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Thursday, 20 March, 2025
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भाजपा दक्षिण भारत के परिसीमन के डर को समझती है, इसलिए वह निष्पक्ष, पारदर्शी प्रक्रिया चाहती है

दक्षिण भारतीय नेताओं का दावा है कि संसदीय प्रतिनिधित्व कम करने से संसाधन आवंटन प्रभावित हो सकता है. उन्हें याद रखना चाहिए कि दक्षिण में विकास बिहार और ओडिशा की कीमत पर हुआ है.

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क्या निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और समतापूर्ण लोकतंत्र में एक जैसा प्रतिनिधित्व होना चाहिए या उसे कुछ मतदाताओं को ज़्यादा पावर देनी चाहिए जो उनके प्रतिनिधित्व के अनुरूप नहीं हैं? यही दुविधा है जिसे परिसीमन की प्रक्रिया और इसके इर्द-गिर्द होने वाले शोर-शराबे के कारण बनाया गया है.

चुनाव आयोग परिसीमन को “किसी देश या प्रांत में विधानमंडल निकाय वाले प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा तय करने की क्रिया या प्रक्रिया” के रूप में परिभाषित करता है. इस प्रक्रिया में बदलती आबादी और उसकी ज़रूरतों को ध्यान में रखते हुए लोकसभा और राज्य विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को फिर से बनाना शामिल है.

सैद्धांतिक और संवैधानिक रूप से यह वक्त की ज़रूरत है क्योंकि प्रवास, शहरीकरण, विकास और विस्तार के कारण समय के साथ आबादी और जनसांख्यिकी विकसित होती है. लोकतंत्र के हित में मतदाताओं की संख्या और प्रतिनिधित्व की ज़रूरत के आधार पर मौजूदा निर्वाचन क्षेत्रों पर फिर से नज़र डालना व्यावहारिक है. हालांकि, व्यवहार में इसका मतलब है कि जनगणना के अनुसार, जनसंख्या वृद्धि को ध्यान में रखते हुए जनसांख्यिकी के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों को फिर से बनाना.

भारत में वोट बैंक की राजनीति से मतलब है राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी लाभ के लिए विशिष्ट सामाजिक, धार्मिक या जाति-आधारित समूहों से अपील करने की प्रथा से है. देश को आकार देने में वोट बैंक की राजनीति काफी प्रासंगिक रही है. इसने राजनीतिक दलों के निर्माण को भी बढ़ावा दिया है. नेता अक्सर वोट हासिल करने के लिए नीतियों, सब्सिडी या आरक्षण का वादा करते हैं, कभी-कभी दीर्घकालिक शासन की कीमत पर अल्पकालिक लाभ को प्राथमिकता देते हैं. यह अदूरदर्शी दृष्टिकोण सामाजिक विभाजन को गहरा करता है और उन नीतियों के विकास में बाधा डालता है जो अंततः पूरे देश को लाभान्वित करेंगे.

संवैधानिक प्रावधान

भारत के संविधान का अनुच्छेद-82 लोकसभा सीटों के पुनर्समायोजन का प्रावधान करता है: “हर जनगणना के पूरा होने पर, राज्यों को लोकसभा में सीटों का आवंटन और हर राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित करना ऐसे प्राधिकारी द्वारा और ऐसे तरीके से पुनर्समायोजित किया जाएगा जैसा कि संसद कानून द्वारा निर्धारित करे.”

इसी तरह, “हर जनगणना के पूरा होने पर”, अनुच्छेद 170(3) “हर राज्य की विधानसभा में सीटों की कुल संख्या और हर राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित करना” के पुनर्समायोजन का प्रावधान करता है — बशर्ते कि यह लोकसभा या विधानसभा को उसके विघटन तक प्रभावित न करे.

इस उद्देश्य के लिए संसद एक परिसीमन आयोग अधिनियम बनाती है. परिसीमन आयोग के रूप में जाना जाने वाला एक स्वतंत्र, हाईपावर पैनल इस प्रैक्टिस को करने के लिए गठित किया जाता है.

इसके अलावा, संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 में 2001 की जनगणना के आधार पर लोकसभा और विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए आरक्षित सीटों की संख्या के पुनर्समायोजन का प्रावधान है.

ऐतिहासिक रूप से, 1952, 1962, 1972 और 2002 में परिसीमन आयोग अधिनियम विशेष रूप से अधिनियमित किए गए थे और सीटों को तदनुसार समायोजित किया गया था.


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परिसीमन का इतिहास

स्वतंत्र भारत की पहली जनगणना 1951 के बाद, 1952 का परिसीमन आयोग अधिनियम लागू किया गया और पहली लोकसभा के लिए सीटें 494 निर्धारित की गईं. 1961 की जनगणना के बाद लागू किए गए 1962 के परिसीमन अधिनियम ने लोकसभा की सीटों को बढ़ाकर 522 कर दिया. 1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद यह ज़रूरी था. नई सीमाओं को दर्शाने और लोगों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए, सभी निर्वाचन क्षेत्रों को एकल-सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र बना दिया गया.

1971 की जनगणना में गणना की गई जनसंख्या में परिवर्तन को दर्शाने के लिए 1973 का परिसीमन किया गया. इसने लोकसभा की सीटों को 522 से बढ़ाकर 543 कर दिया.

इसके साथ ही इंदिरा गांधी द्वारा भारतीय लोगों पर इमरजेंसी थोपी गई, जिन्होंने व्यापक परिवर्तन करके संविधान के साथ छेड़छाड़ की, जो पूर्वजों की दृष्टि के अनुरूप नहीं थे. 1976 में संविधान में संशोधन करके 2001 तक परिसीमन को स्थगित कर दिया गया था. ज़ाहिर तौर पर, यह उन राज्यों के हितों की रक्षा के लिए किया गया था, जिन्होंने परिवार नियोजन को सफलतापूर्वक बढ़ावा दिया था. यह सोचा गया था कि उन्हें अपनी कम सीटों की संभावना का सामना नहीं करना चाहिए. इसलिए, 1981 और 1991 की जनगणना के बाद कोई परिसीमन आयोग अधिनियम नहीं था.

यह उल्लेखनीय है कि 2001 के 84वें संशोधन अधिनियम ने 2026 के बाद पहली जनगणना तक प्रत्येक राज्य में लोकसभा सीटों की संख्या को स्थिर कर दिया था. इसका उद्देश्य राज्यों को प्रतिनिधित्व के नुकसान के डर के बिना प्रभावी जनसंख्या नियंत्रण उपायों को लागू करने के लिए प्रोत्साहित करना था.

निर्वाचन क्षेत्रों का वर्तमान परिसीमन 2001 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर परिसीमन आयोग अधिनियम, 2002 के प्रावधानों के तहत किया गया है.


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आगामी परिसीमन

अगला परिसीमन आयोग 2026 के बाद स्थापित किया जाएगा. इस आगामी अभ्यास ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व में संभावित बदलावों पर महत्वपूर्ण बहस और राजनीतिक नाटक को जन्म दिया है. प्राथमिक चिंता भारत के उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच जनसंख्या वृद्धि में असमानता है.

जबकि भारत की जनसंख्या 1971 से 150 प्रतिशत बढ़ी है, यह वृद्धि राज्यों में समान रूप से वितरित नहीं हुई है. सबसे बड़े उत्तरी भारतीय राज्यों में सबसे अधिक जनसंख्या वृद्धि देखी गई है, जो सबसे बड़े दक्षिणी राज्यों के विपरीत है, जिन्होंने कम प्रजनन दर दिखाई है.

जनसंख्या वृद्धि, जो एक समान नहीं रही है और निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्वितरण पर पांच दशक से चली आ रही रोक ने प्रतिनिधित्व में असंतुलन पैदा कर दिया है. उत्तरी राज्यों के संसद सदस्य अब अधिकांश दक्षिणी राज्यों के सांसदों की तुलना में बड़े निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं और इससे 2026 में सीटों के पुनर्समायोजन और परिसीमन की ज़रूरत लगती है. स्पष्ट कारणों से दक्षिण भारत में क्षेत्रीय राजनीतिक दल ऐसा नहीं चाहते हैं.

तमिलनाडु, खासतौर पर परिसीमन का जोरदार विरोध कर रहा है — 36 से ज़्यादा राजनीतिक दल इस कवायद का विरोध करने के लिए एक साथ आए हैं. उन्हें डर है कि परिसीमन का फायदा हिंदी भाषी इलाकों को मिलेगा, जहां अब आबादी ज़्यादा है.


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उत्तर की ओर से दक्षिण की सफलता

दक्षिण भारतीय राज्य भारत के जीडीपी में लगभग 30 प्रतिशत का योगदान करते हैं. इन क्षेत्रों के नेताओं का तर्क है कि उनके संसदीय प्रतिनिधित्व को कम करना न केवल अनुचित होगा, बल्कि संघीय संसाधनों के आवंटन को भी प्रभावित कर सकता है, जिससे क्षेत्रीय असमानताएं और बढ़ सकती हैं. इन नेताओं को यह याद रखना चाहिए कि उनकी सफलता बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में विकास की कीमत पर आई है.

उत्तर में ढूंढे गए मूल्यवान कच्चे माल और खनिजों को दक्षिणी राज्यों में भेजा गया है. दक्षिण ने 1948 की फ्रेट इक्वलाइजेशन स्कीम (FES) के साथ-साथ कोयला सब्सिडी योजना का भी लाभ उठाया है, जिसने बिहार और ओडिशा जैसे पूर्वी राज्यों से कोयला और लोहे जैसे इनपुट के परिवहन को सब्सिडी दी.

मैंने 23 सितंबर 2024 के अपने लेख में इस बारे में विस्तार से लिखा है. कॉर्नेल यूनिवर्सिटी की एक हालिया स्टडी में पाया गया कि केंद्र सरकार के FES ने वास्तव में संसाधन संपन्न राज्यों की गिरावट को जन्म दिया. उदाहरण के लिए बिहार की आज सकल घरेलू उत्पाद में केवल 2.8 प्रतिशत हिस्सेदारी है, जबकि यहां जनसंख्या का घनत्व सबसे अधिक है. अविकसित राज्य के कारण बिहार पिछड़ गया और यह सामान्य ज्ञान की बात है कि अविकसितता और अधिक जनसंख्या शासन के लिए चुनौतियां हैं.

केंद्र ने दक्षिणी राज्यों में साक्षरता और तकनीकी ट्रेनिंग को बढ़ावा देने के लिए योजनाएं भी शुरू कीं, जिससे इस क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि आई. तट तक पहुंच के कारण बंदरगाहों का विकास हुआ और दक्षिण और पश्चिम में उद्योग स्थापित हुए.

परिसीमन पर भाजपा का रुख

विकसित भारत के सपने के लिए सभी राज्यों को सामूहिक रूप से आगे बढ़ना चाहिए और खुद को बढ़ावा देने के लिए एक-दूसरे से लड़ना नहीं चाहिए. भाजपा दक्षिणी राज्यों की इस आशंका को स्वीकार करती है कि परिसीमन की प्रक्रिया प्रतिबंधित संसद की ओर ले जा सकती है, लेकिन यह सुनिश्चित करती है कि प्रक्रिया निष्पक्ष रूप से संचालित की जाएगी, ताकि किसी भी राज्य का प्रतिनिधित्व अनुचित रूप से कम न हो.

भाजपा नेता यह सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं कि यह प्रक्रिया किसी विशेष क्षेत्र के पक्ष में नहीं बल्कि समान प्रतिनिधित्व के संवैधानिक जनादेश को बनाए रखने के लिए है. इसके अलावा, भाजपा इस बात पर जोर देती है कि परिसीमन प्रक्रिया पारदर्शी होगी. क्षेत्रीय आशंकाओं को दूर करने के लिए सभी हितधारकों से परामर्श किया जाएगा, खासकर एमके स्टालिन जैसे लोगों से, जो आगामी परिसीमन का जोरदार विरोध कर रहे हैं.

भाजपा हमेशा भारतीय संविधान के सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध रही है. यह एक एकीकृत और समतापूर्ण भारत, एक विकसित भारत सुनिश्चित करने के अपने वादे को दोहराता है, जहां हर राज्य के योगदान को महत्व दिया जाता है और संसद में प्रतिनिधित्व जनसांख्यिकीय वास्तविकताओं और संघवाद के सिद्धांतों दोनों को दर्शाता है. जैसा कि बीआर आंबेडकर ने कहा था, “मैं चाहती हूं कि सभी लोग पहले भारतीय हों, अंत में भारतीय हों और कुछ भी नहीं बल्कि भारतीय हों.”

(मीनाक्षी लेखी भाजपा की नेत्री, वकील और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. उनका एक्स हैंडल @M_Lekhi है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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