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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतबायकॉट के मामले में डरावनी बात यह है कि इस पर नैतिक, वैधानिक दृष्टि से आपत्ति उठाना मुश्किल है

बायकॉट के मामले में डरावनी बात यह है कि इस पर नैतिक, वैधानिक दृष्टि से आपत्ति उठाना मुश्किल है

कोई असंतुष्ट राष्ट्रवादी भीड़ बायकॉट करने की धमकी सोशल मीडिया पर देती है तब हम उस पर आपत्ति कैसे कर सकते हैं? असली खेल यह है कि बायकॉट के निशाने पर जो हैं वे साहस और धैर्य के साथ मजबूती से टिके रहें.

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कोई खबर पढ़ने या कोई ट्वीट देखने के बाद क्या कभी आपको यह लगता है कि वह जरूर एक मज़ाक होगा? लेकिन बाद में पता चलता है कि वह तो बेहद गंभीर खबर है. मैं कहना यह चाहता हूं कि इन दिनों मेरे साथ ऐसा बहुत हो रहा है. पिछले सप्ताह मेरे टाइमलाइन पर किसी ने डॉ. प्राची साध्वी के एक ट्वीट को मुझे रीट्वीट किया. साध्वी ने ट्वीट किया था कि “क्या आपने टीवी चैनलों पर कैडबरी चॉकलेट का विज्ञापन देखा है? उसमें पटरी पर दीये बेचने वाले गरीब फेरीवाले का नाम दामोदर है. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम के व्यक्ति की खराब छवि पेश करने के लिए किया गया है. चायवाले का बाप दीयावाला. शर्मनाक कैडबरी कंपनी!”

और बेशक इसके साथ जरूरी हैशटैग तो था ही— “#कैडबरी का बायकॉट करें”.

पहले तो यह मुझे अविश्वसनीय लगा. मैंने सोचा, शायद यह ट्वीट बायकॉट करने वालों ने उपहास किया था. लेकिन नहीं, यह गंभीर ट्वीट था. और “#कैडबरी का बायकॉट करें” जल्दी ही ट्विटर पर ट्रेंड हो गया.

हैरान होकर मैंने डॉ. प्राची साध्वी के प्रोफाइल को देखा. उन्हें ‘ब्लू टिक’ हासिल था और 2,58,000 फॉलोवर थे और उन्होंने खुद को विश्व हिंदू परिषद (विहिप) का नेता बताया है.

मैं नहीं जानता कि बायकॉट कितना सफल रहा. अगर हम दामोदर नाम के व्यक्ति के साथ हुई हर बात पर नज़र रखने लगें तो मुझे पक्का यकीन है कि हमें हजारों ऐसी किताबें, फिल्में, विज्ञापन आदि मिल जाएंगे जो उत्तेजित कर सकते हैं. इसलिए, मुझे आश्चर्य हुआ कि कैडबरी को क्यों निशाना बनाया जा रहा है.

कैडबरी का बायकॉट करने की कोशिश एक बार इसलिए भी हुई थी कि उस पर आरोप लगा था कि उसके चॉकलेट में गोमांस के उत्पाद शामिल होते हैं. लेकिन वह आरोप गलत साबित हुआ था क्योंकि वह कैडबरी की ऑस्ट्रेलियाई शाखा के उत्पाद के बारे में दी गई जानकारी के स्क्रीनशॉट पर आधारित था. कोई भी भारतीय ब्रांड यहां ऐसे चॉकलेट बेचने की कोशिश करने की मूर्खता नहीं करेगा जिसमें गोमांस के तत्व तो क्या, कोई भी नॉन-वेज चीज शामिल हो.

सीधी-सी बात यह है कि इस बायकॉट से कैडबरी की बिक्री पर कोई खास नहीं पड़ने वाला है. कल्पना कीजिए कि कोई मां अपने बच्चे को किसी चॉकलेट स्टोर में ले गई है और बच्चा कैडबरी चॉकलेट की मांग करता है, तब मां क्या यह कहेगी कि “नहीं बेटा, हम कैडबरी नहीं खा सकते क्योंकि इस कंपनी ने कभी यह विज्ञापन दिया था जिसमें एक पात्र का नाम वही था जो नरेंद्रभाई के पिता का नाम है. उस कंपनी वाले सब बहुत बुरे लोग हैं”?

लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता.


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बायकॉट की संस्कृति

हम बायकॉट की महामारी पर हंस सकते हैं लेकिन जिन्हें निशाना बनाया जाता है उनके लिए यह कोई मनोरंजन नहीं है. कुछ लोग बातों को तोड़-मरोड़कर रखते हैं. अगर आमिर खान कुछ कहने की हिम्मत करते हैं तो उन्हें चुप कराने के लिए उन कंपनियों का बायकॉट करना कारगर हो सकता है जो आमिर के साथ कारोबार करती हैं. प्रभावशाली व्यक्तियों को निशाना बनाने वाले बायकॉट तो एक कुटिल मकसद को पूरा कर सकते हैं. लेकिन चॉकलेट बनाने वालों का बायकॉट क्यों? मुझे कुछ समझ में नहीं आया. फलों और बादाम आदि से बने चॉकलेट के बायकॉट की मांग वही कर सकता है जो नादान हो.

एक तरह से बायकॉट दरअसल पश्चिम की ‘कैंसल कल्चर’ का भारतीय रूप है, जो उतनी ही मनमानी भरी और मूर्खतापूर्ण है. फर्क यह है कि पश्चिम में बायकॉट/कैंसल अभियान राजनीतिक दक्षिणपंथ से जुड़ा नहीं है. यह आम तौर पर दक्षिणपंथियों से नफरत करने का दावा करने वाले करते हैं.

मैं नहीं जानता कि इस सबसे कोई फर्क पड़ता है या नहीं. भारत में बायकॉट ब्रिगेड ने फिल्म उद्योग को दहशत में डाल दिया था. लेकिन क्या इससे बॉक्स ऑफिस पर फिल्मों की कमाई में कोई कोई फर्क पड़ा? क्या लाल सिंह चड्ढा फिल्म का बायकॉट नहीं किया जाता तो वह हिट हो जाती? अगर बायकॉट में इतनी ही ताकत होती है तो ‘ब्रह्मास्त्र’ फिल्म इतनी बड़ी हिट कैसे हो गई? क्या रणबीर कपूर के फैन उनका इसलिए बायकॉट कर देंगे कि सोशल मीडिया पर किसी ने यह लिख दिया कि रणबीर ने एक बार यह कहा था कि वे गोमांस खाते हैं?

‘कैंसल कल्चर’ का मामला भी बहुत कुछ ऐसा ही है. अगर व्यक्तियों को ‘कैंसल’ (खारिज) करने की धमकियों में इतनी ताकत होती तो ऐसी मुहिमों के निशाने पर रहीं ब्रिटिश लेखिका जे.के. रॉलिंग का क्या हश्र होता? उनका पाप यह माना जाता है कि वे ‘ट्रांसजेंडरों’ के अधिकारों का पर्याप्त सम्मान नहीं करतीं, जो कि सच भी हो सकता है या झूठ भी. लेकिन उनके खिलाफ ‘कैंसल’ मुहिम चलने के बावजूद उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही गई है.

बायकॉट के मामले में डरावनी बात (हालांकि ‘कैंसल कल्चर’ के मामले में ऐसा नहीं है, जो कि हर परिस्थिति में लगभग गलत ही होती है) यह है कि इस पर नैतिक या वैधानिक दृष्टि आपत्ति उठाना मुश्किल होता है. लोगों को कैडबरी चॉकलेट न खाने या आमिर खान की फिल्में न देखने का पूरा अधिकार है. इसके लिए आप उन पर कोई दोष नहीं मढ़ सकते.

दरअसल, कई देशों ने बायकॉट को अपने नीतिगत हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है. सभ्य जगत ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार द्वारा निर्यात की जाने वाली चीजों का दशकों तक बायकॉट किया. नेल्सन मंडेला ने बाद में कहा भी कि इन बायकॉटों (और आर्थिक प्रतिबंधों) के कारण वहां रंगभेद समाप्त हुआ. अमेरिका ने 1980 में अफगानिस्तान पर हमले का विरोध करने के लिए मॉस्को ओलंपिक का बायकॉट किया था. भारत-पाकिस्तान के बीच जब तनाव बढ़ता है तब भारत अक्सर पाकिस्तान के साथ क्रिकेट मैच खेलने से मना कर देता है क्योंकि हम मानते हैं कि इससे पाकिस्तान पर दबाव पड़ेगा.

इसलिए, जब कोई असंतुष्ट राष्ट्रवादी भीड़ किसी व्यक्ति या कंपनी का बायकॉट करने की धमकी सोशल मीडिया पर देती है तब हम उस पर आपत्ति कैसे कर सकते हैं?

इसका जवाब यह है कि हम आपत्ति नहीं कर सकते.


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बायकॉट कैसे सफल होता है

हम इसे कबूल न करते हों मगर एक स्वतंत्र समाज में हमें बायकॉट को अपना काम करने देना चाहिए. मेरा मानना है कि उनका खास असर होता नहीं है. बायकॉट की मुहिम को ट्विटर पर ट्रेंड कराना आसान है. (सोशल मीडिया कंसल्टेंट को पांच लाख रुपये दीजिए, वे आपकी बिल्ली को भी ट्विटर पर ट्रेंड करा देंगे). और हां, कट्टरपंथी भी होंगे जो बायकॉट को जबरन लागू करने की कोशिश करेंगे.

लेकिन बायकॉट की सभी बेमानी अपीलों का केंद्रीय आधार दोषपूर्ण होता है. बायकॉट की अपील करने वाले लोग यह मानते हैं कि बाकी लोग भेड़ हैं, नितांत मूर्ख. उनसे किसी चीज या किसी व्यक्ति का बायकॉट करने के लिए कहिए तो वे आंख मूंद कर उसे मान लेंगे.

लेकिन हम देख चुके हैं कि ऐसा होता नहीं है. वे मानते हैं कि अगर कोई वजह जायज है—जैसे यह कि पाकिस्तान ने भारत में आतंकवाद को बढ़ावा दिया है, या यह कि किसी व्यक्ति ने बयान देने या व्यवहार करने में सीमा का उल्लंघन किया है— तो लोग बायकॉट को सफल बना देंगे.

लेकिन वैसे, वे किसी-न-किसी निरर्थक कारण से बार-बार बायकॉट की अपील से लोग ऊब जाते हैं. अभिभावक अपने बच्चों को किसी चॉकलेट से इसलिए वंचित नहीं करना चाहेंगे कि विहिप का कोई नेता किसी मामूली वजह को लेकर नाराज है. किसी फिल्म स्टार के फैन अचानक उसकी फिल्में देखना इसलिए नहीं बंद कर देते कि उन्हें पता चलता है कि उसने कभी यह कहा था कि उसे हैमबर्गर पसंद है.

असली खेल यह है कि बायकॉट के निशाने पर जो हैं वे मजबूती से टिके रहें और बायकॉट का असर खत्म होने का इंतजार करें. लेकिन अफसोस की बात यह है कि व्यक्ति या कंपनियां बायकॉट की शुरुआत में ही डर जाती हैं और हार मान लेती हैं. बायकॉट करने वालों का हौसला इसी वजह से बढ़ता है.

थोड़ा साहस दिखाएं, थोड़ा धैर्य बरतिए, भीड़ हथियार डाल देगी और आगे बढ़ जाएगी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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