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Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतBJP शासन में हाशिए पर पहुंचा मुस्लिम समुदाय, इसमें दलितों और OBCs के लिए संदेश छिपा है

BJP शासन में हाशिए पर पहुंचा मुस्लिम समुदाय, इसमें दलितों और OBCs के लिए संदेश छिपा है

मुसलमानों के प्रति भारतीय शासन व्यवस्था उदार कभी नहीं रही. ऐसा भी नहीं है कि मुसलमानों के प्रति शासन का भेदभाव बीजेपी के सरकार में आने के बाद शुरू हुआ.

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अनुसूचित जाति यानी पूर्ववर्ती दौर के अछूत और अब दलित नाम से भी जाने वाला समुदाय हिंदू वर्ण व्यवस्था का पंचम यानी बाह्य हिस्सा था. इस नाते उसे सबसे नीचे का स्थान दिया गया था. तमाम धर्मों के लोगों को मिलाकर भारत में ऊंच-नीच की जो समाज व्यवस्था थी, उसमें भी दलितों को सबसे नीचे गिना गया. अगर भारतीय समाज व्यवस्था की तुलना एक ऐसी इमारत से करें, जिसमें ऊपर या नीचे चढ़ने-उतरने वाली सीढ़ियां न हों तो सवर्ण यानी उच्च जातियों को ऊपर के फ्लोर मिले वहीं, दलितों के हिस्से बेसमेंट याना तहखाना आया.

लेकिन इस व्यवस्था में अब बदलाव आया है. ऊपर के फ्लोर के लोग तो अपनी-अपनी जगह मौजूद हैं लेकिन सबसे नीचे की मंजिल और बेसमेंट में रहने वालों का क्रम बदल गया था.

जिस तरह से हाल के वर्षों और महीनों में बीजेपी सरकारों ने मुसलमानों के साथ व्यवहार किया है- स्कूलों में हिजाब पहनने पर जिस तरह विवाद को सरकार ने आगे बढ़ाया, जिस तरह मॉब लिंचिंग को न सिर्फ होने दिया, बल्कि ऐसा करने वालों को जिस तरह अक्सर बीजेपी द्वारा सम्मानित किया गया, मुसलमान विरोधी भड़काऊ भाषण देने वालों को जिस तरह नायक बनाया गया, जिस तरह नवरात्रि के दौरान मांस और खासकर हलाल मांस को लेकर विवाद भड़काया गया और बीजेपी शासित नगर निगम जिस तरह इसमें शामिल हुए और जिस तरह से नागरिकता कानून को धर्म आधारित बनाया गया, उसके आधार पर ये कहा जा सकता है कि मुसलमान भारतीय समाज व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर पहुंच गए हैं. इस तरह दलितों का स्थान अब, कम से कम सरकार की नज़र में मुसलमानों से ऊपर है.

मुसलमानों के प्रति भारतीय शासन व्यवस्था उदार कभी नहीं रही. ऐसा भी नहीं है कि मुसलमानों के प्रति शासन का भेदभाव बीजेपी के सरकार में आने के बाद शुरू हुआ. मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में आई सच्चर कमेटी रिपोर्ट से ये जाहिर हो गया था कि सरकारी नौकरियों से लेकर बैंकों से लोन लेने के मामले में मुसलमान काफी पीछे रह गए हैं. लेकिन पिछली सरकारों और अब की सरकार की मुसलमान नीति में दो बड़े फर्क हैं.

पहला फर्क तो ये है कि बीजेपी शासन ने निष्पक्षता की जो एक झीनी सी चादर हुआ करती थी, उसे फेंक दिया है. मिसाल के तौर पर, विवाद हिजाब का हो या मीट बैन का, हमेशा सरकार या शासकीय संस्थाएं एक पक्ष के तौर पर मौजूद हैं और वह पक्ष निष्पक्ष नहीं है. बीजेपी और बीजेपी के वैचारिक सहयोगी संगठनों के नेता जिस तरह खुलकर मुसलमानों के खिलाफ बोलते हैं, इसका चलन पहले नहीं था.

ताजा घटना को ही देखें तो दिल्ली की जहांगीरपुरी में इमारतें गिराने का काम बीजेपी नियंत्रित उत्तर दिल्ली नगर निगम (एनडीएमसी) ने किया और इसके लिए मांग बीजेपी की प्रदेश इकाई ने की. पहले ये नहीं होता था कि लिंचिंग के अभियुक्तों का सत्ताधारी दल नागरिक अभिनंदन करें. अब ये होने लगा है. पहले मुसलमान विरोधी तत्वों को शासन का गुपचुप समर्थन रहता होगा लेकिन अब ये खुलकर होने लगा है. हाशिए के उपद्रवी सांप्रदायिक तत्व अब मुख्यधारा बन चुके हैं.


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दूसरा फर्क ज्यादा महत्वपूर्ण है. पहले मुस्लिम उत्पीड़न या मुस्लिम विरोधी हिंसा के निशाने पर मुख्य रूप से गरीब और वंचित मुसलमान होते थे. नरेंद्र मोदी के शासन काल में बीजेपी के निशाने पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया भी हैं, जहां अच्छी संख्या में मुस्लिम इलीट तैयार होते हैं. बीजेपी ने मुसलमानों के कई बड़े और दबंग नेताओं को जेल में डाला है, जिनमें आजम खान, मुख्तार अंसारी शामिल हैं. इनके अलावा यंग स्कॉलर्स जैसे उमर खालिद और शरजील इमाम तथा डॉक्टर कफील खान को भी जेल जाना पड़ा और उन पर सख्त धाराएं लगाई गईं. मुसलमानों के हर आंदोलन और प्रतिरोध के बाद सरकार बड़े पैमाने पर पढ़े-लिखे युवाओं को लंबे समय के लिए जेल में डाल रही है.

सवाल उठता है कि बीजेपी ये सब कर क्यों रही है? इसकी एक सरल व्याख्या ये है कि हिंदू-मुसलमान द्वेष बीजेपी की राजनीति का मूल आधार है. सावरकर के हिंदुत्व के मूल में भी यह अंतर्विरोध था. मुस्लिम विरोध के बिना बीजेपी के लिए हजारों जातियों में बंटे हिंदू समाज के मतदाताओं के बड़े हिस्से को एकजुट कर पाना संभव नहीं है. इससे बीजेपी को एक फायदा ये भी है कि सांप्रदायिक तापमान गर्म रहने की स्थिति में हिंदू धर्म की नीचे की जातियां अपने हक-अधिकार के लिए मुखर नहीं हो पाती हैं. यह स्थिति बीजेपी को पसंद आती है. चूंकि द्वेष की ये राजनीति बीजेपी को चुनावों में राजनीतिक फायदा देती है, इसलिए ये स्वाभाविक है कि बीजेपी इस कड़ाही को लगातार गर्म रखती है.

मैं बीजेपी की वर्तमान मुस्लिम नीति की एक और व्याख्या पेश करना चाहता हूं. मेरा ऐसा मानना है कि बीजेपी मुसलमानों को निशाने पर लेकर दरअसल हिंदुओं की वंचित जातियों की भावनाओं को सहला रही है.

जैसा कि मैंने पहले लिखा कि दलित जातियां हिंदू ही नहीं, संपूर्ण भारतीय समाज के सबसे निचले पायदान पर रही हैं. अब मुसलमानों को प्रताड़ित करके बीजेपी मुसलमानों की स्थिति को दलितों से भी खराब करने में जुटी है. इस प्रक्रिया में बीजपी दलितों और अति पिछड़ी जातियों को कुछ दे नहीं रही है. उन्हें सिर्फ ये एहसास कराया जा रहा है कि तुमसे नीचे भी कोई है. तुम सबसे नीचे नहीं हो.

दलितों को लेकर बीजेपी की नीतियों को देखें तो इनमें उनके वास्तविक उत्थान की बातें कम हैं. बीजेपी बाबा साहब की जयंती मना रही है, उनके जीवन से जुड़े स्थलों पर पंच तीर्थ बनाए गए हैं, दलित नेताओं के घर बीजेपी के लोग सहभोज कर रहे हैं और उन्हें कुछ शोभा के पदों पर भी बैठाया गया है. उस तरह इन जातियों के जीवन का वास्तविक दुख बेशक कम नहीं हो रहा है लेकिन उन्हें भावनात्मक सुख का एहसास जरूर कराया जा रहा है.

हालांकि जब मामला फंस जाता है तो, जैसा कि एससी-एसटी एक्ट के मामले में हुआ और दलितों का प्रतिरोध बढ़ा तो बीजेपी सरकार ने संसद में कानून पारित कर के एससी-एसटी एक्ट को पुराने रूप में बहाल भी किया. इससे समझा जा सकता है कि बीजेपी के चुनावी गणित में दलित कितने महत्वपूर्ण हैं. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि दलितों को हिंदू समाज व्यवस्था में कोई ऊपर की जगह दे दी जाएगी क्योंकि उनको ऊपर करने का मतलब होगा हिंदू समाज में किसी अन्य जाति को उनसे नीचे स्थापित करना. ये कोई आसान काम नहीं है.


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दरअसल भारतीय समाज व्यवस्था में सबसे नीचे का पायदान एक ऐसी जगह है, जहां कोई रहना नहीं चाहता. ये जाति व्यवस्था नाम की इमारत की नींव भी है, जो पूरी इमारत का वजन ढोती है. इस नींव की जरूरत हमेशा रही है लेकिन इस पायदान के व्यक्ति की हसरत हमेशा ऊपर उठने की होती है. हिंदू धर्म व्यवस्था इस तरह की गति को रोकने का कार्य करती है. बीजेपी हिंदू धर्म से निकली जाति व्यवस्था को तो नहीं छेड़ रही है, यानी हिंदू वर्ण क्रम में दलित समरसता के साथ सबसे नीचे बने रहेंगे लेकिन उनके आत्मिक संतोष के लिए उनके नीचे मुसलमानों को रखा जा रहा है.

ऐसा करके बीजेपी दो ऐसे वर्गों को एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर खड़ा कर रही है, जो भारतीय समाज में सर्वाधिक पिछड़े और वंचित हैं, जिनके बीच स्वाभाविक तौर पर एकता होनी चाहिए. अमेरिकी लेखिका इजाबेल विल्कर्सन ने अपनी किताब कास्ट: द ऑरिजन ऑफ आवर डिसकंटेंट में विस्तार से बताया है कि नीचे के समूहों में किस तरह की आपसी प्रतियोगिता होती है और किस तरह से समूह एक दूसरे को अपना प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मान लेते हैं. वे बताती हैं कि जाति व्यवस्था इस तरह से बनाई गई है कि सबसे नीचे के पायदान पर कोई नहीं रहना चाहता. इसलिए जब सबसे नीचे की जाति ऊपर उठने की कोशिश करती है तो उसका पहला टकराव अपने से ठीक ऊपर की जाति से होता है.

भारतीय समाज व्यवस्था में दलितों और मुसलमानों के बीच ये तय होना है कि सबसे नीचे कौन हैं. मुस्लिम समुदाय से ये आवाज उठती रही है कि मुसलमान अब दलितों से भी पिछड़ गए हैं और इस आधार पर वे अपने लिए आरक्षण भी मांग रहे हैं. खासकर सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद इस मांग को आंकड़ों और तथ्यों का आधार भी मिल गया है.

2012 में सपा नेता आजम खान ने इसी आधार पर संसद से मांग की थी कि मुसलमानों के लिए आरक्षण लागू किया जाए. नेशनल सैंपल सर्वे की रिपोर्ट के आधार पर क्रिस्तोफ जेफ्रोले और कलियारासन ए. ने 2019 के अपने एक लेख में बताया कि 2017-18 में सिर्फ 14 प्रतिशत मुसलमान युवाओं ने ग्रेजुएशन किया, जबकि दलितों में 18 प्रतिशत, हिंदू ओबीसी में 25 प्रतिशत और हिंदू ऊंची जातियों में 37 प्रतिशत ने ग्रेजुएशन किया था.

कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि बीजेपी ने भारतीय समाज व्यवस्था के सबसे निचले तहखाने में रहने वाला नया समूह खोज लिया है. उस समूह का नाम मुसलमान है.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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