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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतमोदी और अमित शाह को चिंता करनी चाहिए: कोई भी पार्टी इतने बड़े जनादेश को संभाल नहीं पाई है

मोदी और अमित शाह को चिंता करनी चाहिए: कोई भी पार्टी इतने बड़े जनादेश को संभाल नहीं पाई है

भाजपा को याद रखना चाहिए कि 1971 और 1984 की भारी जीतों के बाद इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ क्या हुआ था.

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भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को चिंतित होना चाहिए. ये बात हास्यास्पद लग सकती है क्योंकि आम चुनावों में अभी-अभी पार्टी को भारी जीत मिली है, पर ये रही विचारणीय बात: कोई भी पार्टी (या गठबंधन) इतना बड़ा जनादेश हासिल करने के बाद (तुलनात्मक जनादेश 1971 और 1974 में आए थे) अगले चुनाव में अपनी चमक बनाए रखने में सफल नहीं रही है. 1974 आते-आते इंदिरा गांधी की कांग्रेस हताशापूर्ण स्थिति में आ चुकी थी, और जयप्रकाश नारायण उनके शासन के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन की अगुआई कर रहे थे; इसी तरह 1987 आते-आते बोफोर्स कांड और लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की वजह से राजीव गांधी की ‘मिस्टर क्लीन’ की छवि और एकछत्र ताकत के धुर्रे बिखर चुके थे.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह को भी इस तरह के भारी विरोध की आशंका करनी चाहिए, क्योंकि जब मतदाता इतना बड़ा जनादेश देते हैं, तो उनकी उम्मीदें भी बहुत अधिक होती हैं. 2024 तक विश्वसनीयता और ताकत कायम रखने का एक ही उपाय है- लोगों की उम्मीदों पर खरा उतना, तथा अहंकार एवं अकड़ को छोड़ना.

यहां ये उल्लेखनीय है कि 2014 की जीत के तुरंत बाद भाजपा कई उपचुनावों में हारी थी. और पिछले दो वर्षों में उसे उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के अधिकतर लोकसभा उपचुनावों में हार का सामना करना पड़ा था.

इससे यही मालूम पड़ता है कि एक बार किसी पार्टी की भारी जीत हो चुकने के बाद, मतदाताओं को दूसरे पक्ष की तरफ झुक कर खुशी होती है, मानो वो ताकतवर पार्टी को काबू में रख रहे हों. भारतीय मतदाता किसी भी पार्टी को हमेशा के लिए एक सादा चेक थमाना पसंद नहीं करते हैं. जब उन्हें लगने लगता है कि उनके द्वारा सत्ता में बिठाई गई पार्टी बहुत अहंकारी हो गई है, तब वे कमज़ोर पक्ष को वोट देते हैं.


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ये मानना अतार्किक नहीं होगा कि लोकसभा चुनावों में मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा के पक्ष में दिखा बड़ा स्विंग, इन राज्यों की सरकारों के चुनाव के वक्त पलट भी सकता है. सिर्फ कर्नाटक को छोड़कर, जहां पिछले साल विधानसभा चुनावों में भाजपा सत्ता के बिल्कुल करीब आ गई थी, पर कांग्रेस-जेडीएस ने हाथ मिलाकर भाजपा की मंशा पर पानी फेर दिया था, भाजपा राजस्थान या मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में अपने वैसे ही प्रदर्शन की अपेक्षा नहीं कर सकती है, भले ही मध्यप्रदेश मे कांग्रेस का नाममात्र का ही बहुमत हो.

दिसंबर में विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार की वजहें सिर्फ इसलिए गायब नहीं हो जाती हैं कि 23 मई को राष्ट्रीय चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतर रहा. ये ज़रूरी नहीं कि मोदी के लिए इस साल वोट करने वाले लोग इतनी जल्दी राज्यों में भी भाजपा की वापसी चाहते हों.

इस प्रकार भाजपा के लिए बिल्कुल सरल संदेश है: कर्नाटक के अलावा अन्य राज्यों में सरकारों को अस्थिर करने की खुली चालों से बचें. कर्नाटक में, कांग्रेस-जेडीएस का मौकापरस्त गठबंधन कामयाब नहीं रहा है, और यदि वहां सरकार गिरती है, तो बहुत कम मतदाताओं को इस पर अफसोस होगा. पर मध्यप्रदेश और राजस्थान के बारे में यही बात नहीं कही जा सकती है, जहां कांग्रेस पार्टी ने अपने दम पर और वैध तरीके से विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की थी. सहकारी संघवाद में अपेक्षित है कि विपक्ष को उन राज्यों में शासन करने दिया जाए जहां उसने चुनावों में जीत हासिल कर रखी है.

तीसरा विचारणीय बिंदु हैं भाजपा को मिले मतों की विशालता. ये आसानी से माना जा सकता है ऐसा मोदी लहर के कारण हुआ, पर उत्तर प्रदेश और बिहार में महागठबंधनों की पराजय के स्तर को देखते हुए हमें इस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा कि इसमें विपक्ष से जनता की विरक्ति की भी बड़ी भूमिका थी. इन दो राज्यों में जनादेश जितना मोदी के पक्ष में था, शायद उतना ही सिद्धांतहीन विपक्ष के खिलाफ भी.

सिर्फ इसी आधार पर इस सवाल को समझा जा सकता है कि क्यों 23 मई को निकले परिणामों में भाजपा ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ को पछाड़ दिया, जबकि 2014 और 2017 में अधिकांश सीटों पर इन दलों के वोट शेयर भाजपा से अधिक रहे थे. भाजपा ने 2017-18 के उपचुनावों में मिली सभी पराजयों – गोरखपुर, कैराना और फूलपुर – को बड़े अंतरों वाली जीतों में बदल दिया, जबकि विगत में सपा-बसपा-रालोद के मौजूदा गठबंधन ने ही उसे हराया था. यदि 2019 के चुनावों में कांग्रेस भी महागठबंधन के खेमे में आ जाती तो भी भाजपा को जीती गई मौजूदा सीटों (62) में से मात्र आठ ही गंवाने पड़ते.

पर पराजित दलों के खिलाफ गुस्सा वैसी स्थिति में बहुत तेज़ी से गायब हो जाता है जब उन्हें करारी हार मिली हो. अब, सहानुभूति पूरी तरह से हारे दलों के प्रति रहेगी.

भाजपा के लिए बिल्कुल सरल संदेश है. उसके पास जीत के खुमार के लिए बहुत कम समय है.

सबसे पहले तो अपनी अकड़ छोड़ें, और ये सुनिश्चित करें कि इस बार सहयोगियों को आपसे नाराज़गी का कोई कारण नहीं हो. खास कर शिवसेना, जदयू और रामविलास पासवान के लोजपा को पहले दिन से ही ऐहतियात और मेलजोल के साथ रखने की ज़रूरत है.


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दूसरी बात, कोई भी बड़ा कानून बनाते समय प्रमुख क्षेत्रीय दलों से निरंतर परामर्श करते रहना होगा, ताकि उनके पास गोलबंद होकर एनडीए-3 के शुरुआती वर्षों के सुधार कार्यक्रमों को विफल करने का कोई बहाना नहीं रहे. अधिकांश क्षेत्रीय दल अब भाजपा से भयभीत हैं, और इसलिए उनके पास उससे सहयोग करने के ठोस कारण हैं, बशर्ते भावी कानूनों को लेकर भाजपा उनसे परामर्श करने और पर्दे के पीछे सौदे करने की इच्छा रखती हो. वर्तमान में भूमि, श्रम और कृषि को लेकर बाज़ार संबंधी सुधारों की आवश्यकता है, और यदि विपक्ष राज्यसभा में इनके खिलाफ एकजुट हो जाए तो भाजपा इन सुधारों को कानूनी जामा नहीं पहना सकती है.

तीसरी बात, भाजपा को आगामी विधानसभाओं में जीत की जिम्मेदारी पार्टी मशीनरी पर छोड़ देनी चाहिए, और मोदी को अधिकांश प्रचार अभियान से अलग रखना चाहिए, बशर्ते अहम राज्यों (जैसे महाराष्ट्र) से खतरे के संकेता ना मिल रहे हों.

चौथी बात, भाजपा को इसी साल प्रमुख सुधारों को आगे बढ़ाना चाहिए, ताकि कार्यकाल के उत्तरार्द्ध में किसी तरह का आर्थिक या राजनीतिक अवरोध ना खड़ा हो पाए, क्योंकि तब निश्चय ही उसे 2024 के चुनावों की तैयारी के मद्देनज़र सुधार कार्यक्रमों को व्यवस्थित करने की ज़रूरत होगी. एनडीए के पिछले कार्यकाल में, गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स और दिवालिया कानून जैसे सर्वाधिक परिवर्तनकारी सुधारों को कार्यकाल के उत्तरार्द्ध में लागू किया गया, जिसके कारण विकास की गति ऐसे समय कम हो गई जबकि मोदी सरकार को तेज़ वृद्धि की सर्वाधिक ज़रूरत थी.

मोदी और शाह को इस सच्चाई को ध्यान में रखना होगा: टी-रेक्स डायनासोरों की ताकत रखना अच्छी बात है, पर छोटे सहयोगी दलों और विरोधियों को कुचलने के लिए उस ताकत का इस्तेमाल करना प्रतिगामी साबित हो सकता है. उन्हें याद रखना चाहिए कि 1971 और 1984 में मिली जबरदस्त जीतों के बाद क्रमश: इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के साथ क्या हुआ था.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें, यह लेख स्वराज्य में प्रकाशित हो चुका है)

(जगन्नाथन स्वराज्य के संपादकीय निदेशक हैं. वह @TheJaggi हैंडल से ट्वीट करते हैं.)

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