इतिहास की द्वंद्वात्मकता अपने पात्रों के साथ रोचक खेल खेलती है. हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के दंतेवाड़ा उपाध्यक्ष जगत पुजारी की छत्तीसगढ़ में माओवादियों की कथित मदद के आरोप में गिरफ्तारी ने एक बार फिर उग्रवाद प्रभावित क्षेत्र में अतिवामपंथी विद्रोहियों और दक्षिणपंथी नेताओं के बीच निकट गठजोड़ को उजागर किया है.
इस गठजोड़ में राजनीतिक सौदे और भौतिक सहायता शामिल रहे हैं. इसे दो बार हत्याओं का झटका भी लगा — 2013 में भाजपा के तत्कालीन दंतेवाड़ा उपाध्यक्ष शिवदयाल सिंह तोमर और 2019 में भाजपा के तत्कालीन विधायक भीमा मंडावी की हत्या. लेकिन फिर भी ये संबंध फलता-फूलता रहा.
पुजारी, और रमेश उसेंडी नामक एक व्यक्ति, के खिलाफ माओवादियों को एक ट्रैक्टर समेत विभिन्न सामग्रियों की आपूर्ति के आरोप में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया है. उल्लेखनीय है कि राज्य में माओवादी गतिविधियों पर रोक लगाने के लिए 2005 का ये कानून भाजपा की रमन सिंह सरकार ने लागू किया था.
पुजारी की गिरफ्तारी ने ‘शहरी नक्सली’ रूपी कल्पित शत्रु के खिलाफ भाजपा के दावों की कलई खोल दी है. इसने माओवादी इलाकों में पार्टी की विश्वासघाती राजनीति को भी उजागर करने का काम किया है.
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मज़बूत सांठगांठ
भाजपा नेता की गिरफ्तारी पर बहुत हंगामा मचा और बहुतों ने माओवादी छापामारों से गुप्त संबंधों के लिए पार्टी की आलोचना की, पर शायद अधिकांश लोगों को मालूम नहीं कि इस गठजोड़ का एक लंबा इतिहास है. उदाहरण के लिए, 2008 में छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों के दौरान सलवा जुडूम के प्रणेता और कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा को पराजित करने के लिए भाजपा और विद्रोही साथ आ गए थे. उस चुनाव में बस्तर क्षेत्र में भाजपा ने 12 में से 11 सीटें जीती थी. वो दौर माओवादियों के बढ़ते प्रभाव वाला था, जब वे अजेय दिखते थे, और अपनी मर्जी अनुसार पुलिस बल पर हमले कर सकते थे. कर्मा को दंतेवाड़ा की अपनी स्थानीय सीट पर मुंह की खानी पड़ी. वे भाजपा के भीमा मंडावी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के उम्मीदवार के पीछे तीसरे स्थान पर रहे. 2008 के चुनाव में दंतेवाड़ा में भाजपा पहली बार जीती.
गठजोड़ प्रगाढ़ होता गया; राजनीतिक सौदों में भौतिक समर्थन का तत्व भी जुड़ गया. बस्तर में कर्मा और कांग्रेस जैसे-जैसे कमज़ोर पड़ते गए, माओवादियों की ताकत बढ़ती गई. जिस इलाके की राजनीति केवल कांग्रेस और सीपीआई तक सीमित थी, वहां भाजपा फलने-फूलने लगी. इस तरह बस्तर एक ऐसा दुर्लभ क्षेत्र बन गया जहां वामपंथी छापामारों और दक्षिणपंथियों, दोनों का साथ-साथ उभार हो रहा था. जंगल वाले इलाकों में अपने विस्तार के लिए दोनों ही समूहों को एक-दूसरे का साथ चाहिए था — एक छापामार सेना खड़ी करना चाहता था, तो दूसरे को आदिवासियों के बीच पैठ करनी थी. परस्पर सहायता करने में उन्हें कोई हिचक नहीं थी.
छत्तीसगढ़ पुलिस ने 2014 की जनवरी में धर्मेंद्र चोपड़ा नामक एक ठेकेदार को गिरफ्तार किया था, जिसने अधिकारियों के सामने कबूल किया था कि वह भाजपा नेताओं, कांकेर से पार्टी के तत्कालीन सांसद सोहन पोटाई भी शामिल, और माओवादियों के बीच बिचौलिए का काम करता था. चोपड़ा ने बाद में मुझसे कहा था कि उसने ‘उनके चुनाव अभियानों की फंडिंग’ की थी. दरअसल चोपड़ा को रायपुर एयरपोर्ट के पास जब गिरफ्तार किया गया था तो वह पोटाई की गाड़ी में यात्रा कर रहा था. महज एक दशक के भीतर कांकेर के इस छोटे से ठेकेदार ने रायपुर में एक बंगला समेत बड़ी संपत्ति हासिल कर ली.
अपना बचाव करते हुए पोटाई ने मुझसे कहा था: ‘मैं चोपड़ा को कई वर्षों से जानता हूं, पर मुझे उसकी गतिविधियों की कोई जानकारी नहीं है. उस शाम वह मेरी गाड़ी में था, पर कुछ अन्य वजहों से.’
चोपड़ा ने एक कांग्रेसी नेता का भी नाम लिया था. उसके कई माओवादियों से भी संपर्क थे और उसने विद्रोहियों को मोबाइल फोन जैसे उपकरणों की आपूर्ति की थी.
भाजपा नेताओं की हत्याएं
माओवादियों और भाजपा के बीच गुप्त समझौते की आधिकारिक पुष्टि तब हुई थी जब 2013 के छत्तीसगढ़ के चुनावों से ठीक पहले भाजपा नेता शिवदयाल सिंह तोमर की हत्या के सिलसिले में पोडियम लिंगा नामक माओवादी को गिरफ्तार किया गया.
दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक नरेंद्र खरे और सीआरपीएफ अधिकारियों की उपस्थिति में लिंगा ने मीडिया को बताया कि उसने 2008 के चुनावों में अपने चाचा भीमा मंडावी की सहायता की थी. बाद में मुझसे बातचीत में मंडावी ने स्वीकार किया था कि लिंगा उनके गांव तोयलंका का रहने वाला है और तोमर के साथ उसके करीबी संबंध थे. वह एक अन्य चुनाव में भाजपा के लिए काम भी कर चुका था. मंडावी ने कहा, ‘तोमरजी ने बस्तर लोकसभा सीट पर 2011 के उपचुनाव में उसे कुछ काम सौंपे थे. उन्होंने साथ खाना भी खाया था.’ उल्लेखनीय है कि बस्तर के उस उपचुनाव में भाजपा के दिनेश कश्यप की जीत हुई थी.
लिंगा दंतेवाड़ा सर्किट हाउस में प्रभावशाली ठेकेदार तोमर और भाजपा के अन्य नेताओं से नियमित रूप से मिला करता था. सर्किट हाउस पुलिस अधीक्षक के कार्यालय से महज 500 मीटर दूर है.
पुलिस के अनुसार, तोमर की हत्या इसलिए की गई क्योंकि उन्होंने माओवादियों को उनके कमीशन का भुगतान नहीं किया था. खरे ने बताया कि लिंगा ने माओवादियों द्वारा एक निर्माण परियोजना को पूरा करने देने के एवज में तोमर से 60,000 रुपये की मांग की थी. तोमर ने पैसे देने से मना करते हुए उसे ‘जो करना है वो कर लो’ की चुनौती दी थी.
Shri Bhima Mandavi was a dedicated Karyakarta of the BJP. Diligent and courageous, he assiduously served the people of Chhattisgarh. His demise is deeply anguishing. Condolences to his family and supporters. Om Shanti.
— Narendra Modi (@narendramodi) April 9, 2019
दंतेवाड़ा में भाजपा की राजनीति में एक और मोड़ तब आया जब माओवादियों ने 9 अप्रैल 2019 पार्टी के तत्कालीन विधायक मंडावी की हत्या कर दी. तब दो दिन बाद ही बस्तर में लोकसभा चुनावों के लिए मतदान होना था.
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क्या भाजपा सांठगांठ की बात कभी मानेगी?
कुछ लोगों को लगता था कि मंडावी की हत्या के बाद भाजपा सतर्क हो जाएगी और छापामारों से दूरी बनाने लगेगी. लेकिन पुजारी के खिलाफ पुलिस के मामले से यही लगता है कि राजनीतिक फायदे के लिए पार्टी कुछेक बलिदानों से भी परहेज नहीं करेगी.
ऐसे में कहीं बड़ा मुद्दा ये है: बस्तर की राजनीतिक बिसात पर भाजपा के मंडावी, तोमर, कश्यप और पुजारी जैसे नेताओं की हैसियत छोटे मोहरे मात्र की रही है. रायपुर स्थित अपने आकाओं की सहमति के बिना उन्होंने अपनी चालें नहीं चली होंगी. ये तय नहीं है कि क्या जांच एजेंसियां कभी इन संपर्कों की तह में जा पाएगी. लेकिन इससे एक सवाल ज़रूर खड़ा होता है: क्या भाजपा कभी बस्तर में अपने गंदे खेल की बात स्वीकार करेगी? राष्ट्रवाद पर थोथी बयानबाज़ी में जुटी रहने वाली पार्टी ने भारत में सबसे लंबे समय से जारी विद्रोह के गुप्त पोषण का काम किया है. उग्रवादियों के साथ भाजपा के गुप्त और विश्वासघाती सौदों के बिना ये अलग किस्म का ही जंगल होता.
(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी आगामी पुस्तक ‘द डेथ स्क्रिप्ट’ में नक्सल उग्रवाद का लेखाजोखा है. यहां व्यक्त विचार निजी है.)