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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतBJP का 'अब की बार 400 पार' का नारा कोई नया विचार नहीं है, यह 73 साल पहले की एक राजनीतिक प्रतिज्ञा है

BJP का ‘अब की बार 400 पार’ का नारा कोई नया विचार नहीं है, यह 73 साल पहले की एक राजनीतिक प्रतिज्ञा है

'अब की बार 400 पार' की उत्पत्ति जवाहरलाल नेहरू और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बीच हुई तीखी बहस से हो सकती है, जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू को चेतावनी दी थी कि वह उनकी 'कुचलने वाली मानसिकता' को कुचल देंगे.

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पांच साल पहले, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी ने खुद को 300 से अधिक सीटें देने का वादा किया था. उसे 303 मिले. इस साल, मोदी की पार्टी ज़ोर-शोर से ‘अब की बार 400 पार’ के नारे के साथ 400 से अधिक सीटें जीतने की योजना बना रही है. यह उस पार्टी के आत्म-विश्वास को बयां करती है, जो अपने लिए असंभव लक्ष्य निर्धारित करती है, और, रिकॉर्ड के अनुसार, अक्सर उन्हें हासिल भी करती है. या वह महाभ्रम भी कह सकते हैं जो अक्सर केंद्र में 10 वर्षों तक निर्बाध सत्ता का आनंद लेने के साथ आता है – जैसे 2014 में तीसरे कार्यकाल के लिए कांग्रेस की आकांक्षा थी. या, शायद, यह उन दिमाग के साथ खेलने वाली तकनीकों में से एक है जो राजनीतिक दल चुनाव से पहले प्रतिद्वंद्वियों को निहत्था करने के लिए उपयोग करते हैं.

हो सकता है इसका उत्तर उपरोक्त में से कोई भी न हो, बल्कि 73 साल पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के ‘इंडिया’ के विचार को खारिज करने और इसके बजाय ‘भारत’ के विचार को बढ़ावा देने के लिए हिंदू दक्षिणपंथियों द्वारा ली गई प्रतिज्ञा हो.

चाहे वह ‘अब की बार 400 पार’ हो या उसके पहले का ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा हो, प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा शायद उस पुरानी चुनौती को पूरा कर रही है जो भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू को दी थी: “मैं इस कुचलने वाली मानसिकता को कुचल दूंगा”.

पुराने घाव, नए मरहम

इतिहास की किताबों के पन्नों को ध्यान से पढ़ने से अक्सर आज की राजनीतिक घटनाओं को प्रासंगिक बनाने में मदद मिलती है. अनुच्छेद 370 को निरस्त करने का उदाहरण लें. हिंदू दक्षिणपंथियों के अनुसार, मुखर्जी ने संघ के एक भारत के दृष्टिकोण के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया क्योंकि उन्होंने जम्मू और कश्मीर के लिए ‘दो निशान, दो विधान, दो प्रधान’ (दो झंडे, दो संविधान और दो प्रमुख) के विचार को खारिज कर दिया था.

1952 में, मुखर्जी, जो उस समय भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष और एक निर्वाचित सांसद थे, ने जम्मू में एक सभा में घोषणा की: “मैं आपको भारतीय संविधान दिलाऊंगा नहीं तो इसके लिए अपनी जान दे दूंगा.” उन्होंने मई 1953 में बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर की यात्रा की. शेख अब्दुल्ला सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और 23 जून 1953 को हिरासत के कुछ दिनों बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया गया. तब की जनसंघ और अब की भाजपा उस बलिदान को कभी नहीं भूले.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर वीकली ने 23 जून 2020 को मुखर्जी की 67वीं पुण्य तिथि पर लिखा, “भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक, 23 जून को न केवल डॉ. मुखर्जी की पुण्य तिथि के रूप में मनाती है, बल्कि संविधान से अनुच्छेद 370 को हटाने के संकल्प दिवस के रूप में भी मनाती है. प्रत्येक घोषणापत्र में, संविधान के अस्थायी अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की डॉ. मुखर्जी की घोषणा की पुष्टि की गई.”

संविधान से अनुच्छेद 370 को हटाने के लिए 66 साल के समय और प्रधानमंत्री मोदी जैसे के नेतृत्व की ज़रूरत पड़ी, जिन्होंने 1992 में गणतंत्र दिवस के अवसर पर मुरली मनोहर जोशी के साथ श्रीनगर के लाल चौक पर तिरंगा फहराया था. ऑर्गेनाइज़र वीकली ने अपने 2020 के लेख में लिखा, “हम गर्व से अपने देश के साथ-साथ दुनिया के लोगों को बता सकते हैं कि हमने वह कर दिखाया जिसके लिए महान राष्ट्रवादी डॉ. मुखर्जी ने अपने जीवन का बलिदान दिया था.”

नाम न छापने की शर्त पर आरएसएस के एक वरिष्ठ विचारक ने मुझे बताया कि कई राजनीतिक पर्यवेक्षक गलत तरीके से मानते हैं कि भाजपा के फैसले पीएम मोदी की सनक और पसंद से तय होते हैं. “आरएसएस के पास ऐतिहासिक स्मृति का विशाल भंडार है और पुराने विचारों को फलीभूत होते देखने के लिए दशकों तक इंतजार करने का धैर्य है. संसद में हमारी बेंच स्ट्रेंथ और मोदी के दृढ़ संकल्प की बदौलत आज आप जो कई बड़े राजनीतिक कदम देख रहे हैं, वे दशकों पहले लिए गए फैसले हैं.” इस प्रकार, 2024 के लोकसभा चुनावों का नारा एक पिछली लड़ाई से प्रभावित हो सकता है जिसे कई लोग भूल चुके हैं.

‘कुचलने वाली मानसिकता को कुचल दो’

भारत में पहला राष्ट्रीय चुनाव 25 अक्टूबर 1951 और 21 फरवरी 1952 के बीच हुआ. कुल 489 सीटों में से, नेहरू के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 364 लोकसभा सीटें जीतीं, जबकि भारतीय जनसंघ को केवल तीन सीटें मिलीं.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी उन तीन में से एक थे, जिन्होंने दक्षिण कलकत्ता निर्वाचन क्षेत्र से जीत हासिल की थी. संसद में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के निर्वाचित नेता के रूप में, मुखर्जी ने नेहरू से भिड़ने को अपनी आदत बना ली थी. इसके हालात तब और बने जब 12 मई 1951 को नेहरू ने संसद में भारत के संविधान में पहला संशोधन पेश किया.

नेहरू ने मुखर्जी की ओर इशारा करते हुए कहा: “जनसंघ एक सांप्रदायिक पार्टी है. मैं जनसंघ को कुचल दूंगा.” इस पर मुखर्जी ने जवाब दिया, “मेरे मित्र पंडित जवाहरलाल नेहरू कहते हैं कि वह जनसंघ को कुचल देंगे, मैं कहता हूं कि मैं इस कुचलने वाली मानसिकता को कुचल दूंगा.”

ऑर्गेनाइज़र वीकली के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने मुझे बताया कि संशोधन ने बोलने की स्वतंत्रता सहित कुछ मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित कर दिया है. “महान उदारवादी माने जाने वाले नेहरू को डॉ. मुखर्जी ने चुनौती दी थी, और एक अलग राजनीतिक विचारधारा के प्रति प्रधानमंत्री का असहिष्णु रवैया सबके सामने था.”

भारतीय जनसंघ और उसके बाद के संस्करण वाली पार्टी भाजपा, नेहरू को दी गई मुखर्जी की चुनौती को कभी नहीं भूली. हालांकि, केतकर का कहना है कि यह महज़ एक चुनौती से कहीं अधिक था; यह बुनियादी बातों का टकराव था. “उनके ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ भाषण ने हमें बताया कि नेहरू एक नया राष्ट्र चाहते थे. मुखर्जी और हिंदू दक्षिणपंथियों का हमेशा यह मानना रहा है कि एक नया राज्य तो हो सकता है, लेकिन एक नया राष्ट्र कभी नहीं. केतकर ने कहा, इंडिया यानी भारत में 5,000 साल पहले की सभ्यतागत निरंतरता है.

पिछले 10 वर्षों में मोदी द्वारा लिए गए कई बड़े फैसले, अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से लेकर नागरिकता संशोधन अधिनियम तक, तीन तलाक के उन्मूलन से लेकर अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा तक, एक ऐसे भारत के विचार को पूरा करते हैं जो ‘भारत’ से कभी भी अपने आपको अलग करके नहीं देखता है.

इसलिए, ‘अब की बार 400 पार’, नेहरू के ‘इंडिया’ के विचार को ‘भारत’ के विचार से बदलने के लिए 73 साल पहले का एक युद्धघोष हो सकता है, और मुखर्जी का बदला भी.

(दीप हलदर एक लेखक और पत्रकार हैं. उनका एक्स हैंडल @deepscribble है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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