एक हिस्सा हो.
इस सरकार के शुरुआती दिनों में जब सुषमा स्वराज के खिलाफ आरोप लगे थे, तो यूपीए के साथ अपने अनुभव के आदी मीडिया ने उनकी बर्खास्तगी की मांग करने लगी. लेकिन कुछ न हुआ. वह बच गई और उनपर लगे आरोपों को बाद में भुला दिया गया. यह मोदी की रणनीति रही है: कभी मत सुनो, कभी समझाओ मत और आंदोलन पर कभी नजर मत दो.
जनता के दबाव के आगे यह सरकार कम ही झुकती है. लेकिन अंतत: उन्होंने किसान आंदोलन के सामने घुटने टेक दिए क्योंकि उन्हें यूपी चुनाव की चिंता थी. उन्होंने एमजे अकबर को बर्खास्त कर दिया लेकिन वह कभी भी मोदी के पसंदीदा नहीं रहे. और कुछ दूसरे अवसर देखने को कम ही मिलते हैं जब मोदी सरकार जनता के दबाव में आई हो.
लेकिन यह चालाकी एक विश्लेषण का विषय हो सकती है.
तो क्या यह पहलवानों के साथ है. यदि बीजेपी को लगता है कि उनका विरोध कर्नाटक चुनाव को प्रभावित करेगा (जो अब तक नहीं किया है) या मोदी की छवि को गंभीर रूप से प्रभावित करेगा, तो वह कार्रवाई करेगी.
नहीं तो बृजभूषण सिंह की सवारी चलती रहेगी और पहलवान चुपचाप कभी भी हवा में उड़ सकते हैं.
(वीर सांघवी प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsangvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)
(संपादन: ऋषभ राज)
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