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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतलैपिड का द कश्मीर फाइल्स की आलोचना करना नई बात नहीं; फिल्मों को नाजी शासन, सोवियत, भारत अपना हथियार बनाते रहे हैं

लैपिड का द कश्मीर फाइल्स की आलोचना करना नई बात नहीं; फिल्मों को नाजी शासन, सोवियत, भारत अपना हथियार बनाते रहे हैं

इस हफ्ते के शुरू में इजरायली फिल्म मेकर नादव लैपिड ने यह कहकर अच्छा-खासा हंगामा खड़ा कर दिया कि विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स (2022) ‘एक प्रोपेगैंडा, वल्गर फिल्म है.

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फिल्म देखने के लिए दो करोड़ से ज्यादा लोगों ने कतारें लगा रखी थीं, जिनमें नाजी डेथ स्क्वॉड के सैनिक, बुर्जुआ बर्लिन के आसपास के लोग और थर्ड राइक (नाजी जर्मनी शासन) में रहने वाला हर दूसरा वयस्क शामिल था. ऑनस्क्रीन ड्रामा कुछ इस तरह था—अपनी पत्नी को राजगद्दी पर बैठाने के अवसर के लिए महंगे गहने खरीदने में आड़े आ रही पैसों की कमी के कारण ड्यूक ऑफ वुर्टेमबर्ग ने बेईमान सूदखोर जोसेफ सू ओपेनहाइमर की ओर रुख किया. उस दुष्ट यहूदी ने पहले तो ड्यूक को भ्रष्टाचार की राह पर धकेल दिया. फिर, पति को जेल से आजाद कराने के नाम पर निर्दोष डोरोथिया स्टर्म का रेप किया. इसके बाद डोरोथिया के आत्महत्या कर लेने से भड़के शहर के लोगों ने सू को सरेआम फांसी दे दी और यहूदियों को भी वुर्टेमबर्ग से जबरन बाहर निकाल दिया.

नाजी प्रोपेगैंड मिनिस्टर जोसेफ गोएबल्स ने 18 अगस्त 1940 को अपनी डायरी इंट्री में दर्ज किया है, ‘अंतत:, एक यहूदी-विरोधी फिल्म’ आई है. और शासन के दो मिलियन राइकमार्क पर इसके नतीजे काफी प्रभावित करने वाले थे—जैसा ज्यूड सू की एक स्पेशल स्क्रीनिंग के बाद हिस्टोरियन सुसान टेगेल ने लिखा, इससे जेल गार्ड को यहूदी कैदियों को और ज्यादा प्रताड़ित करने की प्रेरणा मिलेगी.

इस हफ्ते के शुरू में इजरायली फिल्म मेकर नादव लैपिड ने यह कहकर अच्छा-खासा हंगामा खड़ा कर दिया कि विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स (2022) ‘एक प्रोपेगैंडा, वल्गर फिल्म है और इस तरह के प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के आर्टिस्टिक कंपीटीटिव सेक्शन में शामिल करने योग्य नहीं है.’ इसके बाद तो सोशल मीडिया पर गाली-गलौज की बाढ़ ही आ गई और विरोध करने वालों ने यहूदियों को प्रताड़ित करने को लेकर भी इजरायल को काफी खरी-खोटी सुनाई. इसके बाद इजरायली राजनयिकों ने लैपिड की टिप्पणियों की आलोचना करते हुए खुद को इससे अलग कर लिया.

इस तरह के फिक्शन अनजाने में नहीं बनाए जाते हैं. अन्य सभी नैरेटिव की तरह द कश्मीर फाइल्स भी कुछ हद तक इतिहास को अपनी सुविधा से सेंसर करते हुए यह विकल्प अपनाती है कि कौन-सा सच बताया जाए और कैसे बताया जाए. हालांकि, इस फिल्म का विषय भले ही भावनाओं को झकझोर देने वाला हो लेकिन यह हिंसा की वकालत नहीं करती है. वैसे तो भारत का फिल्म उद्योग एक सेंसरशिप व्यवस्था के अधीन चलता है जो उदार लोकतंत्रों की तुलना में अधिनायकवाद के अधिक करीब है लेकिन इसके सत्ता के खिलाफ तीखे तेवर अपनाने का एक समृद्ध इतिहास रहा है.

बहरहाल, लैपिड की तरफ से की गई आलोचना उन मुद्दों को ज्यादा जोरदारी से उठाती है जो किसी एक फिल्म से कहीं अधिक मायने रखते हैं. भारत में लोकप्रिय फिल्मों और अन्य मास मीडिया माध्यमों को आखिरकार किस हद तक राज्य सत्ता के एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है? और पॉवर हमारी सोच को कैसे प्रभावित करती है? अधिनायकवादी सत्ताओं की तरफ से फिल्मों का इस्तेमाल तमाम जटिल सवालों और हमारे समाज पर उनके प्रभाव को दर्शाने के लिए एक कारगर हथियार के तौर पर किया जाता है.


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नाज़ी इल्यूज़न इंडस्ट्री

थर्ड राइक में फिल्में सिर्फ नफरत फैलाने वाली प्रोडक्शन लाइन नहीं थीं. 1933 और 1945 के बीच प्रोड्यूस 1,100 फिल्मों में से हर 10 में एक फिल्म गैर-राजनीतिक कॉमेडी, जासूसी कहानियों पर आधारित और मेलोड्रामा होती थी. नाजीवाद के प्रचारकों ने यह बात समझ ली थी कि फिल्म देखने आने वालों को इनके जरिये अपनी खुद की फैंटसी में जीना पसंद है, न कि फिल्मों के राजनीतिक सरोकारों से जुड़ना. सोशल हिस्टोरियन रिचर्ड ग्रुनबर्गर ने इस संदर्भ में लिखा है, ऐसा कौन-सा फिल्म दर्शक होगा जो ‘डिप्रेशन में सोने और थर्ड राइक में आंखें खोलने के बाद स्क्रीन पर भी वहीं सब देखना पसंद करेगा.’

आलोचक एरिक रेंटस्लर लिखते हैं, ‘थर्ड राइक के समय बनी फिल्में इल्यूजन मिनिस्ट्री से निकली थीं ना कि फीयर मिनिस्ट्री से…यदि किसी को एसएस ब्लैक में किसी को दहशत में डाल देने वाली पोशाक पहने या अपने फ्यूहरर (नेता) को सलाम करती कट्टरपंथियों की भीड़ को देखना है तो सबसे बेहतर यही होगा कि वह 1940 के दशक की हॉलीवुड फिल्मों की ओर रुख करे.

फिल्मों पर नाजी नियंत्रण वाले उपायों—जिसमें अमेरिकी फिल्मों के इंपोर्ट को सीमित करने जैसी सेंसरशिप शामिल है—की शुरुआत उदार-लोकतंत्र वीमर रिपब्लिक के तहत हुई थी. लेकिन नाजियों ने आगे बढ़कर तमाम सुरक्षात्मक कदमों को यह कहते हुए पूर्ववत कर दिया कि किसी फिल्म को केवल उसकी राजनीतिक सामग्री के कारण प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता.

थर्ड राइक ने अपने शुरुआती शासनकाल में ही ये बात अच्छी तरह समझ ली थी कि औद्योगिक स्तर पर इल्यूशन यानी लोगों को भ्रम में रखने वाली फिल्मों के सहारे उसे ज्यादा ताकत मिल सकती है. स्कॉलर जॉन ऑल्टमैन ने 1948 की शुरुआत में इसका उल्लेख किया था कि नाजियों ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद से बेचैन युवा समूह को अपने संदेशों के झांसे में लाने के लिए शासन-नियंत्रित समूह यूनिवर्सम की फिल्म अक्तेन का इस्तेमाल किया था. नाजियों को लग रहा था कि खास तौर पर ‘लक्ष्यहीन, छद्म-रोमांटिक, संदेह और जुनून’ से भरे इस वर्ग तक उसे अपना संदेश पहुंचाना चाहिए. 1934 के बाद से ‘फिल्म आवर’ जर्मन स्कूली शिक्षा के लिहाज से खास फिल्म बन गई थी.

कार्ल रिटर की ए पास ऑन ए प्रॉमिस (1938) इस जेनर की एक टिपिकल फिल्म थी, जिसमें दिखाया गया है कि एक युवा सैनिक लेफ्ट-विंग से जुड़ी अपनी प्रेमिका से नाता तोड़ लेता है और ‘जंग लड़ रहे लोगों की वास्तविक कॉमरेडशिप’ को स्वीकार करता है. ‘फिल्म आवर’ हजारों किशोरों को अपने फ्यूहरर के लिए लड़ने और अपनी जान तक गंवा देने के लिए प्रेरित करती है.

आलोचक स्कॉट स्पेक्टर कहते हैं कि स्पष्ट तौर पर अराजनैतिक फिल्में भी विचारधारा को बढ़ावा देने वाली हो सकती हैं. ला हैबनेरा (1937) में जारा लिएंडर को अत्याचारी डॉन पेड्रो में बहकावे में आया दिखाया गया है, जिसकी भूमिका फिर ज्यूड सू स्टार फर्डिनेंड मैरियन ने ही निभाई है. लिएंडर को अहसास होता है कि दक्षिण के प्रति भावुकतापूर्ण लगाव अल्पकालिक है और वह अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहती है. वहीं, लुइस ट्रेंकर की द प्रोडिगल सन (1934) न्यूयॉर्क में एक बावेरियन पर्वतीय युवा के दुस्साहसिक रोमांच की कहानी है, जिसे बाद में समझ आता है कि आखिर उसके लिए अपनी जड़ों से जुड़ा होना कितना जरूरी है.

बहरहाल, जैसा मार्सिया क्लॉट्ज का मानना हैं कि ऐसी फिल्में कभी-कभी संदेश देने की बजाये कुछ अलग ही वजहों से खास रहीं. उन पर दर्शकों की प्रतिक्रिया अप्रत्याशित रही. मसलन ज्यूड सू ने एक अजब सेक्सी खलनायक की छवि निर्मित की और फर्डिनेंड मैरियन की कातिल अदाओं ने आर्यन वुमनहुड की इच्छुक महिलाओं को अपना दीवाना बना दिया. ‘उन्हें जर्मनी के हर शहर से ढेरों प्रेमपत्र मिलते थे.’


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सहमति के आधार पर बनाई गई फिल्में

नाजी शासन के दौरान अधिकांश समय नाजी फिल्म उद्योग सफल रहा—और इस मामले में यह अकेला नहीं था. सोवियत क्रांति के बाद फिल्म निर्माताओं ने पांच साल से अधिक समय तक काफी आजादी का आनंद उठाया. दीसेम्ब्रिस्ट्स जैसी भव्य पोशाकों वाली फिल्में थीं, वहीं इकोव प्रोट्जानोव जैसे फिल्म निर्माताओं, और अवांट-गार्डे वाले सर्गेई ईसेनस्टीन जैसे नए निर्देशकों के बीच पॉलिटिकल सटायर को लेकर प्रतिस्पर्धा भी चलती रहती थी. विदेशी फिल्में व्यापक रूप से उपलब्ध थीं. मैरी पिकफोर्ड और डगलस फेयरबैंक्स का मास्को में पूरे उत्साह के साथ स्वागत हुआ.

इसके बाद जोसेफ स्टालिन का उदय हुआ और एक नई तरह की अनुशासित सोवियत फिल्म आईं. फिल्म निर्माताओं को किसी व्यक्ति या उसके निजी जीवन को दर्शाने के बजाये, राज्य और लोगों के साथ इसके संबंधों पर ध्यान केंद्रित करने को कहा गया.

फिल्म थिएटरों ने टांका, द बार गर्ल (एक कुलक की कहानी जो कम्युनिस्ट स्कूल टीचर सेस्ट्रिन की हत्या की साजिश रचता है, ताकि ग्रामीणों की शराब की लत न छूटे) जैसी फिल्में दिखानी शुरू कर दीं. डेनिस यंगब्लड लिखते हैं, अंतत: सेस्ट्रिन टांका को कुलक के चंगुल से छुड़ाती है और मयखाने को चाय घर में बदल देती है. और फिर मजदूर वोडका के बिना खुशी से रहने लगते हैं.

पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना ने भी फिल्म को अपने संदेश ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाने के लिए एक शक्तिशाली माध्यम बनाया—जहां अक्सर ही न बिजली रहती थी और न ही थिएटर थे. द न्यू स्टोरी ऑफ ए ओल्ड सोल्जर (1959) एक सरकारी फार्म स्थापित करने की कोशिश को दिखाती है, जो सफल रही क्योंकि नायक ने ‘लोगों को जुटाया और पार्टी नेतृत्व पर भरोसा जताया.’ हियुंग देह-ता ने लिखा है, संवाद बहुत ही साधारण से थे—जैसे ‘मुझे धन्यवाद न दें, पार्टी का धन्यवाद करें.’ लेकिन फिल्म काफी लोकप्रिय साबित हुई.

आजादी से काम करने पर लगी बंदिशें

पिछले सदी के शुरुआत के समय से ही उदार लोकतांत्रिक देशों को फिल्मों के देश-विरोधी होने के मसले पर काफी कुछ झेलना पड़ा है. 1917 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि फिल्मों को फ्री स्पीच का अधिकार नहीं दिया जा सकता. संघीय जांच ब्यूरो (एफबीआई) के एजेंट सिर्फ इस वजह से चार्ली चैपलिन को परेशान करते रहे थे क्योंकि उनका मानना था कि वह एक कम्युनिस्ट आंदोलनकारी है. क्लेटन कोप्पस ने खुलासा किया है कि 1942 से 1945 तक ऑफिस ऑफ वॉर इंफॉर्मेशन अपनी विचारधारा के प्रसार के लिए कई प्रमुख अमेरिकी स्टूडियो की बांहे मरोड़ता रहा, ये एक ऐसी व्यवस्था थी जो पूरे शीत युद्ध के दौरान जारी रही.

दीर्घकालिक नतीजे की बात करें तो इन व्यवस्थाओं के प्रभाव सीमित थे. यह इंडस्ट्री खुद ही अपने नियम-कायदे तय करने में सक्षम हो, इसके लिए तमाम बड़े स्टूडियो ने अपनी आर्थिक और राजनीतिक पहुंच का लाभ उठाया. 1950 के दशक में फिल्म निर्माताओं ने अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा के मामले में कानूनी लड़ाई जीत ली—यहां तक कि अश्लील या ईशनिंदा वाली फिल्में बनाने के मामले में भी.

वहीं, आजाद भारत ने एक काफी अलग रास्ता चुना—प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1952 में फिल्म निर्माताओं को फटकार लगाते हुए कहा था, ‘बहुत ज्यादा मेलोड्रामा है, यह सारा ड्रामा कम करें.’ अरुण वासुदेव का मानना है कि उत्तर-औपनिवेशिककाल में भारत का संभ्रांत वर्ग फिल्मों को ‘निंदनीय, लेकिन अपरिहार्य होने के साथ-साथ सामाजिक स्तर पर तबाह करने वाली’ मानता था. नेहरू ने थोड़ी हिचकिचाहट के साथ माना था, ‘फिल्में लोगों के जीवन में खासा प्रभाव डालती हैं. जो फिल्में सिर्फ सनसनीखेज या मेलोड्रामैटिक हैं…उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया जाएगा.’

1952 में कानूनी तौर पर फिल्म सेंसरशिप की शुरुआत होने के बाद फिल्म निर्माताओं के लिए औपनिवेशिककाल की प्रथाओं के उलट लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की जगह सीमित हो गई, इसके बजाये उन पर सामाजिक स्थिति पर केंद्रित फिल्में बनाने का दबाव बढ़ा.

1950 के दशक में अधिकांश फिल्म निर्माता नेहरू के सपनों से उत्साहित थे. फिल्म स्कॉलर प्रिया जोशी ने उल्लेख किया है, हालांकि, आजादी के पहले दशकों में ही ऐसी प्रतिबद्धता दिखने लगी थी. लेकिन व्यापक तौर पर यह अमर कुमार की फिल्म अब दिल्ली दूर नहीं (1957) में नजर आई, जिसमें एक 10 साल का बच्चा अपने पिता को गलत ढंग से सजा देने के खिलाफ प्रधानमंत्री को याचिका देने के लिए राजधानी पहुंचता है. फिल्म के अंतिम दृश्य में नेहरू को लड़के से मिलने का वादा करते दिखाया गया है—यह इसे केवल रैलियों और पोस्टरों में बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के लिए रिकॉर्ड किया गया था.

फिल्म ब्यूरोक्रेसी ने नेहरू के घटते असर का जवाब अपना शिकंजा कसकर दिया. 1961 में आई दिलीप कुमार की फिल्म गंगा जमुना को भी हिंसा और अश्लीलता के चलते प्रतिबंधित करने की चेतावनी दी गई, और यह निर्णय केवल प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद ही पलटा गया.

इंदिरा गांधी ने कोयला राष्ट्रीयकरण जैसी अपनी नीतियों को वैध साबित करने के लिए लोकप्रिय फिल्मों का इस्तेमाल किया, जिसमें काला पत्थर (1979) भी एक थी. सौतिक बिस्वास लिखते हैं, इसके बाद से प्रतिबंध झेलने वाली फिल्मों की संख्या लगातार बढ़ती रही है, खासकर सेक्सुअल और धर्म और राजनीतिक संघर्ष से जुड़े विवादास्पद विषयों पर फिल्में बनाना लगभग असंभव हो गया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासनकाल में उनकी नीतियों या उनकी विचारधारा का गुणगान करने वाली फिल्मों की भरमार है. वहीं, तमिलनाडु जैसे राज्यों में उनके प्रतिद्वंद्वी उनके विरोध को मुखर करने के लिए यही तरीका अपना रहे हैं. उनकी एकजुट प्रतिबद्धता वास्तविक असंतोष को दबाने वाली है.

सोवियत संघ की तरह नाजी जर्मनी का भी पतन हुआ क्योंकि इसकी कल्चर इंडस्ट्री ने अपने लोगों को वो सवाल उठाने या उनके बारे में सोचने तक में असमर्थ बना दिया था जो उन्हें खुद से पूछने की जरूरत थी. लैपिड ने काफी रूखे अंदाज में यह उल्लेख किया है कि कैसे राष्ट्रवाद किसी व्यक्ति को अंधा कर सकता है—‘आप अपने देश से इतना ज्यादा प्यार करते हैं, कि आपको यही लगता है कि हर किसी को इससे प्यार करना ही चाहिए.’ फिल्ममेकर ने आगे कहा, ‘देखो, मैं इजरायल से हूं और मैं इजरायल से नफरत कर सकता हूं, इसके बारे में कड़वी बातें कह सकता हूं, और इसे कभी भी कोस सकता हूं.’

मुक्त समाज न केवल अपनी कटु आलोचना सुनने का साहस रखता है, बल्कि पूरी ईमानदारी के साथ यह पूछने में भी भरोसा करता है कि क्या ये बातें सच हो सकती हैं.

(लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर है. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी)


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