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Wednesday, 20 November, 2024
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सत्ता पर पूर्ण पकड़ की BJP की छटपटाहट का कारण उसकी अपनी कमजोरी है

मैं योगेंद्र यादव की बात से सहमत नहीं हूं. मेरी मान्यता है कि बीजेपी की सत्ता पर पकड़ दरअसल ढीली है और उसके द्वारा मचाया जा रहा उत्पात उसकी कमजोरी का परिणाम है.

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राजनीति विज्ञानी योगेंद्र यादव ने हाल में एक लेख लिखा है, जिसमें उन्होंने ये कहा है कि बीजेपी राजनीतिक रूप से बेहद मजबूत स्थिति में है और अब पूरी राजसत्ता पर संपूर्ण नियंत्रण के लिए काम कर रही है. हाल के दिनों में देश भर में हुई उत्पात और उथल-पुथल की तमाम तरह की घटनाओं जैसे हिजाब विवाद, अजान के लिए लाउडस्पीकर के इस्तेमाल का विवाद, ज्ञानवापी मस्जिद में ‘शिवलिंग’ की खोज, टीवी पर इस्लाम के संस्थापक को लेकर टिप्पणी, खास मामलों में खास लोगों के खिलाफ बुलडोजर का इस्तेमाल, राहुल गांधी की ईडी द्वारा लंबी पूछताछ से लेकर महाराष्ट्र में तख्तापलट तक में वे बीजेपी की इसी प्रवृत्ति यानी राजसत्ता पर पूर्ण नियंत्रण की चाहत को जिम्मेदार मानते हैं. इसे वे ‘टोटल पॉलिटिक्स’ का नाम देते हैं.

योगेंद्र यादव की मुख्य स्थापना ये है कि बीजेपी का संसदीय राजनीति पर पूर्ण नियंत्रण है. इस मजबूत धरातल पर खड़ी होकर वह हर उस क्षेत्र में फैलने में जुटी है, जहां उसकी पकड़ अब तक बन नहीं पाई है. उनका कहना है कि 2022 की गर्मियों में बीजेपी ने जो उथल-पुथल मचाई है, वह कोई अपवाद नहीं है. बल्कि उसके प्रभाव विस्तार की महत्वाकांक्षा का परिणाम है.

वे लिखते हैं कि बीजेपी ‘टोटल पॉलिटिक्स की ताकत के अन्य सभी रूपों मसलन, चुनावी ताकत, प्रशासनिक ताकत, विचारधारा की ताकत और सड़क-चौबारे की जमघट के बीच पनपने वाली ताकत पर पूर्ण नियंत्रण करना चाहती है.’

मैं योगेंद्र यादव की इस बात से तो सहमत हूं कि बीजेपी चुनावी राजनीति में बेहद मजबूत स्थिति में है. लोकसभा में उसका पूर्ण बहुमत है. ज्यादातर उत्तर और पश्चिम भारत, दक्षिण में कर्नाटक और अब महाराष्ट्र में भी उसकी सरकार है. लंबे समय बाद देश में इतनी मजबूत पार्टी का उभार देखा गया है. लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि बीजेपी अंधाधुंध उत्पात इसलिए मचा रही है क्योंकि सत्ता पर उसकी पकड़ बहुत मजबूत है. बल्कि मेरी मान्यता है कि बीजेपी की सत्ता पर पकड़ दरअसल ढीली है और उसके द्वारा मचाया जा रहा उत्पात उसकी कमजोरी का परिणाम है.

ये बात परस्पर विरोधी लग सकती है कि मैं एक साथ बीजेपी को चुनावी राजनीति में मजबूत बता रहा हूं और सत्ता पर उसकी पकड़ को ढीली भी बता रहा हूं.

इसके लिए हमें ये समझना होगा कि सत्ता एक पूरा पैकेज है. राजनीतिक सत्ता संपूर्ण सत्ता का एक हिस्सा है. शक्तिशाली होने और सत्ता का इकबाल यानी अथॉरिटी होने में फर्क होता है. आधुनिक लोकतंत्र में सत्ता राजनीतिक संस्थाओं के साथ ही सिविल सोसायटी में भी निहित है. जहां राजनीतिक सत्ता मुख्य रूप से चुनावों और उससे हासिल संख्याओं से निर्धारित होती है, वहीं सिविल सोसायटी विचार, कला-संस्कृति, विचारधारा और विमर्श आदि के जरिए चलती है.

अगर किसी दल या नेता ने राजनीतिक संस्थाओं पर नियंत्रण कर लिया है और सिविल सोसायटी उसके नियंत्रण में नहीं है तो उसकी सत्ता संपूर्ण नहीं होगी. बीजेपी के साथ दरअसल यही हो रहा है. संसद और ज्यादातर विधानसभाएं बीजेपी के नियंत्रण में हैं लेकिन सिविल सोसायटी के विमर्श और चर्चाओं पर उसका उस हद तक कब्जा नहीं हो पाया है.

समाज के प्रभु वर्ग के साथ बीजेपी का अभी तक ठीक से तालमेल नहीं बैठ पाया है. इसलिए अमीर और प्रभावशाली अंग्रेजीदां इलीट पर बीजेपी हमला करती रहती है. ये हमला अक्सर खान मार्केट गैंग पर हमले की शक्ल में सामने आता है. इलीट वो वर्ग है, जो राजनीतिक शासकों के साथ तालमेल बनाकर चलना चाहता है, क्योंकि इसमें उसका फायदा भी है और उसकी पोजिशन भी इस तरह सुरक्षित रहती है.

आश्चर्य है कि नरेंद्र मोदी के शासन में आने के साढ़े सात साल बाद भी बीजेपी इलीट को दुश्मन की तरह देख रही है. ये तब है जबकि विधायिका और कार्यपालिका में बीजेपी के लिए कोई चुनौती नहीं है और न्यायपालिका और मीडिया से सरकार का आम तौर पर कोई टकराव नहीं है.

बीजेपी को ये सुविधा है कि वह ताकत के बूते, धमका कर या प्रशासनिक डंडे से देश में इस समय मोटे तौर पर कुछ भी करा ले जा सकती है. लेकिन ये सब करने के लिए उसे ताकत, धमकी या प्रशासनिक डंडे का इस्तेमाल करना पड़ता है, ये ही उसकी कमजोरी है. सत्ता का इकबाल तभी माना जाएगा, जब लोग, संस्थाएं और यहां तक कि प्रतिपक्ष भी खुद ब खुद सरकार या पार्टी या नेता का कहा हुआ मान लें. जिस पर या जिसके हितों के खिलाफ सत्ता का प्रयोग हो रहा है, वह भी इसे उचित और जरूरी माने, तभी माना जाएगा कि सत्ता लाठी से नहीं, इकबाल से चल रही है.

मिसाल के तौर पर, हिजाब विवाद में अगर सरकार कहती कि स्कूलों-कॉलेजों में हिजाब पहनकर न आएं और तमाम लोग इस बात को मान लेते तो ये सत्ता का इकबाल माना जाता. लेकिन जब सरकार कहे कि हिजाब पहनकर आने वाले को शिक्षा संस्थानों में घुसने या परीक्षा देने नहीं दिया जाएगा और इसके बाद लड़कियां हिजाब के बिना स्कूल या कॉलेज आएं तो ये शासन की ताकत नहीं, कमजोरी की निशानी माना जाएगा.

इसी तरह अग्निवीर और अग्निपथ भर्ती योजना के खिलाफ जब आंदोलन तेज हो गया, तो सरकार की तरफ से ये कहा गया कि जो भी युवा हिंसक आंदोलन में शामिल हैं, उन्हें इस योजना में काम नहीं मिलेगा और उन्हें लिख कर देना हो कि वे ऐसे आंदोलन में शामिल नहीं थे. इस घोषणा के बाद आंदोलन खत्म हो गया. लेकिन इससे ये भी साबित हुआ कि सरकार युवाओं को ये नहीं समझा पाई कि ये योजना उनके लिए कैसे फायदेमंद है. सरकार की तरफ से दी गई चेतावनी से शासन की मजबूती नहीं, कमजोरी जाहिर हुई है.

इसी तरह सरकार जब अपनी मर्जी चलाने के लिए बुलडोजर का इस्तेमाल करती है और किसी खास समुदाय के खिलाफ बुलडोजर ज्यादा चलते हैं, तो इससे यही साबित होता है कि बुलडोजर चलाए बिना और इसका खौफ दिखाए बिना सरकार का सिक्का उस समुदाय पर नहीं चल सकता. ये सहमति से स्थापित हुआ वर्चस्व नहीं है. बल्कि इसके लिए ताकत का इस्तेमाल करना पड़ा है. ये कमजोर सरकार के लक्षण हैं.


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ताकत बनाम सहमति

ताकत से सत्ता की स्थापना और सहमति से सत्ता की स्थापना में फर्क को ऐतिहासिक उदाहरणों से भी समझा जा सकता है.

आजादी के बाद देश की राजनीति और सिविल सोसायटी पर जवाहरलाल नेहरू का एकछत्र दबदबा था. संसद और विधानसभाओं पर कांग्रेस हावी थीं. उस दौर में हिंसा और चेतावनी आदि का सहारा लिए बिना नेहरू अपनी ज्यादातर योजनाओं और विचारों को लागू करा पाए. हैदराबाद, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों के अपवादों को छोड़ दें तो नेहरू के शासन में ताकत के इस्तेमाल के उदाहरण कम हैं.

इनके मुकाबले अगर इंदिरा गांधी के शासन को देखें तो 1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को लोकसभा में 352 सीटें मिलीं. यानी राजनीतिक सत्ता पर उनका दबदबा था. लेकिन सिविल सोसायटी यानी विचारों, संस्कृति, विचारधारा आदि पर उनकी पकड़ उतनी मजबूत नहीं थी. इसलिए गैर-राजनीतिक क्षेत्र से उनके खिलाफ आंदोलन शुरू हो गया और जयप्रकाश आंदोलन आखिरकार इतना बड़ा हो गया कि इंदिरा गांधी सत्ता और बल का ज्यादा से ज्यादा प्रयोग करने लगीं. इसकी परिणति इमरजेंसी और फिर अगले चुनाव में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की हार की शक्ल में सामने आया. राजनीतिक सत्ता पर पकड़ के बावजूद इंदिरा गांधी शासन के आखिरी ढाई साल में काफी कमजोर रहीं.

इसी तरह, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी को 1984 में भारी चुनावी जीत हासिल हुई और इस चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा में 400 से ज्यादा सीटें मिलीं. लेकिन राजनीतिक क्षेत्र का दबदबा राजीव गांधी को मजबूत शासक नहीं बना पाया.

सिविल सोसायटी, मीडिया, बुद्धिजीवी आदि उनके खिलाफ हो गए. उनकी सत्ता लगातार कमजोर पड़ती चली गई. इसी सबके बीच उन्होंने कई गलत फैसले किए. जैसे शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट के महिला समर्थक फैसले को उनकी सरकार ने कानून बनाकर पटल दिया.

इसे संतुलित करने के लिए उनके शासनकाल में अयोध्या के विवादास्पद ढांचे का ताला खोल दिया गया. इससे पहले भारत ने अपनी सेना श्रीलंका भेजकर वहां के मामलों में हस्तक्षेप कर दिया. ये सारे कदम अपनी कमजोरी को ढकने और खुद पर हो रहे हमलों की धार कमजोर करने के लिए उठाए गए. ये उदाहरण भी बताता है कि लोकसभा और विधानसभाओं में बहुमत होने भर से किसी नेता या पार्टी का बोलबाला नहीं हो जाता है.

क्या 2022 में बीजेपी उसी समस्या का शिकार है, जिस समस्या का सामना कभी इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने किया था? इंदिरा और राजीव गांधी ने भी सत्ता की दंडात्मक ताकत का इस्तेमाल किया था. बीजेपी और नरेंद्र मोदी इसमें और भी आगे बढ़ गए हैं.

ऐसा लगता है कि बीजेपी और नरेंद्र मोदी अपनी सत्ता की मजबूती और उसके टिकाऊ होने को लेकर आश्वस्त नहीं है. उनके पास संख्या तो है, पर शासन का इकबाल नहीं है. सिविल सोसायटी पर उनका सिक्का आज भी नहीं चलता.

बीजेपी सरकार अपने विरोधियों के खिलाफ जो अंधाधुंध कदम उठा रही है, वह संभवत: इसी कमजोरी और संशय की उपज है.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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