प्यू रिसर्च सेंटर का हालिया अध्ययन भारत में धर्म: सहिष्णुता और अलगाव, कहीं न कहीं हमें शाहरुख खान की फिल्म ‘फिर भी दिल है हिंदुस्तानी’ के एक लोकप्रिय गीत के बोल याद दिला देता है.
‘हम लोगो को समझ सको तो समझो दिलबर जानी, जितना भी तुम समझोगे उतनी होगी हैरानी’
रिपोर्ट भारत की राष्ट्रीय पहचान संबंधी जटिलताओं की पड़ताल करती है और हमें आश्चर्यजनक रूप से कुछ अनजान पहलुओं से परिचित कराती है. यह बताती है कि भारतीय धार्मिक समूहों द्वारा धर्म और जाति को वैशिष्टता के महत्वपूर्ण संकेतक के तौर पर मान्यता दी गई है. भारतीय सभी धर्मों का सम्मान करते हैं और राष्ट्रवाद को निभाना एक तरह का धार्मिक गुण माना जाता है. धर्म और राजनीति के बीच भी एक काल्पनिक विभाजन रेखा खींच रखी गई है. और इन्हीं सब कारणों से सह-अस्तित्व के साथ अलग-अलग रहना संभव बना हुआ है.
इसके बीच ही हिंदू, हिंदी और हिंदुस्तान के पुराने नारे को एक नया ठोस राजनीतिक आधार मिल चुका है. अध्ययन से पता चलता है कि हिंदू धार्मिकता को राष्ट्रवाद की परिष्कृत भाषा में व्यक्त किया जाता है. हिंदुओं का एक बड़ा और शक्तिशाली वर्ग हिंदू धर्म, हिंदी भाषा और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को राजनीतिक समर्थन को ही वास्तविक भारतीय पहचान का मूलभूत तत्व मानता है.
सार्थक चर्चा के लिए इन विरोधाभासी निष्कर्षों को उचित परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है. एक सीधा सवाल पूछा जाना जरूरी है. कोई इन परस्पर विरोधी सांख्यिकीय सर्वेक्षण-आधारित निष्कर्षों के आधार पर भारत की राष्ट्रीय पहचान की व्याख्या कैसे कर सकता है?
समकालीन राष्ट्रीय पहचान के चार पहलू
प्यू रिपोर्ट इस तथ्य पर जोर देती है कि भारतीयों की धार्मिक आस्था गहरी है. वास्तव में, धर्म प्रमुख विश्व दर्शन के रूप में उभरता है जिसके जरिये राष्ट्र और राष्ट्रवाद के जटिल विचारों को चार अलग-अलग तरीकों से परिभाषित किया जाता है.
पहली बात, बहुतायत में भारतीयों का मानना है कि भारत सभी धार्मिक समूहों का है. उत्तरदाताओं का कहना है कि एक ‘सच्चे भारतीय’ की पहचान के लिए सभी भारतीय धर्मों के प्रति सम्मान दिखाना एक बुनियादी नैतिक आवश्यकता है.
दिलचस्प बात यह है कि सहिष्णु और शांतिपूर्ण धार्मिक सह-अस्तित्व की यह भावना केवल भारत को एक राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने के लिए नहीं है. लगभग 80 प्रतिशत उत्तरदाताओं का मानना है कि अन्य धर्मों का सम्मान करना भी उनके अपने धार्मिक विश्वास का एक अविभाज्य पहलू है. उदाहरण के तौर पर यदि कोई मुसलमान भारत के अन्य धर्मों के प्रति कोई सम्मान नहीं दिखाता है तो उसे मुस्लिमों द्वारा भी एक मुसलमान और/या एक सच्चा भारतीय नहीं माना जाएगा.
हमें याद रखना होगा, सम्मान का यह विचार तार्कित रूप से पारंपरिक हिंदुत्व के खिलाफ है जो हमेशा भारतीय धर्मों और विदेशी धर्मों के बीच एक भेद रखता है. व्यापक हिंदू एकता के लिए हिंदू धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म और बौद्ध धर्म को ईसाई और इस्लाम धर्मों से अलग रखा गया है.
हालांकि, भारतीय धार्मिक समूह इस भेद में भरोसा नहीं रखते हैं. रिपोर्ट से पता चलता है कि यद्यपि भारतीय नागरिक धार्मिक भिन्नता के महत्व को समझते हैं, लेकिन उनके लिए भारत की विविधता उसकी धार्मिक संपूर्णता में ही है. शायद यही कारण है कि सभी धार्मिक समुदायों को लगता है कि वे अपने धर्म का पालन करने के लिए स्वतंत्र हैं.
दूसरा, सम्मान की इस धर्म-आधारित धारणा को भारत के राष्ट्रीय पहचान संबंधी नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों को समझने के लिए भी किया जा सकता है. एक आम राय है कि बड़ों का सम्मान, सेना के प्रति सम्मान और भारतीय संविधान में आस्था और राष्ट्रगान किसी के लिए भी राष्ट्रवाद की भावना जताने की आवश्यक पूर्व शर्त हैं.
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इस मामले में भारत के धार्मिक अल्पसंख्यकों का दावा बेहद अहम है. अक्सर अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों की इसलिए आलोचना की जाती है कि वह अपने राष्ट्रवाद को प्रतीकात्मक रूप से व्यक्त नहीं करते है. ये निष्कर्ष स्पष्ट तौर पर दर्शाते हैं कि यह धारणा एकदम गलत है. लगभग 80 फीसदी मुस्लिम उत्तरदाताओं ने भारतीय राष्ट्रवाद के मानक प्रतीकों पर बिना शर्त अपना भरोसा जताया है.
तीसरा, राजनीतिक इतिहास को राष्ट्रीय पहचान के ढांचे में समेटना एक काफी जटिल मुद्दा है. यद्यपि, भारत का धार्मिक समुदाय भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बारे में पर्याप्त जानकारी रखने की जरूरत को समझता है, लेकिन विभाजन का दंश एक विवादास्पद मुद्दे के तौर पर उभरकर सामने आता है.
अधिकांश हिंदू उत्तरदाताओं का मानना है कि विभाजन एक सकारात्मक घटनाक्रम था. इसके उलट, मुस्लिम और सिख उत्तरदाता इस बात से सहमत नहीं हैं. वे विभाजन को एक नकारात्मक घटना के तौर पर देखते हैं. धार्मिक आधार पर विचार की यह भिन्नता इस तथ्य को रेखांकित करती है कि विभाजन एक अत्यधिक विविधतापूर्ण महत्वपूर्ण घटना थी जो आज भी मिश्रित और विरोधाभासी भावनाओं और प्रतिक्रियाओं को जन्म देती है.
अंतत:, हिंदू राष्ट्रवाद का उदय समकालीन राष्ट्रीय पहचान का चौथा पहलू है. रिपोर्ट बताती है कि बड़ी संख्या में हिंदुओं (64 प्रतिशत) का मानना है कि वे अपने धर्म के कारण सच्चे भारतीय हैं. ये विचार एक उत्तर भारतीय प्रवृत्ति हैं. फिर भी, विभिन्न क्षेत्रों में राजनीतिक मानस में इसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति देखी जा सकती है.
इस संदर्भ में, भारतीय पहचान के प्रतीक के रूप में हिंदी का उदय वास्तव में एक रोचक निष्कर्ष है. यह इस प्रबल उदारवादी धारणा पर सवाल उठाता है कि गैर-हिंदी क्षेत्रों में हिंदू-हिंदी-हिंदुत्व नहीं चल सकता. तालिका 4 से साफ पता चलता है कि पूरे देश में, यहां तक कि दक्षिणी क्षेत्र में भी हिंदी की स्वीकृति धीरे-धीरे बढ़ रही है.
एक अखिल भारतीय पार्टी के रूप में भाजपा के प्रसार ने निश्चित तौर पर पूरे देश में हिंदू अवधारणा को प्रभावित किया है. नतीजतन, हिन्दुत्व का भाजपा वाला संस्करण हिंदू राष्ट्रवाद की प्रबल अभिव्यक्ति के रूप में उभर रहा है. हालांकि, हिंदुत्व की राजनीति हिंदुओं को यह बात समझाने में सक्षम नहीं हो पाई है कि भारत अन्य धार्मिक समूहों का नहीं है.
ऐसा महसूस होता है कि गैर-भाजपा दल और बुद्धिजीवी अभिजात्य वर्ग हिंदुत्ववादी राजनीति की इस अहम नाकामी में कोई रुचि नहीं रखते. वे अब तक ऐसी किसी रचनात्मक राजनीतिक पहल के लिए साथ नहीं आए हैं जो धार्मिक सहिष्णुता (जो भारत को एक बहुधार्मिक राष्ट्र के रूप में परिभाषित करती है) और हिंदू राष्ट्रवाद (सकारात्मक तरीके से धार्मिक पहचान सुनिश्चित करने पर जोर) को समायोजित कर सकती हो.
प्यू रिपोर्ट इस मायने में खासतौर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि यह व्यापक खुलेपन और संवेदनशीलता के साथ भारतीय सामाजिक जीवन के उलझावों का दस्तावेजीकरण करने में सक्षम है. ऐसा लगता है कि उन्होंने अपनी इस पूरी पड़ताल के दौरान जावेद अख्तर की कही बात का पूरी ईमानदारी से पालन किया है: जितना भी तुम समझोगे उतनी होगी हैरानी!
(प्यू अध्ययन भारत के समकालीन धार्मिक जीवन पर गहराई से की गई एक व्यापक पड़ताल है. रिपोर्ट 29,999 भारतीय वयस्कों (जिसमें हिंदू के तौर पर पहचान वाले 22,975 लोग, मुस्लिम पहचान वाले 3,336 लोग, 1,782 सिखों, 1,011 ईसाइयों, 719 बौद्धों और 109 जैनों के अलावा 67 ऐसे लोग भी शामिल हैं जो किसी अन्य धर्म या धार्मिक रूप से असंबद्ध की पहचान रखते हैं) के इंटरव्यू पर आधारित है. राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व वाले इस सर्वेक्षण के लिए इंटरव्यू नवंबर 2019 से 23 मार्च 2020 फेस-टू-फेस लिए गए थे. प्रश्नावली अंग्रेजी में तैयार की गई थी और 16 भाषाओं में इसके अनुवाद का काम स्वतंत्र रूप से सत्यापित और क्षेत्रीय बोलियों में पूरी दक्षता रखने वाले पेशेवर भाषाविदों ने किया था. पूरी रिपोर्ट के लिए, यहां क्लिक करें.)
(हिलाल अहमद सीएसडीएस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. वह इस अध्ययन के एक्सपर्ट एडवाइजर में एक थे. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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