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Monday, 6 May, 2024
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पसमांदाओं तक BJP की आउटरीच- सावरकर के भारत के विचार को अपनाने वाला 2024 का रोडमैप

मुस्लिम वोट बटोरने के लिए अपनी सोशल इंजीनियरिंग में, इस बात की संभावना है कि BJP पहले से बीमार चल रहे समुदाय को और विभाजित कर सकती है.

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मिशन 2024 के तहत कई राज्यों में पसमांदा मुसलमानों को रिझाने के लिए बीजेपी के हालिया आउटरीच कार्यक्रम, समुदाय के प्रति पार्टी के रुख को देखते हुए कुछ लोगों को अस्वाभाविक लग सकते हैं. लेकिन बीजेपी सभी संभावित स्थितियों का फायदा उठाकर असामान्य चुनावी जीत हासिल करने की कला में माहिर हो गई है. ऐतिहासिक क्रियाओं और नई परिकल्पना के एक चतुर मिश्रण से, इसने विपक्षी दलों को बहुत पीछे छोड़ दिया है.

एक नैरेटिव और आउटरीच तैयार करने की प्रक्रिया विकसित करने के अलावा, पार्टी ने ये सुनिश्चित करने के लिए नियमित जांच और सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग किया है कि हर तीन में से एक वोट उसकी झोली में आ जाए. इसकी सहायता से वो पूरे देश, ख़ासकर हिंदी पट्टी में एक ज़बर्दस्त वोट कैचर बन गई है.

हैदराबाद में बीजेपी राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक के कुछ हफ्तों बाद, पसमांदा मुसलमानों तक अपनी पहुंच बढ़ाने के लिए, पार्टी ने अब उत्तर प्रदेश में समुदाय तक पहुंचने की तैयारी की है- वो सूबा जहां देश की सबसे अधिक मुस्लिम आबादी रहती है.

पसमांदा मुसलमान और BJP का अल्पसंख्यक रोडमैप

भारतीय संदर्भ में, मुसलमान एक अखंड श्रेणी नहीं हैं. उन्हें मोटे तौर पर तीन सामाजिक समूहों में बांटा जाता है- अशराफ (‘कुलीन’ मुसलमान), अजलाफ (‘पिछड़े’ मुसलमान), और अरज़ाल (‘दलित’ मुसलमान). बाद के दो वर्गों को सामूहिक रूप से ‘पसमांदा’ कहा जाता है- एक फारसी शब्द जिसका मतलब है ‘जो पीछे छूट गए’ और जिसे मुसलमानों के बीच दलित वर्गों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. पसमांदा मुसलमान नेताओं का दावा है कि ये समुदाय भारत में मुसलमानों की कुल आबादी का लगभग 85 प्रतिशत हैं.

ऐसा लगता है कि बीजेपी ने समावेशन और प्रतिनिधित्व के आधार पर, समुदाय तक पहुंचने के लिए एक रणनीति तैयार की है. 2022 के यूपी असेम्बली चुनावों में भी पसमांदा मुसलमानों तक पहुंचने के लिए पार्टी ने एक रणनीतिक नज़रिया अपनाया था, और एक लक्षित समुदाय आउटरीच सुनिश्चत की. बीजेपी के इस समय मुसलमानों के बीच विविधता को मान्यता देने को निम्नलिखित संदर्भ में समझा जा सकता है.

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एक राजनीतिक पहचान बनाना

मुस्लिम समुदाय के सीधे और बड़े पैमाने पर समर्थन के बिना- जिसमें पसमांदा और अशराफ दोनों शामिल थे- बीजेपी ने लगातार दो लोकसभा चुनाव जीत लिए, और लगातार संकेत दे रही है कि 2024 में भी उसका प्रदर्शन ऐसा ही रहेगा. फिर भी, वो समुदाय में सेंध लगाने की तैयारी कर रही है, जिसे परंपरागत रूप से विपक्षी दलों का वोटबैंक माना जाता है. पार्टी के पसमांदा नेताओं के मुताबिक़ ये तैयारियां 2014 से पहले ही शुरू हो गईं थीं.

सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मूले का पालन करते हुए पसमांदा समुदाय की ओर बीजेपी की आउटरीच यूपी और बिहार में बढ़त हासिल करने की दिशा में एक क़दम है- वो सूबे जिनमें पसमांदा समुदाय की अच्छी ख़ासी आबादी है, जो क्रमश: लगभग 3.5 करोड़ और 1.5 करोड़ है. इससे संभावित रूप से यूपी में समाजवादी पार्टी (एसपी), और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) पर भारी असर पड़ सकता है, चूंकि मुस्लिम-यादव गठबंधन में मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा हिस्सा है. अगर अतीत से संदर्भ लें, जहां बीजेपी ने ग़ैर-यादव और ग़ैर-जाटव मतदाता आधार को निशाना बनाकर इन पार्टियों को कमज़ोर किया है, तो वहां यही नज़र आता है.

इसके अलावा, समुदाय के भीतर की ये अवधारणा कि राजनीतिक दलों और समान विचारों वाले सिविल सोसाइटी संगठनों ने मुसलमानों के बीच आंतरिक विभाजन के सवाल को तवज्जो नहीं दी, स्थिति को और बढ़ा दिया है. ‘पसमांदा’ शब्द को मुख्यधारा में लाकर बीजेपी शायद उम्मीद कर रही है कि पिछड़े मुस्लिम वर्गों की सभी उप-जातियों को एकजुट करने की संभावना बन सकती है.

संतुलन का काम या उपकार?

पसमांदा समुदाय के नेताओं को मुख्य पदों पर बिठाकर, बीजेपी ने सिस्टम में पहले ही दंतीला पहिया फिट कर दिया है. यूपी विधानसभा चुनावों में पार्टी ने किसी एक मुसलमान उम्मीदवार को भी टिकट नहीं दिया, लेकिन उसने समुदाय के बहुत से नेताओं को अलग-अलग हैसियतों में जगह दी है. एक पसमांदा दानिश अंसारी को मार्च में अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री बनाया गया.

इसके अलावा, एक लक्षित प्रयास में बीजेपी ने पार्टी के अंदर समुदाय का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करते हुए, जमाल सिद्दीक़ी को बीजेपी अल्पसंख्यक मोर्चे का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया है, और कई पसमांदा नेताओं को दूसरे महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया है, जिनमें अशफाक़ सैफी बतौर अल्पसंख्यक आयोग अध्यक्ष, इफ्तिख़ार अहमद जावेद बतौर यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड अध्यक्ष, चौधरी कैफ-उल-वरा बतौर यूपी उर्दू आकादमी अध्यक्ष शामिल हैं.

इसके अलावा, बीजेपी नेतृत्व भूमिका के लिए समुदाय के भीतर से और व्यक्तियों की पहचान करने की तैयारी कर रही है.

बीजेपी कल्याण योजनाओं की सफलता का भी दावा करती है: 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सबका साथ, सबका विकास का नारा दिया था. बीजेपी अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के नेता दावा करते हैं कि मुसलमानों के लिए योजनाएं बनाई और लागू की गईं, जिनमें महिला सशक्तीकरण, स्वास्थ्य, शिक्षा और पिछड़े मुसलमानों के उत्थान पर ध्यान दिया गया.

यूपी अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री पुष्टि करते हैं कि महामारी के दौरान मुफ्त राशन योजना से मुस्लिम समाज, ख़ासकर ग़रीब और पिछड़े मुसलमानों को बहुत फायदा पहुंचा था. प्रधानमंत्री आवास योजना से ग़रीब मुसलमानों को सीधे सहायता मिली है. कई सरकारी स्कीमों के 35 से 40 प्रतिशत तक लाभार्थी पसमांदा और आर्थिक रूप से वंचित मुसलमान हैं.

सावरकर के भारत के विचार को अपनाना?

उसके अलावा, पसमांदा मुसलमानों को स्थान देना, भारत की वृहत हिंदू पहचान के सावरकर के विचार के साथ मेल खाता है. उनका तर्क था कि हिंदू वो हैं जो भारत को अपनी मातृभूमि, अपने पुर्खों की भूमि, और अपनी पवित्र भूमि समझते हैं.

भारत ‘हिंदुओं की भूमि है’ क्योंकि उनकी नस्ल ‘भारतीय’ है. अशराफ के विपरीत, जो अपनी वंशावली को अरब और फारस से जोड़ते हैं, पसमांदा मुसलमान कथित रूप से स्थानीय भारतीय आबादी हैं, जिसने इस्लाम धर्म अपना लिया था.

पसमांदा मुसलमानों की एक बड़ी आबादी के लिए, वर्षों के इस्लामीकरण के बावजूद, स्वदेशी रीति-रिवाज और रस्में उनकी संस्कृति का हिस्सा बनी रही हैं. इसलिए, पसमांदा मुसलमानों को विशेष अधिकार देकर बीजेपी, उन्हें अपने सांस्कृतिक स्वदेशीकरण कार्यक्रम के बड़े नैरेटिव में फिट करने की कोशिश कर रही है.

मुस्लिम वोट बटोरने के लिए अपनी अनोखी सोशल इंजीनियरिंग में, इस बात की संभावना है कि बीजेपी पहले से बीमार चल रहे समुदाय के और टुकड़े कर सकती है. देश के राजनीतिक संवाद में ‘पसमांदा’ को मुख्यधारा में लाने से मुस्लिम पिछड़ी जातियों का उत्थान सुनिश्चित नहीं होता, और समुदाय के भीतर ऊंची और नीची जातियों के बीच का सामाजिक विभाजन भी सामने नहीं आता. इससे वो संभावनाएं कम हो जाएंगी कि दमन का सामना कर रहा समाज अलग अलग जातियों की बजाय, एक संयुक्त मुस्लिम मोर्चे के रूप में विकसित हो सकेगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(सिद्धार्थ रैना दिल्ली-स्थित स्वतंत्र एक शोधकर्ता हैं, और सारा जमाल भी एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं, जिन्होंने पहले एक अफगान पत्रिका रिपोर्टर्ली के लिए काम किया है. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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