कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को पार्टी सहयोगियों के एक वर्ग से सहानुभूति मिल रही है. उन्होंने पिछले चार दशकों तक कड़ी मेहनत की और अकेले अपने दम पर कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी को ताकतवर बनाया और वहां पहुंचाया जहां पर आज पार्टी है. आलाकमान ने 2019 में कांग्रेस-जनता दल (सेक्युलर) सरकार को गिराने के लिए उनका उपयोग करना चाहा. जो उन्होंने कर दिखाया. वे चाहते थे कि वह दो साल बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दें. उन्होंने ये भी किया. फिर भी, 80 वर्षीय नेता को अपने छोटे बेटे और राजनीतिक उत्तराधिकारी बीवाई विजयेंद्र के लिए एक विधानसभा सीट के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है. उनके दूसरे बेटे राघवेंद्र पहले से ही सांसद हैं. उन्होंने दिल्ली में नरेंद्र मोदी के केंद्र में आने से बहुत पहले ही 2009 में लोकसभा में एंट्री कर ली थी.
बीएसवाई ने अपनी विधानसभा सीट – शिकारीपुरा, जिस पर उन्होंने आठ बार जीत हासिल की – विजयेंद्र को देने के लिए चुनावी दौर से बाहर हो गए हैं. उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी इच्छा जाहिर की. लेकिन आलाकमान कर्नाटक में पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता को अधर में लटकाए हुए हैं. हालांकि वे विजयेंद्र को वरुणा निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ाना चाहते है, जो उन्हें पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के खिलाफ खड़ा करेगा.
दिल्ली में येदियुरप्पा के विरोधियों ने पहले उनके बेटे के विधान परिषद में नामांकन नहीं होने दिया था.
वे अब चाहते हैं कि विजयेंद्र अपने पिता की सुरक्षित सीट छोड़ दें और किसी कठिन सीट से चुनाव लड़ें. कोई आश्चर्य नहीं कि बीएसवाई ने शिकारीपुरा से अपने बेटे की उम्मीदवारी की घोषणा की है.
तो, ऐसा क्यों है कि कर्नाटक में सबसे लोकप्रिय भाजपा नेता के उत्तराधिकारी को विधान परिषद या विधानसभा में प्रवेश करने के लिए दिल्ली के नेतृत्व से इस तरह के प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है? क्या यह वंशवादी राजनीति के खिलाफ पीएम मोदी का सार्वजनिक रुख है? लेकिन भाजपा उतनी ही वंशवादी पार्टी है जितनी कि कांग्रेस, इस तथ्य को छोड़कर कि कांग्रेस पर एक परिवार का नियंत्रण है. मोदी मंत्रिमंडल में राजवंशों की संख्या को देखें- पीयूष गोयल, धर्मेंद्र प्रधान, अनुराग ठाकुर, निर्मला सीतारमण, किरेन रिजिजू, और ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि.
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भाजपा वंशवाद समस्याका सामना करती है
आइए एक और उदाहरण देखें. मोदी-शाह ने पिछले महीने सम्राट चौधरी को बिहार का भाजपा प्रमुख बनाया जिसे मास्टर स्ट्रोक करार दिया गया. चौधरी राजनीतिक रूप से प्रभावशाली कुशवाहा समुदाय से ताल्लुक रखते हैं, जो कुर्मी के साथ मिलकर सीएम नीतीश कुमार के तथाकथित लव-कुश वोटबैंक का गठन करते हैं. सम्राट चौधरी भी वंशवादी परंपरा का प्रतिनिधित्व करते है. वह शकुनी चौधरी के बेटे हैं जो कभी लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के करीबी थे. तो सम्राट चौधरी जो बिहार में राबड़ी देवी के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल का हिस्सा थे. सोचिए कि बिहार बीजेपी के नए अध्यक्ष लालू-राबड़ी सरकारों के दौरान बीजेपी के सबसे कारगर जंगल राज का नारा कैसे लगाएंगे. एक वंशवादी, एक दलबदलू, तथाकथित जंगल राज शासन का एक हिस्सा होने के नाते- यदि आप वोट ला सकते हैं तो भाजपा में कुछ भी मायने नहीं रखता है. लेकिन यह भी कोई जरूरी मानदंड नहीं हो. जब पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर का राज्यसभा में कार्यकाल 2020 में समाप्त हुआ, तो भाजपा ने उनके स्थान पर उनके बेटे विवेक को नामित किया.
येदियुरप्पा के मामले में, बेशक, वह कर्नाटक में पार्टी के सबसे बड़े वोट बटोरने वाले व्यक्ति हैं. यह यूं ही नहीं है कि पार्टी उन्हें परेशान करने के लिए पीछे की ओर झुक रही है. यही वजह है कि जब पीएम मोदी पिछले तीन महीनों में कर्नाटक के अपने सात दौरे में से पांचवे दौर में बीएसवाई का हाथ थामे तस्वीर वायरल हो जाती है.
इसलिए जब अमित शाह बीएसवाई के साथ नाश्ता करने का विकल्प चुनते हैं, तब उनके बेटे विजयेंद्र की पीठ थपथपाते हैं और उनसे गुलदस्ता स्वीकार करने पर जोर देते हैं, और तब वे सुर्खियों में आ जाते हैं.
एक पखवाड़े पहले जब बीएसवाई ने घोषणा की थी कि उनका बेटा शिकारीपुरा से चुनाव लड़ेगा, बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि ने उन पर तंज कसते हुए कहा, “हमारी पार्टी में फैसले रसोई में नहीं किए जाते हैं.”
लेकिन क्या बीजेपी विजयेंद्र को शिकारीपुरा सीट देने से इनकार कर बीएसवाई की उपेक्षा कर सकती है? इस सवाल पर आज पार्टी आलाकमान मंथन कर रही होगी.
पूर्व रक्षा मंत्री और गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के पुत्र उत्पल भाग्यशाली नहीं थे कि जब वे चुनावी राजनीति में उतरना चाहते थे तो उनके पिता उनके साथ खड़े हो. मनोहर पर्रिकर की मृत्यु के बाद, उनके बेटे ने अपने पिता की राजनीतिक विरासत का दावा किया और पणजी विधानसभा उपचुनाव लड़ने के लिए पार्टी का टिकट मांगा. उनके पिता ने दो दशकों से अधिक समय तक इस सीट का प्रतिनिधित्व किया था. भाजपा आलाकमान ने उत्पल को टिकट देने से इनकार कर दिया.
बीजेपी पणजी में उपचुनाव हार गई, जिस सीट पर वह 25 साल से काबिज थी. कांग्रेस के अटानासियो मोंसेरेट जो जीत गए, भाजपा में शामिल हो गए. 2022 के विधानसभा चुनाव में उत्पल ने फिर से अपने पिता की सीट से चुनाव लड़ने के लिए बीजेपी से टिकट मांगा. इसे फिर से मना कर दिया गया. वह अपनी पार्टी की इच्छा के अनुसार किसी अन्य निर्वाचन क्षेत्र में नहीं जाएंगे. उत्पल ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने के लिए भाजपा छोड़ दी. वह मोनसेरेट से करीब 700 वोटों से हार गए. मनोहर पर्रिकर के बेटे के पास जाहिर तौर पर एक बहुत अच्छा मौका होता अगर भाजपा ने उन्हें टिकट दिया होता.
विजयेंद्र और उत्पल पूर्व मुख्यमंत्रियों की एकमात्र संतान नहीं हैं, जिनकी अपने माता-पिता की राजनीतिक विरासत को विरासत में लेने की महत्वाकांक्षा को भाजपा आलाकमान की मंजूरी नहीं मिली है. छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेटे अभिषेक तब से राजनीतिक हाशिए पर हैं, जब से भाजपा ने उन्हें 2019 के लोकसभा चुनाव में टिकट देने से इनकार कर दिया था. 2014 के लोकसभा चुनाव में, अभिषेक ने राजनांदगांव सीट से 2.35 लाख वोटों से जीत हासिल की थी, जो कभी उनके पिता द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया था, जो राज्य में सबसे बड़ी जीत थी. 2018 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की करारी हार के बाद आलाकमान रमन सिंह से नाराज बताया जा रहा था. भाजपा ने अभिषेक सहित छत्तीसगढ़ के अपने सभी 10 मौजूदा सांसदों को छोड़ने का फैसला किया. भाजपा ने 2019 में भी राजनांदगांव जीता था, लेकिन उसकी जीत का अंतर घटकर लगभग 1.12 लाख रह गया था.
राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़-बारां से चार बार सांसद रहे हैं और 2004 में अपने चुनावी पदार्पण के बाद से लगातार चार चुनाव जीते हैं. भाजपा आलाकमान ने उन्हें मंत्री बनाना उचित नहीं समझा. न ही उसे एक संगठनात्मक जिम्मेदारी ही दी.
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के बेटे पंकज ने 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अपनी नोएडा सीट को सबसे बड़ी जीत हासिल की – 1.81 लाख वोटों के अंतर से. उनके पार्टी सहयोगी उन्हें एक बहुत ही उज्ज्वल युवा राजनेता के रूप में आंकते हैं. लेकिन फ़िलहाल उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के बेटे को यूपी बीजेपी के 18 उपाध्यक्षों में से एक के रूप में अपनी नवीनतम नियुक्ति से संतुष्ट रहना होगा.
मध्य प्रदेश में सीएम शिवराज चौहान के बेटे कार्तिकेय की अपने पिता के निर्वाचन क्षेत्र बुधनी में राजनीतिक गतिविधियों को लेकर काफी उत्सुकता है. वह गांवों में बड़े पैमाने पर यात्रा कर रहे हैं. 2018 के बाद से जब उन्होंने उपचुनाव कोलारस में एक रैली को संबोधित किया, बुधनी के बाहर उनका पहला राजनीतिक कार्यक्रम था, तब से उनके चुनावी पदार्पण के बारे में अटकलें लगाई जा रही हैं. इस बीच, कार्तिकेय पढ़ाई के लिए विदेश चले गए और अपने पिता के निर्वाचन क्षेत्र में लौट आए. क्या वह चुनावी शुरुआत करेंगे? इस पर पिता-पुत्र दोनों चुप्पी साधे हुए हैं. जाहिर है क्यों.
दिवंगत प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन ने 2014 में मुंबई उत्तर मध्य लोकसभा क्षेत्र जीतकर इतिहास रचा था. यह पहली बार था जब भाजपा ने उस सीट पर जीत हासिल की थी. उन्होंने 2019 में भी इसे जीता. अटल बिहारी वाजपेयी के लिए प्रमोद महाजन वही थे जो आज नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह हैं. फिर भी, इसने उनके राजनीतिक करियर में मदद नहीं की. उन्हें BJYM की महाराष्ट्र इकाई के साथ शुरुआत करने और 2016 में इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने तक संघर्षो का सामना करना पड़ा. सिद्ध संगठनात्मक कौशल के साथ एक शानदार राजनीतिज्ञ, महाजन सोच रही होंगी कि मोदी-शाह की योजना में शामिल होने के लिए उन्हें और क्या करना पड़ेगा- सरकार या पार्टी संगठन में.
वरुण गांधी, तीन बार के भाजपा सांसद, जो 2013 में सबसे कम उम्र के राष्ट्रीय महासचिव बने, सोच रहे होंगे कि वे आलाकमान के पक्ष से बाहर क्यों हो गए. उनकी मां, मेनका गांधी का केंद्रीय मंत्रिमंडल में होना मोदी-शाह के लिए उन्हें उपेक्षा करने का एक संभावित कारण हो सकता था. 2019 में उनकी मां के मंत्रिमंडल से बाहर होने के बाद भी उनके लिए आलाकमान ने कुछ नहीं किया. वरुण जो कि एक तेज राजनेता है अब अपना धैर्य खोते दिख रहे हैं. पिछले कुछ महीनों में किए गए उनके ट्वीट कई बार पार्टी लाइन से अलग होते हैं.
भाजपा में ये और भी कई युवा वंशवादी हैं, जो सोच रहे होंगे कि आखिर कब तक एक नजर पड़ने के इंतजार में कतार में खड़े रहना होगा. कुछ मामलों में, कारण स्पष्ट दिख सकते हैं. उदाहरण के लिए, बीएस येदियुरप्पा, वसुंधरा राजे और रमन सिंह, आलाकमान के साथ रिश्ते अच्छे नहीं हैं और उनके बच्चे इस कारण भुगत रहे हैं. हालांकि, एक प्रतिवाद किया जा सकता है कि मोदी-शाह हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल के बहुत बड़े प्रशंसक नहीं थे, लेकिन वे उनके बेटे अनुराग ठाकुर को बढ़ावा देते रहे. उत्पल के दिवंगत पिता मनोहर पर्रिकर भी मोदी के विश्वासपत्र थे. पूनम महाजन के दिवंगत पिता भले ही वाजपेयी के बहुत करीब रहे हों, लेकिन वह पूरी तरह से मोदी की वफादार रही हैं.
इसलिए, कोई सामान्य सूत्र नहीं है जो यह बता सके कि क्यों कुछ राजवंशी मोदी की पार्टी और सरकार में कुछ लोग इतना अच्छा करते है जबकि कई अन्य को लगातार अनदेखा किया जाता है. काश अनुराग ठाकुर उन्हें एक या दो टिप दे पाते!
(संपादन: पूजा मेहरोत्रा)
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