दिल्ली का चुनाव खत्म हो गया है. 16 तारीख को अरविंद केजरीवाल तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण करेंगे. पूरे चुनाव में दो चीजें छाई रहीं- आम आदमी पार्टी के आईटी सेल द्वारा मनोज तिवारी के मीम्स की बाढ़ ला देना और मनोज तिवारी का इन मीम्स को लेकर रोना, इन्हें पूर्वांचली अस्मिता से जोड़ना और महिलाओं के हक में बोलने वाले नेता के तौर पर खुद को पेश करना.
लेकिन इसके इतर एक महत्वपूर्ण पहलू ये भी रहा कि इस दौरान राजनीतिक पार्टियां ‘वोक फेमिनिज्म’ का शिकार हुईं. सबसे पहला उदाहरण 70 विधानसभा सीटों पर केवल 9 महिलाओं को टिकट देने वाली पार्टी आम आदमी पार्टी का ही है. चुनाव से ठीक पहले मेट्रो में महिलाओं की यात्रा फ्री कर महिला मुद्दों पर संवेदनशील छवि बनाने वाली पार्टी के आईटी सेल ने मनोज तिवारी के गानों का सेक्सिज्म ही जनता के सामने परोसा. भले इसके पीछे उनकी मानसिकता तिवारी को केजरीवाल की तुलना में एक हल्के और छिछोरे उम्मीदवार के तौर पर पेश करने की रही हो. नए मंत्रिमंडल में से किसी भी महिला नेता को जगह नहीं दी गई. पिछली सरकार में भी यही हाल था.
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दूसरा उदाहरण शाहीन बाग है जहां की औरतों को लेकर भाजपा नेताओं के अतिरंजित बयान तो सामने हैं ही, आम आदमी पार्टी की चुप्पी भी सामने है. अरविंद केजरीवाल हों या आमित शाह, कोई भी नेता इन महिलाओं से मिलने नहीं गया. हां एक चुनावी नतीजों के बाद गृहमंत्री अमित शाह कह रहे हैं कि वो शाहीन बाग की औरतों से बात करने के लिए तैयार हैं. चुनाव प्रचार में वो शाहीन बाग को करंट लगने से जैसे बयान दे रहे थे. खुद आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल शाहीन की औरतों से नहीं मिले. जबकि लोकनीति-सीएसडीएस की एक रिपोर्ट बताती है कि आम आदमी पार्टी को मिली लैंडस्लाइड जीत में महिला वोटर्स का योगदान बहुत है.
पिछले दिनों आम आदमी पार्टी के एक कार्यकर्ता का वीडिया वायरल हुआ जिसमें वो कभी पार्टी का हिस्सा रहीं अल्का लांबा से उनके 22 साल के बेटे के पिता के बारे में पूछ रहे हैं. ये सवाल वो तब तक दोहराते हैं जब तक अल्का लांबा उनकी तरफ थप्पड़ नहीं करतीं.
कभी बॉलीवुड एक्टर सिद्धार्थ मल्होत्रा द्वारा भोजपुरी भाषा को लेकर ‘लैटरीन जैसी फीलिंग’ वाले बयान को 22 करोड़ भोजपुरी लोगों की बेइज्जती बताने वाले मनोज तिवारी ने कभी भी देश की आधी आबादी की खराब छवि पेश करने के लिए माफी नहीं मांगी. वो गर्व से ‘रिंकिया के पापा’ के मीम्स को तो अपनाते हैं लेकिन अपने गानों में परोसी गई अश्लीलता को कभी नहीं स्वीकार करते.
तिवारी यदा-कदा महिलाओं को लेकर गाए गए गानों को महिला सशक्तिकरण से जोड़कर बखान करते नजर आते हैं लेकिन बेबी ‘बीयर पीके नाची’ गाने में इस्तेमाल की गई लाइनों की कभी व्याख्या नहीं करते. ना ही ये बताते हैं कि ‘बबुनी के लागल बा शहर के हवा, औरी पढ़ावा’ जैसे गाने गाकर वो कैसे स्त्रियों की पढ़ाई में योगदान दे रहे थे. विडंबना ये है कि दिल्ली चुनाव में शिक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनी थी.
पूर्वांचलियों के साथ होने वाले सांस्कृतिक भेदभाव की बात किसी से छुपी नहीं है. लेकिन इस बहस के बीच से हम ये कैसे भूल सकते हैं कि जिन गानों को लेकर तिवारी का मज़ाक उड़ा वो गाने खुद महिलाओं के मज़ाक उड़ाते नजर आते हैं. पिछले कुछ सालों से क्षेत्रीय सिनेमा के पतन की बहस जारी है. क्या इस पतन में तिवारी के गानों का योगदान नहीं है जिसमें महिलाओं को एक मांस के लोथड़े से ज्यादा नहीं समझा गया?
Jyoti ji has brought out very relevant issue àrd I think society can grow only when women and girls are not only given freedom to act as per their choice but respected too in when holding responsible posts of any kind !Their participation in governance and leadership should get increased !